चौरी चौरा : इतिहास और स्मृति के गलियारे से

Shubhneet Kaushik

इतिहासकार शाहिद अमीन की किताब ‘इवैंट, मेटाफर, मेमोरी चौरी चौरा 1922-1992’, महज़ असहयोग आंदोलन के दौरान 1922 में चौरी चौरा में थाने को आग लगाने की घटना के बारे में नहीं है। और न ही यह भारतीय इतिहास के राष्ट्रवादी आख्यान के साँचे में फिट न बैठ पाने वाले एक ऐतिहासिक क्षण का विवरण भर है। बल्कि यह किताब तो बिसुनाथ, भगेलु, बल्ली, दुधई, भगवान अहीर, ठाकुर अहीर, कौलेश्वर कुरमी, नज़र अली जैसे उन सैकड़ों लोगों के बारे में है, जिन्होंने सचमुच मोहनदास गांधी को महात्मा बनाया।

ये वे लोग हैं, जिन्हें राष्ट्रवादी आख्यान में महज़ “उत्तेजित और अनियंत्रित भीड़” का हिस्सा मान लिया जाता है। और अंततः उनकी अपनी राजनीतिक चेतना, इतिहास को निर्णायक मोड़ देने की उनकी क्षमता को ही दरकिनार कर दिया जाता है।

चौरी चौरा का यह इतिहास लिखने के क्रम में शाहिद अमीन अभिलेखागारों में उपलब्ध दस्तावेज़ों, अदालतों के फ़ैसलों, अदालत में दिये गए बयानों और मुकदमे के दौरान पेश किए गए साक्ष्यों का इस्तेमाल तो करते ही हैं। साथ ही, वे चौरी चौरा की घटना से जुड़े रहे लोगों और उनके परिवार के सदस्यों की स्मृतियों का, चौरी चौरा की घटना और उसके बाद कार्यवाहियों से जुड़ी उनकी यादों का भी बख़ूबी इस्तेमाल करते हैं।

नतीजे में हम स्मृतियों के रेशे से बुने गए एक ऐसे समृद्ध इतिहास से वाकिफ़ होते हैं, जो इतिहासलेखन के परंपरागत साक्ष्यों से पुष्ट तो है ही, पर वह इतिहास को, इतिहास के किसी बिन्दु पर घटित घटना को उनसे परे जाकर देखने की हिम्मत भी जुटाता है। बतौर इतिहासकार शाहिद अमीन, राष्ट्रवादी आख्यान के आकर्षण के परे जाकर राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान घटित एक ऐतिहासिक घटना को उससे संबद्ध रहे लोगों की निगाह से देखने का भी जोखिम उठाते हैं।

वे औपनिवेशिक उत्तर भारत के एक कस्बाई जीवन से, उसकी हलचलों से, उसके तनावों-संघर्षों से हमें वाकिफ़ कराते हैं। इस क्रम में, वे हमें इतिहासकार के अंतर्द्वंद्वों से भी गहराई से परिचित कराते हैं। वे सात दशकों तक स्मृति के पन्नों पर घटित हुई उस प्रक्रिया का भी दिलचस्प जायजा लेते हैं जो यादों के इदारे में चौरी चौरा से संबंधित इतिहास को बनाने-गढ़ने, उसमें संशोधन करने से जुड़ी हुई है।

साथ ही, औपनिवेशिक क़ानून व्यवस्था, गवाह/प्रत्यक्षदर्शी की अवधारणा, और शिकारी द्वारा अदालत में दिये गए बयानों के जरिये औपनिवेशिक काल में एक गवाह के बनने की प्रक्रिया से भी हमें परिचित कराते हैं। वे यह भी बताते हैं कि इन सत्तर सालों में चौरी चौरा को लेकर राष्ट्रवादी आख्यान के नजरिए में क्या बदलाव आए हैं और यह भी कि उत्तर-औपनिवेशिक काल में अब भारतीय राष्ट्र चौरी चौरा की घटना और उसमें शामिल लोगों को किस तरह देखता है।

जरूर पढ़ें यह किताब!

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