ज़िया इम्तयाज़
1857 की चिलचिलाती गर्मी में मंदसौर की एक वीरान पड़ी मस्जिद में अंग्रेज़ विरोधी झण्डा उठाए एक 20 साल का कमसिन और ख़ूबसूरत नौजवान अंग्रेज़ों के खिलाफ़ जिहाद के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों को ललकार रहा था, इस नौजवान ने फ़कीर का बाना पहना हुआ था।
ग्वालियर मे अपनी जोशीली तक़रीरो के ज़रिए उसे सिंधिया की फ़ौज की एक टुकड़ी का साथ मिल गया था, जिसके साथ वो मंदसौर की उस मस्जिद मे जमा हुआ था।
उसकी ललकार सुनकर हर तरफ़ से वतन परस्त हिन्दुओं और मुसलमानों की कई टोलियां महावीर की झण्डी और मज़हबी हरा परचम लिए इस जिहाद मे शामिल होने खिंची चली आईं, और आनन फ़ानन मे मंदसौर के क़िले पर इन वतन परस्तो का कब्ज़ा हो गया, क्युंके इस मज़बूत फ़ौज के आगे गोरे टिक न पाए।
ये बहादुर फ़कीर अस्ल में मुग़लिया सल्तनत का एक चश्मो चिराग शहज़ादा फ़ीरोज़शाह था, जो मुग़ल शहज़ादे ज़फ़रुद्दीन का बेटा और बहादुर शाह प्रथम का वंशज था।
मंदसौर जीत के बाद शहज़ादे ने सीतामऊ, जावरा, रतलाम, परताबगढ़ और सालम्बुर के शासकों के पास परवाने भेजे कि वे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग में फ़िरोज़शाह का साथ दें।
उस वक़्त की एक अंग्रेज़ी रिपोर्ट के मुताबिक़ “31 अगस्त 1857 को शहज़ादे ने धार के क़िले का घेरा डाला। और यहाँ से उसे 3 तोप, 1200 सिपाही और डेढ़ लाख रुपये की नज़र मिली जो फ़िरोज़शाह ने धार के राजा से जबरन वसूल की”
झांसी, कालपी और फ़ारूख़ाबाद मे गोरों से लोहा लेते हुए शहज़ादा बरेली पहुंचा जो कि उस समय क्रांतिकारियों की राजधानी बना हुआ था।
बरेली मे 18 फ़रवरी 1858 को शहज़ादे ने एक घोषणा पत्र जारी किया जिसमें उसने कहा : “कोई फ़रेबी और ज़ालिम इंसान ख़ुदा के इस फ़जल हिन्दुस्तान को बहुत दिनों तक युं ही भोग नहीं सकेगा”
बरेली से फ़िरोज़शाह ने अंग्रेज़ों को छकाने के लिए एटा की तरफ़ बढ़ने की ख़बर फैलाई, और संभल के रास्ते मुरादाबाद की ओर टूट पड़े। इस के बाद शाहज़ादे की गोरों से टक्कर सिकंदराबाद, बिस्वा, हरचन्दपुर और काल्पी के पास हुई।
सीकर मे शाहज़ादे और अंग्रेज़ों की आख़री भिड़ंत हुई। 1857 की क्रांति की यही आख़री जंग थी, और इसमे हार के बाद जंग ए आज़ादी के तीनों मज़बूत सिपह सालारों यानी तांत्या टोपे, राव साहब और फ़िरोज़शाह ने एक दूसरे से इस आशा के साथ अंतिम विदा ली कि हालात बनते ही फिर मिलकर आज़ादी की जंग लड़ी जाएगी।
1859 के बाद शायद सिंध के रास्ते फ़िरोज़शाह हिन्दुस्तान से बाहर चले गए और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विदेशों से फ़ौजी और माली मदद पाने के लिए जगह जगह की ख़ाक छानते रहे, अंग्रेज़ जासूसों ने सुराग लगाए कि शहज़ादे को बुखारा, हेरात, चेज, मकरान और क़ुस्तुनतुनिया मे देखा गया।
एक जासूस ने दिल्ली ख़बर भेजी थी “फ़िरोज़ शाह एक दम टूटा हुआ इंसान, एक आंख से लगभग काना और लंगड़ा भी हो गया है।”
थक हार कर जून 1875 में फ़िरोज़शाह मक्का चले गए और अपनी बेगम को ख़त भेजकर भारत से बुलाया।
हिन्दुस्तान छोड़ते वक़्त शहज़ादे ने अपनी पत्नी को इसलिए तलाक़ दे दिया था ताकि उन के बाद अंग्रेज़ उनकी पत्नी को परेशान न करें, और अगर बेगम चाहें तो दूसरा विवाह रचा कर कम से कम भूखी तो न मरें।
ज़रा सोचिए किस दिल से उन दोनों ने इतना कठोर फ़ैसला लिया होगा ?
मक्का शरीफ पहुंच कर बेगम ने एक वर्ष तक अपने बीमार पति की सेवा की। उनके ये दिन बेहद ग़रीबी मे गुज़रे, मक्का के शेख़ शरीफ़ और तुर्की से मिलने वाली थोड़ी सी पेंशन मे गुज़ारा किया।
आज से एक सौ चालिस साल पहले हिन्दुस्तान के इस बहादुर सिपाही ने मक्का में आख़री सांस ली।
जद्दा के ब्रिटिश कान्सुलेट जनरल ने 7 सितम्बर 1878 के एक ख़त में अदन के ब्रिटिश पाॅलिटिकल एजेंट को लिखा : “फ़िरोज़शाह की मौत 17 दिसम्बर 1877 को मक्का मे हुई। उसे यहाँ हाजी फ़िरोज़ बिन सुल्तान मिर्ज़ा के नाम से जाना जाता था; पर वास्तव मे वह दिल्ली का एक भूतपूर्व शहज़ादा था और 1857 के ग़दर से सम्बंध रखता था।”
वोह अपने ख़त में आगे लिखता है : “वह मक्का में जमादि उल अव्वल 1292 यानी जून 1875 मे आया था और 12 ज़िलहिज्ज 1294 यानी 17 दिसम्बर 1877 की सुबह अपनी मौत तक यहीं रहा, उस वक्त उसकी पत्नी साथ मे थी, और इन दोनों की एक बेटी हिन्दुस्तान मे बताई जाती है।”
इस के साथ ही बेगम की पेंशन की अर्ज़ी भी ब्रिटिश सरकार के पास हिन्दुस्तान भेजी गई थी जिसका 4 दिसम्बर 1878 मे ये जवाब भेजा गया : “प्रार्थिनी को बता दिया जाए कि भारत सरकार उसकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं कर सकती क्योंकि उसका पति बिना आत्मसमर्पण किए मरा है”
बाद मे अंग्रेज़ सरकार ने बड़ा “उपकार” किया और पेंशन की अर्ज़ी मान ली, पर साथ ही ये प्रतिबंध भी लगा दिया कि बेगम कभी लौट कर दिल्ली नहीं आएंगी।
अंग्रेज़ इतिहासकारो ने फ़िरोज़शाह के ज़िक्र को दबाते हुए उसे अक्सर एक मुग़ल शहज़ादा भर लिखा है; किन्तु भारतीय इतिहासकारो ने तो अंग्रेजों से भी एक हाथ आगे बढ़ कर देश के इस महान सपूत का कहीं ज़िक्र ही नहीं किया। क्या यही सिला है वतन परस्ती का …???
[ ऐतिहासिक तथ्यों के लिए दिसम्बर 1977 मे ‘कादम्बिनी‘ मे प्रकाशित “श्री रामेश्वर उपाध्याय” के लेख से साभार ]