बेगम हसरत मोहानी, शौहर के लिए अदालत में केस लड़ने वाली क्रांतिकारी महिला

ये कहा जाता है की अगर निशात उन निशा, ज़ुलैख़ा, और कमला नेहरू नहीं होती, तो मुमकिन था हसरत किसी अख़बार के एडिटर होते, मौलाना आज़ाद हिलाल और अल बिलाग निकालते रहते और जवाहर लाल एक कामयाब बैरिस्टर हो कर रह जाते।

निशात उन निशा जो बेगम हसरत मोहानी के नाम से मशहूर हैं, 1885 ईस्वी में ज़िला उन्नाव के क़स्बा मोहान में पैदा हुई थी, आप के वालिद हैदराबाद में वकील थे। आपकी शादी 1905 में हसरत मोहानी से हुई।

हसरत मोहानी का झुकाव कांग्रेस के गर्म दल की तरफ़ था, इन्हे 1908, 1914, और 1922 में तीन बार जेल जाना पड़ा। जब दूसरी बार क़ैद हुए तो किसी बैरिस्टर ने केस नहीं लिया, इस वजह कर बेगम हसरत ने केस की पैरवी ख़ुद की और उन्होंने वह हिम्मत और लगन दिखाई की मौलाना आज़ाद ने एक खत में लिखा था मौलाना हसरत और आप ने साबित कर दिया की मुसलमानो की बस्तियाँ कामिल इंसानों से अब तक खाली नहीं हुई है।

बेगम हसरत मोहानी

जब हसरत मोहानी तीसरी बार जेल गए तो उन्हें ख़तरनाक क़ैदी करार दिया गया, और अज़ीयत नाक सज़ाएं दी गयी, लेकिन मौलाना सब कुछ झेल गए क्यूंकि पीछे दिलेर, मुस्तक़िल मिजाज़ बीवी खड़ी थी जो बड़े बड़े सियसत दान के हौसले पस्त करने के लिए काफ़ी था।

1917 में मौलाना नज़रबंद थे, बेगम हसरत, सरोजनी नायडू, एनी बेसेंट और कुछ और दीगर हिंदुस्तानी ख्वातीन के ग्रूप ने नज़रबंद क़ैदियों की रिहाई की अपील की, जब बगियान आयरलैंड को रिहा कर दिया गया हिन्दोस्तान के नज़रबंद क़ैदियों को रिहा किया जाये। हुकूमत हिन्द के अराकान बेगम हसरत के इस जुम्ले और बेबाकी की जुर्रत देख कर दंग रह गए।

1935 में कानपूर में कांग्रेस का इजलास था, मौलाना हसरत जब वहां पहुंचे तो नेहरू के चाहने वाले मौलाना हसरत को रोक रहे थे और इजलास में शामिल होने नहीं दे रहे थे। बेगम हसरत भी वहां मौजूद थी और उन्हें आ गया गुस्सा और उन्होंने जड़ दिया थप्पड़ फिर रास्ता खुद ब खुद साफ़ हो गया।

1923 में गया में कांग्रेस का जलसा था, गाँधी और हसरत जेल में थे, कमान बेगम हसरत ने संभाली और अपने स्पीच में कहा अहमदबाद कांग्रेस में इजलास के मौक़े पर मौलाना हसरत की मुक्कम्मल आज़ादी की बात न मान कर जो गलती गांधी जी ने की थी आज कौंसिल के हामियों का ज़ोर उसी के रद्दे अमल का नतीजा है, कांग्रेस के इजलास में किसी मुस्लिम ख़ातून की ये पहली तक़रीर थी।

सुलेमान नदवी बेगम हसरत के लिए कहा था शौहर के क़ैद बंद के बाद जबकि कोई मददगार नहीं होता, तो हर क़िस्म की मुश्किलों को बहादुरी के साथ बर्दाश्त करने में शायद ही कोई औरत इनसे आगे निकल सके।

एक लाड प्यार में पली लड़की ने ज़िन्दगी के सारे मुसीबतों को झेला, मौलाना के साथ मिल कर एडिटिंग का काम किया, और जब हालत हद से ज़्यादा खराब हो गए तो उजरत पर सिलाई करके और चक्की पीस कर नमक रोटी खा कर ज़िन्दगी गुज़ार दी। लेकिन कभी मैदान ए जंग में अपने शौहर का पीठ देखना गवारा नहीं किया।

3 अप्रैल 1937 को बेगम हसरत की वफ़ात हो गयी, वफ़ात के बाद मौलाना इन्हे ख़्वाब में देखने की तमन्ना लिए बैठे थे। जब महीना गुज़र गया और खवाब में दीदार नहीं हुआ तो उन्होंने एक ग़ज़ल लिखी जिसका मिसरा था “वजह क्या ख़्वाब में न आने की”

ख़ैर मौलाना फिर कहते है एक रोज़ वह ख़्वाब में दिखाई दी एक दो मंज़िला मकान जिसकी दूसरी मंज़िल पर मेरे लिए वोह दाल रोटी पकाने की फ़िक्र में थी; मगर नमक नहीं था। जब मैं वहां पहुंचा तो शिकायत करने लगी कि तनहा छोड़ कर जाते हो, नमक तक का बंदोबस्त नहीं करते !

मौलाना ने फिर एक ग़ज़ल लिखी थी ~
फ़िक्र और मेरे ख़ुर्द व नोश की अब तक हसरत
उन से छूटी है न छूटेगी रफ़ाक़त मेरी !