प्रोफ़ेसर जाबिर हुसैन
शेखपुरा के ‘स्वयंवर’ पहाड़ की तराई में अवस्थित दो जुड़वां बस्तियों में से एक, हुसैनाबाद, में आज से डेढ़ सौ साल पूर्व, उर्दू-फ़ारसी के बाकमाल शायर और प्रखर गद्यकार बहार हुसैनाबादी (1864-1929) का जन्म हुआ। पूरा ख़ानदान अदब और तहज़ीब की ज़िंदा मिसाल के तौर पर, पूरे मुल्क, बल्कि इस से बाहर भी, इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता था। अदब की तारीख़ें और शायर-अदीबों के तज़किरे इस ख़ानदान की दास्तानों से भरे-पड़े हैं। ख़ान बहादुर, नवाब बहादुर जैसे ख़िताबों से अपनी शोभा बढ़ाने वाली कई-कई शख्सियतें इन जुड़वां बस्तियों में एक-साथ मौजूद रहीं। औरंगज़ेब, हुमायुं, शेरशाह और मीर क़ासिम जैसे तारीख़ के कुछ मशहूर चेहरे भी इस ख़ानदान की बहादुरी और वफ़ादारी के क़िस्सों से बाख़बर थे।
लेकिन इन किस्सों से बिल्कुल अलग, इस ख़ानदान की तारीख़ का एक रौशन अध्याय लगभग आठ सौ वर्षों की महान सूफ़ी परंपरा से भी जुड़ा रहा है। इस सूफ़ी परंपरा की कुछ निशानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।
इनमें एक हैं, मख़दूम शाह शम्सुद्दीन ‘फ़रियादरस‘, जिनका जन्म 1270 ई. में रूम में हुआ और जो अपने वालिद के इंतेक़ाल के बाद मिस्र, सीरिया, इराक़, इरान होते हुए 1278 ई. में हिन्दुस्तान आकर फ़ैज़ाबाद में बस गए। उस समय हिन्दुस्तान के बादशाह ग़यासुद्दीन बलबन हुआ करते थे।
शम्सुद्दीन ‘फरियादरस‘ ने अयोध्या शहर में एक ख़ानक़ाह स्थापित कर इलाक़े-भर में इल्म की रौशनी बिखेरी। सन 1388 में, 118 साल की उम्र में, उनकी मौत हुई। उनका मज़ार अयोध्या के उस समय के एक मशहूर तालाब के किनारे एक बुलंद टीले पर बना, जो आज भी मौजूद है।
इस परंपरा की दूसरी निशानी शाह मंजन शहीद थे, जो शेरशाह के ज़माने में अवध से बिहार आए। जैसा कि उनके नाम से ज़ाहिर है, बिहार आने के रास्ते में कुछ अज्ञात लुटेरों के साथ हुई जंग में उनकी शहादत हुई। परिवार में पत्नी बीबी बतूल उर्फ ‘फूल‘ और दो कमसिन बच्चे, शेख मुस्तफ़ा और शेख़ जुनैद थे। बेवा मां अपने बच्चों के साथ शेखपुरा आ गईं। बाद में, शेख जुनैद की शादी बीबी रुकन से हुई, जो मख़दूम शाह शुएब के बेटे शाह बहाउद़दीन की बेटी थीं। इल्म की दुनिया शाह मंजन शहीद को रूहानी तालीमात का ख़ज़ाना मानती है।
सूफ़ी परंपरा की एक और बेहद रौशन कड़ी शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर थे, जो दरअसल शाह मंजन शहीद की नस्ल से थे। वो मख़दूम शाह शुएब के नवासे भी हुए। एक विद्वान लेखक के तौर पर सारी दुनिया उनका लोहा मानती है। बिहार के सूफ़ियों के हालात पर उनकी किताब ‘इल्मुल हक़ीक़त’ को एक सनद का दर्जा हासिल है। उनकी किताबें दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। सन् 1727 में शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर का इंतेक़ाल हुआ। उन्हें तब के अज़ीमाबाद शहर में मुहल्ला बाग़ पातो में दफ़न किया गया।
इसी सिलसिले के एक रौशन चिराग़ थे, शाह मुहम्मद हाशिम बहार हुसैनाबादी, जिनका जन्म 1864 ई. में हुसैनाबाद बस्ती में हुआ। 13 अक्तूबर, 2014 को उनके जन्म के 150 वर्ष पूरे हो गए।
‘स्वयंवर’ पहाड़ की तराई में, उनकी मौत के लगभग 85 वर्ष बाद, उनका मज़ार अतीत की गुमनामी से उभरा है, और उनकी याद में एक ‘आस्ताने’ का निर्माण हुआ है। इतना ही नहीं, उनकी साहित्यिक कृतियों के सुरुचिपूर्ण संकलन और संपादन का काम भी पूरा कर लिया गया है। छह जिल्दों में उनकी रचनाएं उर्दू मरकज़ अज़ीमाबाद के सौजन्य से प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका उर्दू-फारसी दीवान प्रकाशनाधीन है।
यहां सिर्फ एक पुस्तक ‘सकरात’ का उल्लेख करना है, जो बहार हुसैनाबादी की अपनी लिखी जीवनी है। लगभग 750 पृष्ठों की मूल पांडुलिपि मुद्रित होकर तस्वीरों सहित 450 पृष्ठों में प्रकाशित हो गई है। कहने को यह उनकी जीवनी है, परंतु इसमें पूरे तौर पर 19 वीं सदी से लेकर 20 वीं सदी के शुरूआती दो दशकों का समाज अपनी ताक़त और कमज़ोरियों के साथ उभरता दिखाई देता है। जमीनदारों की जीवन-शैली, उनके पतनशील व्यवहार, उनके द्वन्द्व, उनकी आपसी रंजिशें, तालीम के प्रति उनकी बेहिसी, गोया ज़िंदगी के सारे पहलू, जो बहार साहब की नज़रों से गुज़रे, इस किताब में उनका क़िस्सा लिखा है।
इन्हीं बहार साहब की याद में शेखपुरा में मेरे प्रतिनिधि-कोष से एक पुस्तकालय का निर्माण हुआ था। तत्कालीन जिलाधिकारी श्रीमती सफ़ीना ने समाहरणालय के करीब ख़ाली ज़मीन पुस्तकालय को उपलब्ध कराई थी।
भवन बनकर तैयार हो गया, तो एक दिन स्थानीय नागरिक यह देखकर स्तब्ध रह गए कि उसमें अर्द्धसैनिक बल की एक टुकड़ी ने डेरा जमा लिया है। भवन की बाहरी दीवार पर अर्द्धसैनिक बल के किसी बड़े अधिकारी का नाम टंग गया। पुस्तकालय किसके प्रतिनिधि-कोष से बना, किस योजना के तहत बना, सब कुछ ख़ाक में मिल गया।
यह घटना एक पुस्तकालय की आकस्मिक मौत का ऐलान थी। मेरी आंखें अक्सर इसकी याद में नम हो जाती हैं! (24 फ़रवरी 2016)
प्रोफ़ेसर जाबिर हुसैन : लेखक पुर्व सांसद हैं, और बिहार विधान परिषद के सभापति भी रह चुके हैं जो हिंदी, उर्दू तथा अंग्रेज़ी जैसी भाषाओं में समान अधिकार के साथ लेखन करते रहे हैं। इन्हे साल 2005 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।