हाल के दिनो में पटना में एक एलिवेटेड रोड के लिए ऐतिहासिक ख़ुदा बख़्श लाइब्रेरी के कर्ज़न रीडिंग रूम को तोड़ने के प्रस्ताव का जमकर विरोध हुआ, मामला फ़िलहाल ठंडे बस्ते है। लेकिन मै आपको कर्ज़न रीडिंग रूम के इतिहास से रूबरू कराना चाहता हूँ।
29 अक्तूबर 1891 में जब इस लाइब्रेरी को खोला गया तब इसकी कोई बहुत बड़ी इमारत नही थी। लेकिन इस लाइब्रेरी के पास जो किताबों का जो संग्रह था, उसकी ख्याति दूर दूर तक थी, और उसी चीज़ ने इसके स्थापना के 12 साल बाद, यानी जनवरी 1903 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न को पटना में गंगा किनारे स्थित इस लाइब्रेरी का दौरा करने पर मजबूर कर दिया।
लॉर्ड कर्ज़न जब यहाँ पहुँचे तो यहाँ संग्रहित पांडुलिपियों को देखकर काफ़ी प्रभावित हुए, लेकिन उन्हें इसके आग से बर्बाद होने का ख़दशा हुआ, इसलिए उन्होंने इसके विकास में रुचि लेते हुवे धन उपलब्ध कराया। जिसके बारे में ख़ुदाबख़्श ख़ान के बेटे सलाहउद्दीन ख़ुदाबख़्श ने 1912 में “My Father : His life and reminiscences” में लिखा की जनवरी 1903 में अपने दौरे के दौरान तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने स्वयं डोनर के साथ उन साधनों पर चर्चा की जिनके द्वारा संग्रहित पांडुलिपियों को आग या किसी अन्य ख़तरों से बचाया जा सके और साथ ही इन पांडुलिपियों को पाठक और छात्रों के लिए और भी अधिक सुलभ बनाया जा सके। चुंके उन्हें आशा थी के इन दोनों दिशाओं में कदम उठाए जाएँगे, इसलिए लाइब्रेरी से जुड़े लोगों ने इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
पटना के तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट J.G. Cumming ने ज़मीन अलॉट करवाया, चूँकि वो ख़ुद एक स्कॉलर थे; और लाइब्रेरी में उनका आना जाना लगा रहता था, इसलिए उसके सौंदर्यीकरण में निजी इंट्रेस्ट लिया। वो एक रीडिंग हॉल के साथ एक सुंदर गार्डेन भी चाहते थे; पर इसी बीच उनका पटना से तबादला हो गया। कलकत्ता मदरसा के डॉक्टर डेनिसॉन रॉस की देख रेख में रीडिंग हॉल का निर्माण शुरू हुआ, उन्होंने कैटलॉगिंग पूरी ज़िम्मेदारी ली। सलाहउद्दीन ख़ुदा बख़्श के अनुसार उनके पिता ख़ुदाबख़्श ख़ान चाहते थे कि इस रीडिंग हॉल का नाम उनके मित्र पटना के ज़िला मजिस्ट्रेट J.G. Cumming के नाम पर हो और लाइब्रेरी कमेटी भी वही करेगी जो उनके पिता चाहते हैं।
लेकिन आज इस रीडिंग हॉल का नाम कर्ज़न रीडिंग हॉल है, इस बारे में उन्होंने कोई ज़िक्र नही किया के आख़िर ये क्यूँ हुआ? उनके पिता की ख़्वाहिश को क्यूँ पूरा नही किया गया। इस सिलसिले में जब हम इतिहासकार साक़िब सलीम से बात करते हैं तो वो कहते हैं, की इसकी असल वजह नौकरशाही नेज़ाम है, ख़ुदाबख़्श निजी तौर पर अपने ज़िला मजिस्ट्रेट मित्र के नाम पर हॉल का नाम रखना चाहते होंगे, पर क्या ज़िला मजिस्ट्रेट अपने नाम पर किसी बिल्डिंग का नाम रखवा कर अपने से उपर वाले अफ़सर को नाराज़ करना चाहेगा? नही चाहेगा। इसलिए लॉर्ड कर्ज़न के नाम पर रीडिंग हॉल का नाम रखना सबका एक मत हो सकता है, वैसे भी ये सुझाव ख़ुद वायसराय लॉर्ड कर्ज़न का ही था।
बिहार में दर्जनों आधुनिक शिक्षण संस्थान खोलने वाले सैयद विलायत अली ख़ान
यदूनाथ सरकार ने सितम्बर 1908 के ख़ुदाबख़्श ख़ान को श्रद्धांजलि देते हुवे मॉडर्न रिव्यू में लिखा की 1876 में अपनी मृत्यु से पहले मुहम्मद बख़्श ने अपने बेटे ख़ुदा बख़्श को अपनी वसीयत सौंपी और उनसे ये वायदा लिया कि वे भविष्य में एक आम लोगों के लिए एक लाइब्रेरी खोलेंगे। अपने पिता के वसीयत को हक़ीक़त में बदलने के लिए ख़ुदा बख़्श ने एड़ी चोटी एक कर दी और एक आम वकील के लिए उस समय 80,000 रुपय की लागत से एक इमारत बनाना, जुनून की हद तक पहुँचने से कम नही था। दोमंज़िला इमारत बनी जिसमें कई कमरे थे, एक बड़ा बरामदा था; जो सभी कमरे से जुड़ता था, साथ इसमें सीढ़ी दो जानिब से थी। लाइब्रेरी की इमारत काफ़ी सुंदर थी, जिसके फ़र्श पर मोज़ैक़ और संग ए मरमर लगा हुआ था।
और 29 अक्तूबर 1891 में आम लोगों के लिए इस शर्त के साथ खोल दिया गया के यहाँ की कोई भी पांडुलिपियाँ पटना से बाहर नही जायेंगी। ज्ञात रहे के जिस समय इस लाइब्रेरी को खोला गया था तब वो अपनी तरह की ऐसी पहली लाइब्रेरी थी जिसमें आम लोग जा सकते थे। उस समय इसे ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी के नाम से जाना गया। पर अवाम ने इसे पसंद नही किया और ये ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी के नाम से मशहूर हुई।
चूँकि ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी के संस्थापक ख़ुदाबख़्श ख़ान ने एक रूल बना रखा था के कोई भी पांडुलिपियाँ लाइब्रेरी से बाहर नही जाएगी। लेकिन 60 के दशक में भारत सरकार ने मुग़ल बादशाह अकबर पर एक डॉक्युमेंट्री बनाने के ग़र्ज़ से एक बहुत ही नायाब पांडुलिपि ‘तारीख़ ए ख़ानदान तैमुरिया’ को लाइब्रेरी इंतेज़मीया से माँगा। उस समय लाइब्रेरी के डाइरेक्टर डॉक्टर इक़बाल हुस्सैन थे; जिन्होंने प्रोटोकॉल का हवाला दे कर भेजने से इंकार कर दिया था। शुरू में बिहार के गवर्नर इस फ़ैसले के साथ थे। पर बाद में गवर्नर ने दबाव में आ कर एक तरकीब निकाला के ‘तारीख़ ए ख़ानदान तैमुरिया’ को लेकर लाइब्रेरी के दो स्टाफ़ शफ़ी अहमद और अथहर शेर अपनी निगरानी में दस दिन के लिए दिल्ली ले जाएँ, और काम मुकम्मल होने पर वापस पटना ले आएँ। इस बारे में डॉक्टर इक़बाल हुस्सैन ने अपनी किताब ‘दास्तान मेरी’ में लिखा के इन पांडुलिपियाँ को दिल्ली भेजा जाना बिल्कुल ही ग़लत और लाइब्रेरी के संस्थापक के उसूल के ख़िलाफ़ था।
ख़ुदा बख़्श ओरियंटल लाइब्रेरी, पटना के संस्थापक मौलवी ख़ुदा बख़्श
ख़ुदा बख़्श लाइब्रेरी के पूर्व डाइरेक्टर डॉक्टर इक़बाल हुस्सैन ने अपनी किताब ‘दास्तान मेरी’ में अपने छात्र जीवन का ज़िक्र करते हुवे लिखते हैं की जनवरी 1934 में एक बहुत ख़तरनाक ज़लज़ला बिहार में आया, जिससे काफ़ी जान माल का नुक़सान हुआ, ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी की ऊपरी इमारत को भी नुक़सान पहुँचा, चूँकि ऊपरी हिस्सों में किताब को नही रखा जाता था, इसलिए किताब को कोई नुक़सान नही पहुँचा। बिहार सरकार ने इमारत का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह से ढाह देने का हुक्म दिया। इस दौरान नीचे की मंज़िल में रखी गई तमाम किताबों को अलमीरा सहीत बग़ल की बिहार यंग मेन इन्स्टिचूट की इमारत में रखा गया। कुछ दिन बाद हुकूमत ने लाइब्रेरी के लिए नई इमारत बनाने का हुक्म जारी किया। इसकी ज़िम्मेदारी पटना डिविज़न के इग्ज़ेक्युटिव एंजिनीयर करीम साहब को दी गई। लाइब्रेरी के लिए इस्लामिक आर्किटेक्चर पर बेस्ड एक अच्छा नक़्शा बना कर बुनियाद रखी गई। लाल और भूरे रंग के पत्थर मंगाएँ गए, और उसे तराशने के लिए राजिस्थान से कारीगर आए। एक साल में इमारत बन कर तय्यार हो गई तो बिहार के गवर्नर ख़ुद मुआयना करने आए। किताबों के रखने के लिए लाइब्रेरी में अलमारी कलकत्ता से मंगाई गईं। लाइब्रेरी की लाल रंग की इमारत काफ़ी खूबसूरत लग रही थी। और इस तरह से नई इमारत में लाइब्रेरी शिफ़्ट हुई। अभी कुछ साल गुज़रे ही थे कि दूसरी जंग ए अज़ीम की शुरुआत हो गई। पटना पर हवाई हमले का ख़तरा था, लाल रंग को दूर से देखा जा सकता था, इसलिए जल्दी से उसके उपर भूरे रंग से पोताई की गई। वलीउद्दीन ख़ुदाबख़्श जो उस समय लाइब्रेरी के सेक्रेटेरी थे; ने आनन फ़ानन में जितनी भी नायाब किताबें थीं; उन्हें पटना से दूर अलग अलग जगह शिफ़्ट किया; जहां हवाई हमले का ख़तरा कम हो। जंग ख़त्म होने के बाद सारी किताबों को वापस पटना ला कर लाइब्रेरी में शिफ़्ट किया गया। ये वो दौर था जब लाइब्रेरी की हिफ़ाज़त लोग अपनी जान से अधिक किया करते थे।
कुल मिला कर आज ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी के पास इमारत रूपी धरोहर के रूप में सिर्फ़ कर्ज़न हॉल ही बच गया है, जिसे ख़ान बहादुर जस्टिस ख़ुदाबख़्श ख़ान के जीवन काल में बनाया गया था। आज ख़ान बहादुर ख़ुदाबख़्श ख़ान की क़ब्र भी इसी कर्ज़न रीडिंग हॉल से सटी हुई है, जहां सैंकड़ों की संख्या में बच्चे पढ़ने आते हैं।
ख़ुदाबख़्श ख़ान का जन्म 2 अगस्त 1842 को छपरा में और निधन 3 अगस्त 1908 को पटना में हुआ था। उन्हें लाइब्रेरी के सहन में दफ़न किया गया।