क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद को याद करते हुए

“खुली छत पर एक व्यक्ति चटाई पर उघारे बदन पालथी लगाए अकेले बैठा हम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था। सांवला रंग, गठा हुआ तगड़ा जिस्म, औसत लंबाई से कुछ नाटा कद; छोटी, तेज, चुभती हुई आँखें; चेहरे पर चेचक के दाग। ये काकोरी केस के फरार अभियुक्त चंद्रशेखर आज़ाद थे।” क्रांतिकारी शिव वर्मा आज़ाद से हुई अपनी पहली मुलाक़ात का ज़िक्र कुछ इन्हीं शब्दों में करते हैं। यह मुलाक़ात राधामोहन गोकुल के घर पर हुई थी। ये वही आज़ाद थे, जिनका नाम ब्रिटिश सरकार और खुफिया पुलिस के लिए एक सरदर्द था। क्योंकि आखिरकार आज़ाद अपनी इस बात पर अंत तक कायम रहे कि “कोई भी जीते-जी मेरे शरीर पर हाथ न लगा सकेगा।”  

पर आज़ाद सिर्फ रिवॉल्वर लेकर चलने वाले, कसरती बदन और तनी हुई मूँछों वाले एक क्रांतिकारी भर नहीं थे। ख़ुद शिव वर्मा के शब्दों में, आज़ाद एक कोमल, विनोदप्रिय, मिलनसार इंसान थे, किंतु मौका आने पर बेहद दृढ़ और अटल भी। पढ़ने-लिखने के मामले में आज़ाद की सीमाएं जरूर थीं, पर भगत सिंह, सुखदेव जैसे क्रांतिकारी साथियों से कुछ नया जानने-सीखने को वे हमेशा आतुर रहते।

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आज़ाद समाजवाद में गहरी दिलचस्पी रखते थे, इसलिए उससे जुड़े साहित्य को अपने साथियों से पढ़वाते और उनसे जिरह करते, सवाल पूछते। समाजवाद से जुड़ी धारणाओं ने मसलन, शोषण का अंत, समतामूलक और वर्गविहीन समाज ने आज़ाद को गहरे प्रभावित किया।
  
और अकारण नहीं कि शिव वर्मा ने लिखा है कि “आज़ाद पूजा की निर्जीव मूर्ति नहीं; वरन निर्दिष्ट मार्ग पर मजबूत कदमों से चलने वाला पथिक है। एक ऐसा सिपाही है, जो मौत को सामने खड़ा देखकर भी मुस्करा सकता है। उसे ललकार सकता है, और सबसे बड़ी बात तो यह कि वह ऐसा मनुष्य है जिसमें बड़ा होकर भी बड़प्पन का अहंकार छू तक नहीं गया है।”

शिव वर्मा से हुई उस बातचीत में आज़ाद ने उत्तर भारत में क्रांतिकारी आंदोलन को नए सिरे-से खड़ा करने के लिए पुराने सूत्रों और संपर्कों की तलाश करने, हथियार का इंतजाम करने, संगठन और बंगाल से संपर्क स्थापित करने पर ज़ोर दिया। कहने की जरूरत नहीं कि आज़ाद एक बेहतरीन संगठनकर्ता भी थे।

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किसानों, आदिवासियों और मजदूरों के जीवन से निकट संपर्क रखने वाले आज़ाद जब भी उनके बारे में कुछ बोलते, वह बात उनके अनुभवों से समृद्ध होती थी। कारण कि अलीराजपुर रियासत के भावरा गाँव में बिताए गए अपने बचपन के दिनों में आज़ाद आदिवासियों के सान्निध्य में रहे। महज पंद्रह वर्ष की आयु में वे घर छोड़कर बंबई गए। जहाँ उन्होंने कुछ दिनों तक जहाज रंगने वाले रंगसाजों के साथ काम किया। यहीं पहली बार आज़ाद का साबका मजदूरों के रोज़मर्रा की ज़िंदगी और उनकी तकलीफ़ों से हुआ।

बाद में, वे बनारस आए और शिवविनायक मिश्र की मदद से एक संस्कृत पाठशाला में प्रवेश लिया। असहयोग आंदोलन के दौरान धरने में भाग लेने पर बतौर सजा बेंत की मार खाने और अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने अपना नाम आज़ाद बताने वाले इस क्रांतिकारी के जीवन में ब्रिटिश सरकार को चुनौती देने के अभी कई और अवसर आने शेष थे।

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1922 में आज़ाद ने काशी विद्यापीठ में दाखिला लिया और यहीं उनकी मुलाक़ात मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी से हुई और वे क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ गए।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के बारे में, आज़ाद ने एक मर्तबा अपने क्रांतिकारी साथियों से कहा था “हमारा दल आदर्श क्रांतिकारियों का दल है, देशभक्तों का दल है, हत्यारों का नहीं।”

और जैसा कि शिव वर्मा भी लिखते हैं, “यह सही है कि हम लोग सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थे। लेकिन उस क्रांति का मुख्य उद्देश्य था – मानव मात्र के लिए सुख और शांति का वातावरण तैयार करना। मनुष्य मात्र के प्राणों से हमें गहरा मोह था। हम व्यवस्था के विरोधी थे, व्यक्तियों के नहीं। व्यक्तियों से हमारा टकराव उसी हद तक था, जिस हद तक वे असमानता पर आधारित उस समय की सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के प्रतिनिधि बनकर आते थे।”

आज़ाद को एचएसआरए के सभी सदस्यों की और उनके परिवारों की गहरी फिक्र भी हमेशा रहती थी। क्रांतिकारी भगवानदास माहौर और सदाशिवराव मलकापुरकर, जिन्हें वे ‘भगवान’ और ‘सद्दू’ कहते थे, उनके निकटतम सहयोगी थे। कम लोग जानते हैं कि यह महान क्रांतिकारी संगीतप्रेमी भी था। शिव वर्मा के अनुसार, आज़ाद अक्सर भगवानदास माहौर और विजय कुमार सिन्हा से गाना सुनाने का अनुरोध करते थे।
  
क्रांतिकारी आज़ाद के बारे में और जानने के लिए पढ़ें: क्रांतिकारी शिव वर्मा की किताब “संस्मृतियाँ” (एनबीटी), मलविंदर जीत सिंह वढैच की पुस्तक “चंद्रशेखर आज़ाद विवेकशील क्रांतिकारी” (राजकमल प्रकाशन); विश्वनाथ वैशम्पायन की किताब “अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद”।