स्मृतियों के श्वेत-श्याम पटल पर जीवन का कोलाज रचती फ़िल्म : ‘रोमा’

Shubhneet Kaushik

फ़िल्म ‘रोमा’ सत्तर के दशक के मेक्सिकन समाज की कहानी है। यह मेक्सिको, ‘रोमा’ के निर्देशक अल्फोंसो कुआरोन के बचपन का मेक्सिको है, इतिहास के पन्नों के साथ-साथ नॉस्टेल्जिया में रचा-बसा मेक्सिको। रोमा के केंद्र में है मेक्सिको का वह इलाक़ा, जहाँ अल्फोंसो कुआरोन का बचपन बीता यानी कॉलोनिया रोमा। रंगों की बहुतायत के इस समय में अल्फोंसो कुआरोन हमें एकबारगी श्वेत-श्याम की विशिष्टता, उसकी अपनी महत्ता का अहसास दिलाते हैं। यह महज संयोग नहीं कि पोलैंड के चर्चित निर्देशक पावेल पावेलोवस्की द्वारा 2018 में ही बनाई गई फ़िल्म ‘कोल्ड वार’ भी शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि में श्वेत-श्याम रंगों में ही रोमांस की कथा बुनती है।

अल्फोंसो कुआरोन की यह फ़िल्म एक परिवार की कहानी कहते हुए उस छोटे कथानक को सत्तर के दशक के मेक्सिको के विराट ऐतिहासिक आख्यान से सन्नद्ध कर देती है। मूलतः यह फ़िल्म दो महिलाओं के जीवन की त्रासद कहानी है, एक है परिवार की मालकिन सोफिया और दूसरी परिवार की नौकरानी क्लियो। दोनों ही प्रेम में छले जाने को अभिशप्त हैं, सोफिया अपने पति द्वारा और क्लियो अपने प्रेमी द्वारा। यह फ़िल्म उनके जीवन में अप्रत्याशित ढंग से घुसपैठ करते इसी त्रासद तनाव की कहानी है, जो अंततः उनके जीवन में उथल-पुथल मचा देता है।

अल्फोंसो कुआरोन ‘रोमा’ के हर दृश्य में एक चित्रकार की सधी हुई कूची की मानिंद रुपहले परदे पर एक प्रभावशाली कलाकृति रचते हैं। ऐसी छवि जो पलक झपकते परदे से ओझल होकर भी दर्शकों के मन में गहरे पैठ जाती है। छोटे-छोटे विवरणों को भी वे इस शिद्दत से अपने कैमरे में कैद करते हैं, कि घर की छोटी-सी लॉबी में गाड़ी का पार्क होना, घर के पालतू कुत्ते ‘बोरस’ का अनवरत भूँकना, क्लियो की भावुक बोलती-सी आँखें, फर्श पर बिखरा हुआ पानी सभी महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं।

सोफिया और क्लियो के अंतरंग जीवन में मची हुई उथल-पुथल को अल्फोंसो कुआरोन बड़ी सहजता से सत्तर के दशक में मेक्सिको में व्याप्त तनाव, राजनीतिक अस्थिरता के वृत्तान्त से जोड़ देते हैं। एक ऐसा वृत्तान्त क्लियो का हृदयविदारक गर्भपात और कॉर्पस क्रिस्टी नरसंहार (जून 1971) एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं। गोलीबारी में छात्रों की मौत और अस्पताल में प्रसव के दौरान क्लियो की मरी हुई बेटी मानो संभावनाओं, आशाओं और उम्मीदों के त्रासद अंत का रूपक बनकर उभरती है।

यह फ़िल्म एक स्तर पर जहाँ मेक्सिकन समाज में गहरे व्याप्त नस्ल और वर्ग भेद की कहानी है, वहीं दूसरी ओर यह नस्ल और वर्ग से ऊपर उठकर दो महिलाओं द्वारा एक-दूसरे की पीड़ा का साझीदार बनने, सहानुभूति के मर्म को समझने की भी कहानी है। ‘रोमा’ सब कुछ घटित होने और कष्टदायी क्षणों के बीत जाने के बाद भी जो शेष रह गया है, उसे सहेज लेने, सँजो लेने के अदम्य जीवट की कहानी भी है। यह फ़िल्म जितना क्लियो का किरदार निभाने वाली यलित्ज़ा एपेरेसियो के शानदार अभिनय के लिए याद रखी जाएगी, उतना ही सोफिया यानी मरीना दे तवेरा के संजीदा अभिनय के लिए भी।

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