हिंदी के अप्रतिम आलोचक और साहित्यकार नामवर सिंह (1927-2019) का कल देर रात निधन हो गया। ‘वाद-विवाद-संवाद’ के पुरोधा और वाचिक परंपरा के आचार्य नामवर सिंह का निधन हिंदी आलोचना के एक युग का अवसान है। बहुतों की तरह उनकी कृतियों से मेरा भी परिचय उन्हें सुनने के बाद ही हुआ। बलिया में उन्हें पहली दफ़े सुना। तो बीएचयू और जेएनयू में उन्हें कई अवसरों पर सुना और हर बार कुछ नया सीखने को मिला।
‘छायावाद’, ‘कविता के नए प्रतिमान’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’ जैसी प्रभावशाली किताबें लिखने वाले नामवरजी के कुछ लेख भी बार-बार पढ़ता हूँ। और हर बार एक नई अंतर्दृष्टि मिलती है। मसलन, आलोचना की परंपरा पर लिखा गया उनका लेख ‘आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना’ हो या हिंदी के मूर्धन्य आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा पर लिखा उनका लेख ‘..केवल जलती मशाल’ हो।
#NamvarSingh (28 July 1926 – 19 February 2019) was an Indian literary critic, linguist, academician and theoretician.
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) February 21, 2019
He received his doctorate degree from #BanarasHinduUniversity.
He was the founder and first chairman of #JawaharlalNehruUniversity's Centre of Indian Languages. pic.twitter.com/VniI9wk5v3
या फिर सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और उपनिवेशीकरण की प्रवृत्तियों पर लिखा उनका लेख ‘सांस्कृतिक उपनिवेशवाद के खिलाफ़’ हो। अथवा भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बलिया वाले भाषण पर उनका लेख ‘भारतेन्दु और भारत की उन्नति’ और मैथिलीशरण गुप्त की जन्मशती के अवसर पर 1987 में बीएचयू में दिया उनका वक्तव्य ‘भारत-भारती और राष्ट्रीय नवजागरण’।
इसी तरह नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह की प्रतिनिधि कविताओं की उनकी लिखी भूमिकाएँ भी अद्भुत हैं। ‘शमशेर की शमशेरियत’ लिखते हुए तो सचमुच वह आलोचना में ही एक नए ढंग का ‘लिरिक’ रचते हैं। ‘एकालाप में संलाप और संलाप में एकालाप’ करती हुई आलोचना। जमाने से दो-दो हाथ करने वाले इस मूर्धन्य आलोचक को अंतिम प्रणाम!