रानी अवंतिबाई : जो जीते जी अंग्रेज़ों के हांथ नहीं आई.

 

रानी अवंतिबाई रामगढ़ की रानी थी. रानी अवंतीबाई भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली वीरांगना थीं। 1857 की क्रांति में रामगढ़ की रानी अवंतीबाई मुक्ति आंदोलन की सूत्रधार थी। ये लोधी समाज की महावीरांगना थीं। 1857 के मुक्ति आंदोलन में इस राज्य की अहम भूमिका थी, जिससे इतिहास जगत अनभिज्ञ है। 1817 से 1851 तक रामगढ़ राज्य के शासक लक्ष्मण सिंह थे। उनके निधन के बाद राजकुमार विक्रमादित्य सिंह ने राजगद्दी संभाली। उनका विवाह बाल्यावस्था में ही मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह की कन्या अवंती बाई से हुआ। विक्रमादित्य सिंह बचपन से ही वीतरागी प्रवृत्ति के थे और पूजा-पाठ एवं धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते। अत: राज्य संचालन का काम उनकी पत्नी रानी अवंतीबाई ही करती रहीं। उनके पति विक्रमादित्य सिंह को अंग्रेजो ने पगला घोषित कर दिया था. रानी के पति के मृत्यु के बाद अंग्रेजो ने उनके पुत्र को नाबालिग होने के कारण गद्दी का उतराधिकारी नहीं माना और रियासत को “कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स ‘ घोषित करके वहाँ अपना प्रशासक नियुक्त कर दिया.

रानी ने उस प्रशासक को निकाल बाहर किया और अंग्रेजो के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. रानी अवंतिबाई ने छापामार युद्ध का सहारा लेकर, वाडिंगटन के सैन्य शिविर पर कई आक्रमण करके उसकी सेना को पराजित कर दिया. राज्य की सत्ता पर आधिपत्य ज़माने के बाद रानी ने राज्य की अंग्रेजों से सुरक्षा के लिए अपनी सैनिक शक्ति बढ़ानी शुरू कर उसे सुदृढ़ किया. इन्हीं दिनों अंग्रेजों ने मंडला राज्य पर अपना राजनैतिक प्रभुत्त्व जमा कर आधिपत्य स्थापित कर लिया था, उससे खिन्न होकर मंडला के राजकुमार ने पत्र लिखकर रानी से अंग्रेजों के खिलाफ सहायता मांगी साथ ही आजादी के लिए होने वाली संभावित जंग का नेतृत्व करने का आग्रह किया। मंडला के राजकुमार के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए रानी अवंतीबाई ने मंडला राज्य को अंग्रेजों के प्रभुत्व से मुक्त कराने का संकल्प लिया और अंग्रेजों के खिलाफ रामगढ और मंडला राज्यों की सेनाओं का नेतृत्व करते हुए स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी सुलगा दी जो चारों और फ़ैल गई.

मध्य भारत में 1857 की क्रांति की लहर शुरू होते ही रानी को भी इशारा मिल गया था और वह देश की आजादी के लिए युद्ध रूपी में यज्ञ में आहुति देने अपनी सेना सहित चल पड़ी. उस वक्त अंग्रेजों का देश में देशी रियासतों को बर्बरता पूर्वक अपने राज्य में मिलाने का कुचक्र चल रहा था, इसी कुचक्र को तोड़ने, उसका अंग्रेजों का बदला लेने के लिए रानी अवंतीबाई ने मंडला नगर की सीमा पर खेरी नामक गांव में अपना मोर्चा जमाया और अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारा. अंग्रेजों ने अपने एक सेनापति वार्टन को रानी से मुकाबले को सेना सहित भेजा। दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ, तोप, बंदूकें, तलवारें खूब चली. एक तरफ वार्टन के नेतृत्व में भाड़े के सैनिक अंग्रेजों के लिए लड़ रहे थे, दूसरी और अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए भारत माता के वीर सैनिक सपूत रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में मरने मारने को उतारू होकर युद्ध में अपने हाथ दिखा रहे थे.

आखिर रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में मातृभूमि के लिए बलिदान देने का संकल्प लिए लड़ने वाले शूरवीरों के शौर्य के आगे अंग्रेजों के वेतनभोगी सैनिक भाग खड़े हुए और कैप्टन वार्टन को अपने हथियार फैंक रानी के चरणों में गिर कर प्राणों की भीख मांगनी पड़ी. रानी अवंतीबाई ने भी भारतीय संस्कृति व क्षात्र धर्म का पालन करते हुये चरणों में गिर कर प्राणों की भीख मांग रहे राष्ट्र के दुश्मन कैप्टन वार्टन को दया दिखाते हुए माफ़ कर जीवन दान दे दिया। इस तरह रानी ने अपने राज्य के साथ मंडला पर अंग्रेज आधिपत्य ख़त्म कर अधिकार कर लिया और अपने पति की अस्वस्थता के चलते उनकी जगह लेकर अपने राज्य की स्वतंत्रता, संप्रभुता को कायम रखा और शक्तिशाली अंग्रेजों को युद्ध में हराकर अपनी बहादुरी, साहस, शौर्य, नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया। वाडिंग्टन ने फिर से रामगढ़ के लिए प्रस्थान किया। इसकी जानकारी रानी को मिल गई। रामगढ़ के कुछ सिपाही घुघरी के पहाड़ी क्षेत्र में पहुंचकर अंग्रेजी सेना की प्रतीक्षा करने लगे। लेफ्टिनेंट वर्टन के नेतृत्व में नागपुर की सेनाएं बिछिया विजय कर रामगढ़ की ओर बढ़ रही हैं, इसकी जानकारी वाडिंग्टन को थी, अत: वाडिंग्टन घुघरी की ओर बढ़ा।

15 जनवरी 1858 को घुघरी पर अंग्रेजों का नियंत्रण हो गया. मार्च, 1858 के दूसरे सप्ताह के आस-पास रामगढ़ घिर गया। विद्रोहियों एवं अंग्रेजी सेना में संघर्ष चलता रहा। विद्रोही सिपाहियों की संख्या में निरंतर कमी आती जा रही थी। किले की दीवारें भी रह-रहकर ध्वस्त होती गई। अत: रानी अंग्रेजी सेना का घेरा तोड़ जंगल में प्रवेश कर गई। रामगढ़ के शेष सिपाहियों ने एक सप्ताह तक अंग्रेजी सेना को रोके रखा। तब तक रानी बुढ़ार होती हुईं देवहारगढ़ पहुंच गई। अंग्रेजी सेनाओं ने रामगढ़ किले को ध्वस्त कर दिया और रामगढ़ पर अधिकार कर लिया। रानी अवंतिबाई ने अपने पुरे हौंसले के साथ शत्रु से लोहा लेती रही. 20 मार्च 1858 को जब रानी ने समझ लिया लिया कि वह शत्रु के हाथों पड़ने ही वाली है तो वह घोड़े से निचे उतर पड़ी और अपनी तलवार अपने पेट में घुसेड़ ली तथा मुर्छित होकर पड़ी रही. कुछ देर के लिए जब रानी को होश आया तो वाडिंगटन ने उन्हें सलाम करते हुए उनके सहायकों के नाम पूछे. रानी ने इतना ही कहा – “ इस युद्ध के लिए मै अकेले ही जिम्मेदार हूँ”. इसके बाद उन्होंने ‘हरिओम ‘ का नाद किया और अपनी आँखे हमेशा के लिए बंद कर ली. वाया : ‘क्रन्तिकारी कोष’

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