सलमान सिद्दीक़ी
उस्मानिया खिलाफत (आटोमन एम्पायर 1288-1924) का सूरज अपने उरूज पर है, इसके दसियों सुल्तान सुलेमान आज़म क़ानूनी (1495- 1566) की हुकूमत का दौर है। 1520-1560 न केवल उस्मानिया के सुल्तानों बल्कि दुनिया के इतिहास का एक निहायत मुख्य दौर गिना जाता है। इस समय ज़मीन पर उससे बड़ा कोई ताजदार (हुक्मरान) नहीं था। सोलहवीं सदी में तुर्को की अज़ीमुश्शान कामयाबियां उसकी ज़बरदस्त फौजी ताक़त और अज़मत की महरून है। उसने बिलग्रेड को 1521 में फ़तेह किया। रूड्स को 1522 में फ़तेह किया, हंगरी को 1526 में फ़तेह किया, वो बूडा दक्षिणी अफ़्रीका और दुसरे दुसरे शहरों का भी विजयी था। उसकी सल्तनत बूडा से बसरा तक और बहरे कास्पेन से बहरे रुम के पश्चिमी हिस्सों तक फैली हुई थी। इसकी सल्तनत में यूरोप, ऐशिया, अफ्रीका के बहुत से देश शामिल थे। उसका प्रभाव हिंदुस्तान में भी था और बहरे अहमर पर तो उसका अधिपत्य था। वो कहा करता था कि वो बहुत से देशों का फ़रमान रवा है। तीन बराज़मों का सुल्तान है और वो बहरों का मालिक है !
सुल्तान को पुरकशिश मस्जिद की तामीर कराने की फ़िक्र होती है और उसने अपने अयाने सल्तनत को इस्ताम्बुल की सबसे खुशनुमा जगह के चुनाव की ज़िम्मेदारी दी। हिदायत के मुतबिक सुल्तान के कारिन्दे मस्जिद की जगह के तलाश और चुनाव के लिए फ़ैल चुके हैं। और आख़िर में उन्होंने इस्ताम्बुल की एक जगह का चूनाव कर ही लिया।
वो जगह बहुत ही दिलफ़रेब और खुशनुमा है, मगर उसमे एक पेचीदगी है, जिसका हल न सुल्तान के पास है न हुकूमत के ज़िम्मेदारों के पास है। वो पेचीदगी ये है कि उस जगह के बीच में एक झोपड़ी है जिसका मालिक उसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं है और उसके निर्माण शुरू करने से पहले उस झोपड़ी का हटना ज़रूरी है।
सुल्तान के कारिन्दे जाकर यहूदी का दरवाज़े पर दस्तक देते हैं, यहूदी हाज़िर होता है और कहता है… खैर तो है… क्या मामला है ? जवाब दिया जाता है कि हम सुल्तान के कारिन्दे हैं। और सुल्तान के आदेश पर हम लोग एक मस्ज़िद की तामीर के लिये सही जगह की तलाश कर रहे थे। यहूदी ने जवाब दिया, मेरा इस विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है, मै तैयार नहीं हूँ, सुल्तान के कारिंदे कहते हैं कि इस जगह को मस्जिद की तामीर के लिये चुना गया है। इसके बीच में तुम्हारी झोपड़ी है और उसके होते हुए मस्जिद की तामीर नामुमकिन है। यहूदी सवाल करता है, क्या तुम लोग मेरी झोपड़ी गिरा दोगे ? कारिंदों ने जवाब दिया हम इसको खरीदेंगे, तुम इसकी कितनी क़ीमत लोगे ? यहूदी: बिलकुल नहीं….. बेचने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
सुल्तान के आदमी: हम तुमको इतना मुआवज़ा देंगे कि तुम इससे कहीं बेहतर घर खरीद सकते हो।
यहूदी: बिलकुल नहीं…. बिलकुल नहीं…. मुझको मेरी झोपड़ी प्यारी है। ये सही है कि वो एक छोटी झोपड़ी है, मगर वहाँ का मन्ज़र बहुत अच्छा है, वहाँ से खाड़ी के पानी को हम देख सकते हैं।
कारिंदे: हम तुमको दोगुनी कीमत देंगे। यहूदी: बिलकुल नहीं मेरा बेचने का कोई इरादा नहीं है वो मेरे काम करने की जगह से करीब है।
कोई बात इस यहूदी पर असर नहीं कर रही थी सब कारिन्दे सुल्तान के पास वापस आ गये और पूरी हालत बतायी और कहा: सुल्तान जिस इलाके को हमने मस्ज़िद के लिये चुना था वो हम लोगो को बहुत पसंद है लेकिन उसके बीच में एक यहूदी की झोपड़ी है, हम लोगो ने ख़रीदने की बहुत कोशिश की और बड़ी रक़म की भी पेशकश की, मगर वो राज़ी न हुआ, अगर आप हुक्म दें तो ज़ब्त कर ली जाये, और झोपड़ी गिरा दी जाये।
सुल्तान ने “न” में सर हिलाया और कहा: हरगिज़ नहीं, हमारा ये दस्तूर नहीं है और हमारा धर्म न किसी पर ज़ुल्म की इजाज़त देता है और न किसी को डराने – धमकाने की इजाज़त देता है, हमको इसका हल खोजना होगा और इस तरह मस्ज़िद की तामीर रुक गयी।
और आखिर में सुल्तान ने ये फैसला किया कि वो इस मामले में शेख़ुल इस्लाम से मशविरा करे। शेख़ुल इस्लाम ने जवाब दिया कि इस्लाम का हुक्म साफ़ है ! न बेचने की वजह से हम उसको कोई सज़ा नहीं दे सकते है ! वो झोपड़ी उसकी जागीर है और उसको जबरन नहीं लिया जा सकता है। इसके मरने के बाद इसके बेटे चाहे न बेचें क्योंकि कानून माल व दौलत को बेटे को मुन्तकिल (transfer) करने के हक को तस्लीम करता है। इसलिए आपके सामने एक ही रास्ता है कि यहूदी को राज़ी कर लें।
सुल्तान ने थोड़ी देर सोचा फिर अपने आदमियों से कहा मै ख़ुद उसके पास जाउँगा। सुल्तान ख़ुद यहूदी के पास गया और दरवाज़े पर दस्तक दी। यहूदी निकला वो देखता है कि उसके सामने सुल्तान हैं और हुकूमत के कुछ आदमी और वो चौंक गया। उसने सुल्तान को ये कहते हुए सुना कि वो उससे झोपड़ी बेचने की दरख़्वास्त करता है। इस बार वो इंकार न कर सका, क्योंकि सुल्तान ने उसकी क़ीमत उससे कहीं ज्यादा पेश की थी जितनी कि इससे पहले पेश की गयी थी। और इस तरह झोपड़ी ख़रीदी गयी और इस जगह “जामेया सुलेमानिया” तामीर की गयी। जो इस्लामी तामीर के फ़न की बेजोड़ मिसाल है।
इस प्रकार के वाक्ये इस्लामी इतिहास में बहुत अधिकता से मिलते हैं जो ये बताते हैं कि मुस्लिम सुल्तानों ने ताक़त और कुदरत के बावजूद ऊँचे से ऊँचे मकसदो के लिए भी छोटी सी छोटी नाइंसाफी को पसन्द नहीं किया और उनकी इसी न्यायप्रियता ने उन्हें इतिहास का एक हिस्सा बना दिया।