1934 से 1937 तक बिहार के शिक्षा मंत्री रहे सैयद अब्दुल अज़ीज़ पटना में अलग अलग तरह के सामाजिक कार्य करने के लिए बड़ेमशहूर थे। जहां उन्होंने पटना में ज़माने तक मुफ़्त आँख के इलाज का कैम्प लगवाया। वहीं उन्होंने कई बार अच्छे क़िस्म के आम यानीमैंगो की नुमाइश यानी एक्ज़ीबिशन भी पटना में लगवाया।
ऐसे ही एक क़िस्से के बारे में पटना कॉलेज के प्रिंसिपल और ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी के डायरेक्टर रहे प्रोफ़ेसर इक़बाल हुसैन लिखते हैं किएक बार पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में बिहार के अलग अलग इलाक़ों एक अच्छे क़िस्म के आमों की नुमाइश लगवाई। जिसेलोगों ने बहुत पसंद किया। भारतीयों के साथ पटना में रह रहे विदेशी लोग भी इस आम की नुमाइश को देखने आए। और अच्छे अच्छेक़िस्म के आम अपने साथ ख़रीद कर घर ले गये।
नुमाइश के इख़्तेताम यानी ख़त्म होने पर दो ख़ूबसूरत बक्सों में सूबा बिहार के बारह (12) क़िस्म के आमों को रख कर एक बक्साबाशिंदगान बिहार यानी बिहार वासियों की तरफ़ से वायसराय Earl of Willingdon को भेजा गया। इस तोहफ़े को वाइसराय नेनिहायत ही शुक्रिया के साथ क़बूल किया।
वहीं दूसरा बक्सा निहायत की आब ओ ताब के साथ सजा कर शहंशाह जॉर्ज पंचम को बतौर ए तोहफ़ा भारतीय हुकूमत की मदद सेलंदन भेजा गया। लेकिन जैसे ही ये तोहफ़ा लंदन पहुँचा, शहंशाह के दफ़्तर ने प्रोटोकॉल का हवाला देकर इसे फ़ौरन वापस हिंदुस्तानभेज दिया। प्रोटोकॉल के मुताबिक़ शहंशाह किसी वज़ीर यानी मंत्री का भेजा हुआ तोहफ़ा क़बूल नहीं कर सकते थे।
जब बक्सा वापस हिंदुस्तान आया तो ये ख़बर बिहार के अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनीं, और लोगों ने इस पर अपनी नाराज़गी का इज़हारकिया, के ये तोहफ़ा बाशिंदगान ए बिहार की जानिब से था, जिसके बीच में प्रोटोकॉल नहीं आना चाहिए था। प्रोफ़ेसर इक़बाल हुसैन नेआगे लिखा के वो ख़ुद इस नुमाइश में सब्ज़ीबाग़ के मुख़्तार ख़लील अहमद के साथ शामिल थे, जिनके ख़ुद के आम के बहुत से बाग़ातथे।