माजिद मजाज़
हुस्न, मोहब्बत, इंसानी दोस्ती, अदल-ओ-इंसाफ़ का मसीहा और जुर्रत-ए-इज़हार का दूसरा नाम फ़ैज़ अहमद फ़ैज़! उर्दू शायरी को फ़ैज़ पर हमेशा नाज़ रहेगा।
इनका असल नाम फैज़ मोहम्मद खान था आप 13 फ़रवरी 1911 को सियालकोट (ब्रिटिश इंडिया) में पैदा हुए। वालिद का नाम चौधरी सुल्तान मोहम्मद खान था। फ़ैज़ साहब ने अरबी और फ़ारसी की तालीम अल्लामा इक़बाल के उस्ताद शमशुल उलेमा मौलवी मीर हसन से हासिल की। इसके बाद मिशन स्कूल सियालकोट गए और वहीं से मैट्रिक किया, गवर्मेंट कालेज लाहौर से अंग्रेज़ी अदब और नैशनल कालेज लाहौर से अरबी में एमए किया।
1941 में एलिस से इनकी शादी हुई। एलिस ने फैज़ की मोहब्बत में देश के साथ भेष और वतन के साथ ज़बान तक बदल ली।
9 मार्च 1951 को फैज़ साहब रावलपिंडी साज़िश केस में गिरफ़्तार हुये और चार साल से अधिक दिन के बाद 1955 में रिहा हुये।
फैज़ साहब का जो जेल का दौर है वो बहुत ही ख़ूबसूरत दौर रहा है शायरी के हिसाब से, जद्दोजहद के हिसाब से, जुनून और जज़्बात के हिसाब से। वहाँ पे उन्होंने लिखा कि,
“मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने…”
इसी दौर में इन्होंने वो नज़्म भी लिखी जो फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का इंटरनैशनल एंथम बन गया।
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़ुबान अबतक तेरी है..
बोल कि सच ज़िंदा है जबतक..
1962 में फ़ैज़ साहब को लेनिन पीस प्राइज़ से नवाज़ा गया। वो अब्दुल्ला हारून कालेज कराची के प्रिन्सिपल रहे और पाकिस्तान टाइम्स सहित कई न्यूज़ एजेंसी में चीफ़ एडिटर भी रहे।
फ़ैज़ साहब के बारे में ये कहना बहुत मुश्किल है कि वे शायर ज़्यादा बड़े थे या इंसान। क्योंकि उनकी शायरी पर, उनकी विचारधारा पर ऊँगली उठाने वाले तो मिल ही जाते हैं पर उनकी शाइस्तगी उनकी इंसानी दोस्ती, बेनियाज़ी पर शक नहीं किया जा सकता।
फैज़ की शायरी पानी का वो चश्मा है जो उनकी शख़्सियत की चट्टान से फूटता है। इंसानियत से मोहब्बत को लेकर जहाँ उनके यहाँ हुस्न की रंगीनियाँ साँस लेती रहती हैं वहाँ सोज़-ओ-गुदाज लहरें भी कासनी पाज़ेब पहने आ मौजूद हैं।
फैज़ साहब यक़ीनन एक अज़ीम लीजेंड, एक बा-कमाल शायर और एक बेमिशाल इंसान थे।
सभी कुछ है तेरा दिया हुआ
सभी राहतें सभी कुल्फतें
कभी शोहबतें कभी फुरकतें
कभी दूरियाँ कभी कुरबतें
मेरी जान आज का ग़म न कर
कि न जाने कातिब ए वक़्त ने
किसी अपने कल में भी भूल कर
कहीं लिख रखी हो मुसर्रतें।
इनका ये शेर हर अहद में मुल्क और अवाम की सच्चाई को बयान करता है चाहे वो हालात कल रहे हों यार फिर आज के हों।
“निसार मैं तेरी गलियों में ए वतन की जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के जिये।”
“यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से खल्क़
न उनकी रस्म नई है न अपनी रीत नई।”
फैज़ की शायरी में हमेशा ग़रीबों का, मज़दूरों का दुःख दर्द नज़र आता है। फैज़ के यहाँ ग़ज़ल सियासी रंग के साथ लहजा-ए-इंकार की सूरत में नज़र आती है।
“क़त्लगाहों से चुनकर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक के क़ाफ़िले।”
फैज़ साहब की शायरी जब मोहब्बत में रंग में ढलती थी तो यूँ होती थी कि “मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग, तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है”। इस नज़्म को शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने गुनगुनाया न हो।
फैज़ साहब हमारी क़ौमी ज़िंदगी के उस दौर के नकीब हैं जिसमें हम आने वाले ताबनाक दिनों के ख़्वाब देखते थे इज़्तेमाई फलाह म’आशी इंसाफ़ के ख़्वाब और उन ख़्वाबों में हक़ीक़त भरने के लिए सुतून-ए-दार तक जाने के लिए बेताब-ओ-बेकरार भी।
जिन दिनों फैज़ साहब निर्वासन की जिंदगी गुजार रहे थे तो किसी तीसरी दुनिया के मुल्क से गुजरते हुए पश्चिमी बंगाल की राजधानी कोलकाता की एयरपोर्ट पर उतर गए, वहां पर मौजूद इमीग्रेशन वालों ने कहा कि क्योंकि आप पाकिस्तानी हैं और पाकिस्तानी सिर्फ दिल्ली और मुम्बई एयरपोर्ट के रास्ते से ही इंडिया में दाखिल हो सकते हैं इसलिए हम आपको यहां से अंदर नहीं आने देंगे।
इसपर फैज़ साहब ने कहा कि आप अपने मुख्यमंत्री ज्योति बसु को फोन मिला दें, इमीग्रेशन वालों ने ज्योति बसु को फोन मिला दिया। ज्योति बसु ने कहा कि मैं तुरंत आपको लेने खुद एयरपोर्ट पर आ रहा हूँ।
ज्योति बसु साहब एयरपोर्ट पहुँच गए और वहां मौजूद इमीग्रेशन वालों से कहा “फ़ैज़ साहब किसी एक मुल्क के शायर नहीं हैं इनके लिए हिन्दुस्तान के सभी एयरपोर्ट के दरवाज़े खुले हैं” और फिर ये तो उनके विचारधारा वाले स्टेट का एयरपोर्ट है यहाँ आने से उन्हें वैसे भी कोई रोक नहीं सकता।
ये सुलूक हुआ फ़ैज़ साहब का भारत में और इनके अपने वतन पाकिस्तान में जिसकी लैलाओं की ख़ैर फ़ैज़ साहब सारी ज़िंदगी माँगते रहे।
ख़ैर हो तेरी लैलाओं की
उन सब से कह दो
आज की शाम जब दिए जलाएँ
ऊँची रख ले लौ।
आज के नाम और आज के ग़म के नाम….
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देश है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देश है….
फैज़ ने ग़म-ए-दुनिया और ग़म-ए-जानाँ को एक में मिला दिया और इस साझी ग़म को सियासी फ़िक्र में ढाल दिया। फैज़ की एक नज़्म जिसमें उम्मीद है आस है और इस नज़्म को हमेशा आज़ादी की जद्दोजहद की रोशनी में, सुर्ख़ इंक़लाब के आमद की रोशनी देखते हैं और इस नज़्म में इश्क़ भी है, आज़ादी की जद्दोजहद भी है जज़्बा भी है, सियासी फ़िक्र भी है, वो कहते हैं कि
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने को मजबूर हैं हम
अपने अजदाद की मीरास हैं माज़ूर हैं हम
अपनी हिम्मत है कि फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी भी किसी मुफ़लिस की क़बा हो जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे रहते हैं…
फैज़ के यहाँ इंक़लाब भी महबूबा की सूरत में दिखाई देता है। किसी मूवमेंट को महबूबा की तरह ख़िताब करने का हुनर सिर्फ़ फैज़ साहब के यहाँ ही मिलता है।
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
मक़ाम फ़ैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले…
फैज़ हमेशा इंक़लाब की आमद देखना चाहते थे, वे लुटेरों फ़ासिस्टों के हाथ से छीन कर खल्क़-ए-खुदा के हाथों हुक्मरानी देखने की उम्मीद में रहते थे।
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिखा है
हम देखेंगे! लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
जब राज करेगी खल्क़-ए खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो हम देखेंगे!
ये भी हमें दुःख के साथ कहना पड़ता है कि फैज़ साहब भी सियासत के हाथों बनाए हुये सरहदों के शिकार हुये, बँटवारे के बाद वो जहाँ थे वो हिस्सा पाकिस्तान कहलाया। हालाँकि हिंदुस्तान ने उन्हें कभी नहीं छोड़ा, वो कल भी हमारा हिस्सा थे और आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। बँटवारे के दुःख दर्द और इंसानियत पर हमले पर उन्होंने जो नज़्म लिखी थी वो आज भी सबके दिलों पर रक़म है,
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब गजीदा सहर
कि इंतज़ार था जिसका वो ये सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेके
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त के तारों की आख़िरी मंज़िल
निजात दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई।
नवम्बर 1984 में फैज़ साहब का इंतक़ाल हो गया और उनकी रहलत के साथ ही रिवायात, ग़म-ए-जानाँ, ग़म-ए-दौराँ और रोमान का एक मुन्फ़रिद और दिलकश अहद तमाम हो गया। या यूँ कहें कि जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चला गया। मगर फैज़ साहब की शख़्सियत और उनका कलाम हमेशा के लिए अमर हो गया।
“थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उठे ये इरादा तो नहीं था…”
इनके इंतक़ाल के बाद हुकूमत-ए-पाकिस्तान ने उर्दू ज़ुबान की ख़िदमात पर फैज़ साहब को हिलाल-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा, जिसे एलिस फैज़ ने क़ुबूल किया।