तुमने गांधी को भुला दिया, जैसे तुमने बुद्ध को भुला दिया था : बादशाह ख़ान

आज़ादी के एक दूसरे लड़ाका, बादशाह ख़ान, सारी ज़िंदगी संघर्ष की भट्ठी में तपते रहे। लेकिन गांधी जन्म शताब्दी वर्ष में जब वो भारत आए और जयप्रकाश नारायण के विशेष आग्रह पर बिहार पधारे तो हमारे जैसे लोगों को महसूस हुआ जैसे उनके आशावाद ने उनका साथ छोड़ दिया हो। देश के कुछ हिस्सों में हुए सांप्रदायिक दंगों ने भीतर से उन्हें उद्वेलित कर दिया था। भारत ने गांधी को भुला दिया है, उनके मूल्यों और आदर्शों को दफ़न कर दिया है, अब यह देश उनके सपनों का भारत नहीं रहा।

पटना से लेकर जमुई तक, कुछ इसी प्रकार के वाक्य उनकी ज़बान से अदा होते रहे। एक जगह तो उन्होंने यहां तक कह दिया : तुमने गांधी को भुला दिया, जैसे तुमने बुद्ध को भुला दिया था।

बादशाह ख़ान की निराशा के पीछे अकेले भारत की परिस्थितियां नहीं थीं। पाकिस्तान के हालात और वहां की हुकूमत के अन्यायी व्यवहार भी उनकी तल्ख़ी के कारण थे।

यह भी सच है कि आख़िरी दिनों में गांधी भी ख़ुद को अकेला, बेहद अकेला महसूस करने लगे थे। एक बार उन्होंने अपने को ‘ख़ाली कारतूस‘ तक कह दिया था। ख़ाली कारतूस, यानी ऐसा औज़ार जो किसी पर वार करने में बेअसर साबित हो गया हो। क्या गांधी किसी पर वार करने में विश्वास करते थे? आख़िर वो एकांत के क्षणों में अपने लिए ‘ख़ाली कारतूस‘ जैसे शब्द इस्तेमाल करने को कैसे विवश हो गए?

निराशा और आशा के अन्तःसंबंधों के मामले में गांधी और बादशाह ख़ान अपवाद नहीं थे। उन दोनों के भीतर का एकांत विरासत के रूप में कई दूसरे नेताओं को भी मिला। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण भी अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में तन्हाई के एक घनीभूत एहसास से अनछुए नहीं रह पाए। लोहिया ने अपने विचारों की ताज़गी और गतिशीलता के कारण तन्हाई के इस एहसास को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। आम जन के साथ उनके रिश्तों की गहराई इतनी ज़बरदस्त थी कि मायूसी उनके पास फटकने से डरती थी।

लेकिन आज़ाद भारत में आर्थिक-सामाजिक बराबरी की दिशा में कोई ठोस बदलाव नहीं होने और और नतीजे के तौर पर समाज के कमज़ोर तब्क़ों की बढ़ती बदहाली से उनका मन अक्सर उद्विग्न हो उठता था। अपनी इस उद्विग्न मनःस्थिति को प्रकट करने के लिए अक्सर लोहिया तल्ख़ और आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करते थे। यह मनःस्थिति भाषा के प्रति उनकी सहज संवेदना के क्षरण का प्रमाण नहीं थी। दरअसल यह अन्याय के स्तंभों पर टिकी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था से उत्पन्न हालात के प्रति उनकी आक्रोशपूर्ण अस्वीकृति का संकेत थी।

Professor Jabir Husain http://hindi.heritagetimes.in

प्रोफ़ेसर जाबिर हुसैन पुर्व सांसद हैं, और बिहार विधान परिषद के सभापति भी रह चुके हैं जो हिंदी, उर्दू तथा अंग्रेज़ी जैसी भाषाओं में समान अधिकार के साथ लेखन करते रहे हैं। इन्हे साल 2005 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।