जब बिहार मे 1857 की क्रांति की बात होती है तो सिर्फ़ ‘बाबू कुंवर सिंह’ का नाम लिया जाता है.. उन्हे याद किया जाता है… ये सच है बिहार मे क्रांति की नुमाईंदगी कुंवर सिंह ने किया पर क्रांति की शुरुआत उन्होने नही की.
बिहार मे सबसे पहले 12 जून 1857 को देवधर ज़िले के रोहिणी नामक जगह पर अमानत अली, सलामत अली और शेख़ हारुन बग़ावत कर अंग्रेज़ अफ़सर को मार देते हैं और इस जुर्म के लिए इन्हे 16 जून 1857 को आम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी जाती है. और इस तरह बिहार मे क्रांति की शुरुआत होती है…
23 जुन 1857 को तिरहुत के वारिस अली को गिरफ़्तार कर लिया गया जिसके बाद सारे इलाक़े में क्रांति की लहर फैल गई।
3 जुलाई 1857 को दो सौ से अधिक हथियारबंद क्रान्तिकारी मुल्क को गु़लामी की ज़ंजीर से आज़ाद करवाने के लिये पटना में निकल पड़े, लेकिन अंग्रेज़ों ने सिख सैनिको की मदद से उन्हें हरा दिया। पीर अली सहित कई क्रांतिकारी पकड़ गये, इन्हे हथियार मौलवी मेहंदी ने फ़राहम कर दिया था..
उधर 6 जुलाई 1857 को तिरहुत के वारिस अली को बग़ावत के जुर्म मे फाँसी पर लटका दिया गया।
इधर 7 जुलाई, 1857 को पीर अली के साथ घासिटा, खलीफ़ा, गुलाम अब्बास, नंदू लाल उर्फ सिपाही, जुम्मन, मदुवा, काजिल खान, रमजानी, पीर बख्श, वाहिद अली, गुलाम अली, महमूद अकबर और असरार अली को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था।
पटना मे ही 13 जुलाई 1857 को पैग़म्बर बख्श, घसीटा डोमेन और कल्लू ख़ान समेत तीन लोगों को बग़ावत के जुर्म मे फांसी पर लटका दिया जाता है..
इन्क़लाबियों की इतनी बड़ी क़ुर्बानीयों की ख़बर सुनकर दानापुर की फ़ौजी टुकड़ी ने 25 जुलाई को बग़ावत कर दिया और वे बाबू कुंवरसिंह की फ़ौज से जाकर मिल गए।
इन्ही सबके बीच बाबु वीर कुंवर सिंह अपने सबसे ख़ास सिपहसालार क़ाज़ी दौलतपुर (जहानाबाद) के शहीद काज़ी ज़ुल्फ़िक़ार अली ख़ां को कैथी लिपी मे ख़त भेजते हैं जिसे जसवंत सिंह ने लिख था को तशरीह (ट्रांसलेट – एलाब्रेट) करने के बाद मै इस नतीजे पर पहुंचता हुं..
अगस्त 1856
अज़ीज़ ज़ुल्फ़ीक़ार
वक़्त आ गया है। वो मेरठ क़ासिद रवाना हो, वहाँ ही इत्तला का इंतज़ार है। करवाई मोरतब कर लिया गया। तुम होश्यार हो। वो काम अंजाम हो। हम लोग की फ़ौज तैयार है। इधर से हम और उधर से तुम चलना। वहाँ अंग्रेज़ी फ़ौज थोड़ी है। आख़री इशारे का इंतज़ार करना।
मिनजानिब कुंवर सिंह
मुहर कुंवर सिंह
बा: जसवंत सिंह
ख़त अगस्त 1856 का है। जिससे ये समझ आ रहा है की मई 1857 में मेरठ में जो कुछ भी हुआ, उसकी तैयारी काफ़ी पहले से कर ली गई थी।
ख़त मिलते ही ज़ुल्फ़िक़ार अली ख़ां ने अपने कमांडर (कुंवर सिंह) के क़ौल पर लब्बैक कहा और मैदान ए जंग मे कूद पड़े.. इन्होने नगवां गाँव में एक रेजिमेंट का गठन किया.. जहानाबाद ज़िले के इस रेजिमेंट ने गाज़ीपुर. बलिया जैसी जगहों पर छापामार युद्ध (गोरिल्ला वार) कर के अंग्रेज़ों को ख़ूब छकाया. और आख़िर आज़मगढ़ में अंग्रेज़ी फ़ौज के साथ हुए आमने सामने के जंग में ज़ुल्फ़िक़ार अली ख़ां अपने कई बहादुर साथियों के साथ शहीद हुए…
कुंवर सिंह के क़यादत (नेतृत्त्व) में दानापुर के बाग़ी फ़ौज ने सबसे पहले आरा पर धावा बोल दिया। इन्क़लाबियों ने आरा के अंग्रेज़ी ख़ज़ाने पर क़ब्जा कर लिया। जेलख़ाने के कैदियों को रिहा कर दिया गया। अंग्रेज़ी दफ़्तरों को ढाहकर आरा के छोटे से क़िले को घेर लिया। क़िले के अन्दर सिख और अंग्रेज़ सिपाही थे। तीन दिन क़िले की घेरेबंदी के साथ दानापुर से क़िले की हिफ़ाज़त के लिए आ रहे कैप्टन डनवर और उनके 400 सिपाहियों से भी लोहा लिया मुक़ाबला किया। और इस जंग मे डनवर को मार गिराया। बाक़ी बचे सिपाही दानापुर वापस भाग गये। इस तरह 27 जुलाई 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और दीगर साथियों के साथ मिलकर बाबु कुंवर सिंह ने सिर्फ़ क़िला बल्के पुरे आरा शहर पर ही कब्ज़ा कर लिया।
जिसके बारे मे 25 सितम्बर 1858 को पटना का कमिश्नर E. A. Samuells कोलकाता मे मौजुद अपने बड़े अफ़सर को ख़त लिखता है.. “बाबु कुंवर सिंह ख़ुद को मुल्क का बादशाह समझते हैं, वोह अंग्रेज़ी को कमज़ोर करने के लिए उन्ही के तर्ज़ पर अपना प्रशासन खड़ा कर हिकमत अमली के तहत इसमे अपने लोगों को ओहदा देना शुरु कर रहे हैं”.. कमिश्नर Samuells आगे लिखते हैं :- “बाबु कुंवर सिंह के द्वारा आरा मे की जा रही सारी हरकत बता रही है के उन्होने मान लिया है के उनकी हुकुमत क़ायम हो चुकी है.. और वोह उसी तर्ज़ एक एैसी सरकार वजूद मे लाना चाहते हैं जिसे हरा कर, कुचल कर वोह इस मुक़ाम पर पहुंचे हैं..“
27 जुलाई 1857 को आरा शहर पर कब्ज़ा करने के बाद बाबू कुंवर सिंह ने शेख़ ग़ुलाम यह्या को इसका मेजिस्ट्रेट बनाया। दो थाना क़ायम बनाया, जिसका कोतवाल तुराब अली और ख़ादिम अली को बनाया। और मिल्की मोहल्ला आरा के शेख़ मुहम्मद अज़ीमुद्दीन को जमादार बनाया।
लेकिन यह कब्ज़ा लम्बे दिनों तक नही रह सका। मेजर आयर एक बड़ी फ़ौज लेकर 3 अगस्त 1857 को आरा पर चढ़ आया। जंग में कुंवर सिंह और उसकी छोटी सी फ़ौज हार गयी। आरा के किले पर अंग्रेज़ो का फिर से क़ब्ज़ा हो गया।
8 अगस्त 1857 को पीर अली ख़ान के साथी औसाफ़ हुसैन और छेदी ग्वाला को भी बग़ावत के जुर्म मे फांसी पर लटका दिया जाता है.. बाक़ी लोगों को काला पानी की सज़ा होती है..
बाबू कुँवर सिंह आरा और जगदीशपुर मे जंग हारने के बाद बिहार से बाहर अंग्रेज़ो पर हमला करना शुरु करते हैं. सितम्बर 1857 मे बाबू कुंवर सिंह की फ़ौज अंग्रेज़ो और उसके पिट्ठुओं के छक्के छुड़ाते हुए रिवह(रीवा) से आठ मील की दुरी पर पहुंच जाती है.. तब रीवा का राजा जो अंग्रेज़ो का वफ़ादार था ने क़िले का दरवाज़ा बन्द करने का हुक्म सुनाया तो वहां के दो क़द्दावर शख़्स “हशमत अली” और “हुरचंद राय” ने इसका विरोध किया जिस वजह कर राजा को ही क़िला छोड़ कर भागना पड़ा… फिर इन लोगो ने बाबू कुंवर सिंह को रास्ता दिखाया और उनकी फ़ौज का क़िले के अंदर इस्तक़बाल किया… इस तरह बिना ख़ुन बहाए ही बाबू कुंवर सिंह ने रीवा को जीत लिया….
उधर शेख भिखारी व टिकैत उमराव सिंह की वजह कर जंग ए आज़ादी की आग छोटानागपुर में फैल गयी. रांची, चाईबासा, संथाल परगना के ज़िलों से अंग्रेज़ भाग खड़े हुए. ये लोग जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह से लगातार संम्पर्क मे थे..
अंग्रेज़ों ने शेख भिखारी व टिकैत उमराव सिंह को 6 जनवरी 1858 को घेर कर गिरफ़्तार कर लिया और 7 जनवरी 1858 को उसी जगह चुट्टूघाटी पर फ़ौजी अदालत लगाकर मैकडोना ने शेख़ भिखारी और उनके साथी टिकैत उमरांव को फांसी का फैसला सुनाया.
8 जनवरी 1858 को आजादी के आलमे बदर शेख़ भिखारी और टिकैत उमराव सिंह को चुट्टूपहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी..
उधर मोहसिनपुर के ज़मीनदार ‘मीर क़ासिम शेर’ अपनेे उस्ताद गु़लाम हुसैन ख़ान के कहने पर बाबु कुंवर सिंह की शहादत के बाद उनके छोटे भाई बाबु अमर सिंह की मदद करने के लिए रोहतास के जंगलो मे चले गए.. और अंग्रेज़ो पर कई बड़े हमले किये जिससे बौखलाए हुए अंग्रेज़ो ने मोहसिनपुर समझ यादवों के गांव मोसेपुर को पुरी तरह तहस नहस कर दिया जो ख़ुसरुपुर (फ़तुहा) के पास मौजुद है, चुंके मोहसिनपुर काफ़ी अंदर मे है, इस लिए कंफ्युज़न पैदा होना लाज़मी था..
गु़लाम हुसैन ख़ान जो अपने समय के सबसे बड़े लठैत माने जाते थे आज भी इनके नाम की लाठी बाजा़र मे मिल जाती है.. गु़लाम हुसैन ख़ान के बाबु कुंअर सिंह से बड़े अच्छे तालुक़ात थे, इन्हे सिपाहीयों को ट्रेनिंग देने के लिए बुलाया जाता था.
एक बात क़ाबिल ए ग़ौर है 1845 मे पटना का एक असफ़ल विद्रोह हुआ था जो होने से पहले ही दबा दिया गया था..
पटना में स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियाँ वर्ष 1805 से ही प्रारम्भ हो गई थी। उस समय उलमाए सादिक़पुर की गतिविधियों का केन्द्र पटना ही था। जिसकी क़यादत इनायत अली, विलायत अली और दिगर लोग कर रहे थे. ये लोग अंग्रेज़ो और उसके पिठ्ठुओं से लड़ने के लिए मुजाहिदीन लड़ाको को तैयार कर ख़ुफ़िया तौर पर सरहदी इलाक़े(आज कल पाकिस्तान मे है) भेजा करते थे.
पर एक बड़े आंदोलन की चिंगारी सबसे पहले 1845 मे दिखी जब नेओरा के रहने वाले मुन्शी राहत अली ने पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद से मिल कर उन्हे अंग्रेज़ी फ़ौज के ख़िलाफ़ बग़ावत करने के लिए तैयार किया मगर रेजिमेंट के ही एक हवालदार ने अंग्रेज़ो के प्रती वफ़ादारी दिखाते हुए सारे राज़ खोल दिये जिसके बाद पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद गिरफ़्तार कर लिए गए. उनके पास से ज़मीनदारो और बा-असर लोगो के ख़त पकड़े गए जिसमे कई लोगो का राज़ खुल गया. इसमे कुछ ख़त बाबु कुंवर सिंह के भी थे. 27-12-1845 को पटना के कलेक्टर ने हुकुमत ए बंगाल के सिक्रेटरी को ख़त लिख कर ये इत्तेला दी के शाहबाद का एक ज़मींदार भी इस साज़िश मे मुलव्विस है जिसका मतलब बाबु कुंवर सिंह ही था..
पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद ने अपने जुर्म का एक़रार कर लिया और उनके बयान पर मुन्शी राहत अली , और पटना के शहरी ख़्वाजा हसन अली गिरफ़्तार कर लिए गए. इनदोनो पर मुक़दमा चला और फ़ैसला 1846 को आया पर इक़रारी मुजरिम (पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद) ने इन दोनो (मुन्शी राहत अली और ख़्वाजा हसन अली) को पहचानने से इनकार कर दिया जिस वजह कर ये लोग रिहा कर दिये गए. पर पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद सज़ा हुई. सज़ा के नाम पर इनके साथ क्या सलुक हुआ ये खोज का विषय है.
पटना के लॉ अफ़िसर मौलवी नियाज़ अली, सरकारी वकील बरकतउल्लाह और दरोग़ा मीर बाक़र को बरख़ास्त कर दिया जाता है… बाबु कुंवर सिंह-जगदीशपुर , मौलवी अली करीम-डुमरी और पुलिस जमीदार अपने कद्दावर असर की वजह कर बच गए…
गया के डुमरी वाले मौलवी अली करीम गोरखपुर मे अपने क्रांतिकारियों व सहयोगियों का नेतृत्व कर रहे थे.. 11 जुन से पहले तक वो बाबु अमर सिंह के साथ लगातार अंग्रेज़ो से जंग कर रहे थे.. चुंके अमर सिंह बिहार लौटमा चाहते थे इस लिए अमर सिंह के साथ मिल कर इन्होने रुपसागर कैंम्प पर हमला भी किया.. ठीक उसी समय अली करीम के 400 सिपाही ग़ाज़ीपुर मे अंग्रेज़ो से लड़ रहे थे..
कुछ नाम इतिहास को मिले लेकिन वे तमाम नाम इतिहास को ढूढें नहीं मिले जो देश की आन पर मर मिटे। इसीलिए तो मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र कहने को मजबूर हुये :-
न दबाया ज़ेरे ज़मीं उन्हें
न दिया किसी ने कफ़न उन्हें
न हुआ नसीब वतन उन्हें
न कहीं निशाने मज़ार है।