शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी, एक एैसे क्रान्तिकारी विचारक जिन्हें भुला दिया गया।

अमरेश मिश्रा

बीते 21 फरवरी, 2018 को भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बडे विचारक-क्रांतिकारी शाह वलीउल्लाह की 315वी सालगिरह थी। दक्षिण एशिया मे, सामाजिक आर्थिक राजनीतिक तंत्र की विवेकसम्मत आलोचना, मूल्य का ‘श्रम’ सिद्धांत, इतिहास की समझ, इतिहास की प्रगतिशील गति जैसे सिद्धान्त, यूरोपियन-पश्चिमी ‘देन’ के रूप में देखे गये हैं। ये सच नही है। इन सब विषयों पर सबसे पहले, पश्चिमी प्रभाव के बिना, शाह वलीउल्लाह (जन्म-1703) ने प्रस्तावनायें रखीं। शाह वलीउल्लाह के पिता शेख अब्दुर रहीम, औरंगज़ेब के दौर मे प्रसिद्ध विद्वानो मे से एक थे। अब्दुर रहीम साहब ने ‘फतवा-ए-आलमगीरी’ के संकलन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

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अज्ञानता की स्थिति ये है कि ‘फतवा’ शब्द से हमारे दिमाग मे ‘मुल्लाओं द्वारा महिलाओं की प्रताड़ना’ जैसी छवि उभरती है। परन्तु ये महज एक डर है जो हमारे मन मे पश्चिम द्वारा पैदा किया गया है। अन्यथा ‘फतवा’ का अर्थ है ‘राय’ या ‘ओपिनियन’। और ‘फतवा-ए-आलमगीरी’, धर्म से लेकर राजनीति, विचारो की सम्पूर्ण रेंज पर सर्वाधिक परिष्कृत संकलनो मे से एक है। किसी को भी ताज्जुब होगा कि इस पुस्तक के अध्ययन के बिना भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के छात्र कैसे किसी भी विषय पर कुछ उपयोगी लिख सकते हैं!

शाह वलीउल्लाह और रूसो

पश्चिमी देश जोर देंगे कि ‘लोक संकल्प’ या ‘लोक इच्छा-शक्ती’ का सिद्धांत (theory of general will) 18वी सदी मे फ्रेंच दार्शनकि रूसो ने प्रतिपादित किया। ये कहा जाता है कि इसी विचार ने जनता की ‘इच्छा-शक्ती’ को ‘राज इच्छा-शक्ती’ से ऊंची माना। और सामंतशाही के विरुद्ध लोकतंत्र को जन्म दिया। जिसके फलस्वरूप 1789 की फ्रेंच क्रांति मे ‘व्यक्ति के अधिकारों’ की घोषणा हुई और 1776-1783 के अमेरिकन स्वतंत्रता संग्राम मे ‘बिल आफ राइट्स’ बना।

समग्र रूप मे, ये सभी विकास आधुनिक युग की नींव माने जाते हैं। रूसो ने ‘लोक संकल्प’ या ‘इच्छा-शक्ती’ के बारे मे 1760s मे लिखा। तब तक शाह वलीउल्लाह, अपने पिता द्वारा स्थापित मदरसा-ए-रहीमिया दिल्ली के बतौर शासनाधिकारी कार्य करते हुये, मृत्य को प्राप्त हो चुके थे (1761)। अपनी पुस्तक ‘हुज्जत अल्लाह अल-बलीगा’, जो धरती के लगभग सभी विषयो पर संकलन है, कब की पूरी कर चुके थे। हुज्जत मे शाह वलीउल्लाह शासन की सम्प्रभुता को शाही लोगो से छीन लेते हैं। मुगल शासन के पतन का विष्लेषण करते हुये शाह वलीउल्लाह ‘भारी भरकम टैक्स’, ‘विशेषाधिकार प्राप्त और अनुत्पादक लोगो (परजीवी) का उत्पादक तत्वो पर शासन’ को मूल कारक के तौर पर इंगित करते हैं।

फ्रेंच और अमेरिकन दोनो ही क्रांतियो मे शहरी और ग्रामीण मध्यम वर्ग ने, सामंती और उपनिवेशवादी ताकतो द्वारा आरोपित टैक्सेज के विरुद्ध बगावत की थी। शाह वलीउल्लाह ने इस घटना का पूर्वानुमान दशको पहले ही कर लिया था। उनके अनुसार दस्तकारोंं, व्यापारियो और किसानो को न्याय से वंचित करना राजसत्ता और साम्राज्यवादी शासन के पतन का कारण बनता है। इसके निवारण के लिये, शाह वलीउल्लाह शासन के लिये एक ऐसे लोकतांत्रिक तंत्र के निर्माण का प्रस्ताव करते हैं जिसमे मुखिया वंशानुगत ना होकर, चुने जाँय (selected) या चुनाव से बने (elected)।

शाह वलीउल्लाह और एडम स्मिथ

पशिचिमी देश इस बात पर ज़ोर देते हैं कि मूल्य का श्रम सिद्धांत (labour theory of value) का प्रतिपादन एडम स्मिथ ने किया। ऐडम स्मिथ ने भगवान, राजा या चर्च से जुड़ी सत्ता के बजाय, ‘श्रम’ को समाज निर्माण और दौलत पैदा करने वाली मूल शक्ती के बतौर देखा। किसी भी वस्तू का मूल्य श्रम तय करता है, यह सिद्धान्त, श्रम और समाज के आधुनिकीकरण और मानवीकारण मे बड़ी भूमिका अदा करता है। इसके बिना इन्सान दास या सामन्ती प्रथा में क़ैद रह जाता।

एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक “वेल्थ आफ नेशन” 1776 मे लिखी। इनसे चार centuries पहले इब्न खालदून (1332-1406)–विश्व के पहले इतिहासकार और एक अरब मुस्लिम–ने श्रम को ऐसी इकाई के तौर पर चिन्हित किया जिसके द्वारा धन पैदा होता है, और वस्तु का मूल्य, लाभ, उत्पादन, वितरण और उपभोग, तय होता है। इब्न खालदून के पूर्व धनी व्यक्ति को स्वर्ग से अवतरित माना जाता था। इसी तरह गरीब को माना जाता था कि उसे गरीबी के साथ भाग्य ने पैदा किया है।

अब सोचिये, कि मुस्लिम समाज 14वी 15वी सदी मे भी कितना आगे था कि इसने ‘ईश्वर ने अमीर बनाया’ के विचार को, जिसे पश्चिमी देश 18वी सदी मे अपना जाकर ठुकरा सके, तभी रद्द कर दिया था! शाह वलीउल्लाह ने श्रम के उचित मूल्य मे ह्रास को पिछले शासन तन्त्रों का मूल दोष बताया। शाह वलीउल्लाह के लेखों से पता चलता है कि भारत मे एडवांस स्तर के जिंस उत्पादन (commodity production), मूल्य विनिमय (exchange value), वाणिज्य (finance) और उद्योग (industry) का अन्ग्रेज़ों के आने से पहले, अस्तित्व था। शाह वलीउल्लाह ने जागीरदारी और सामंती तंत्र द्वारा पैदा किये गये अवरोध को प्रगति के रास्ते मे रोड़ा बताया। हमे आधुनिक होने के लिये ब्रिटिश शासन की जरूरत नही थी। सामंतवाद विरोधी आंदोलन, या कर-विरोधी जन-उभार, जिसे शाह वलीउल्लाह ने क्रांति (इंकलाब) कहा, यहाँ के मामलो को उसी तरह हल करने मे सक्षम था जैसे फ्रांस या अमेरिका मे हुआ।

शाह वलीउल्लाह और हेगल

19वी शताब्दी के शुरूआत मे, जर्मन दर्शनशास्त्री हेगल द्वारा, इतिहास के घटनाविज्ञान पर किये अध्ययन से पता चला कि कैसे विभिन्न ऐतिहासिक चरण आये, कैसे पुराने चरण खत्म हुये ताकि एक नये चरण का मार्ग प्रशस्त हो। हेगल ने द्वंदवाद का वर्णन ऐतिहासिक नियम की तरह किया। जिसमे पदार्थ और चेतना मे एकता और संघर्ष, वस्तुगत एवं आत्मगत फैक्टर्स शामिल हैं। मार्क्स ने इसी हेगेलियन द्वंदवादी विचार की भैतिकवादी व्याख्या कर, एक नये युग की आधारशिला रखी।

पर हेगल और मार्क्स से भी पहले शाह वलीउल्लाह ने सम्पत्ति के गतिशील और गतिहीन भागोंं के विभिन्न स्तरो के बीच द्वन्द और संघर्ष द्वारा ऐतिहासिक परिवर्तन होने पर चर्चा की थी। शाह वलीउल्लाह ने ‘इतिहास परिवर्तन मे क्लास स्ट्र्गल की भूमिका’ 18वी सदी मे देख ली थी।

शाह वलीउल्लाह और ब्रिटिश साम्राज्यवाद

ब्रिटिश दखल ने भारत मे सामंतवाद विरोधी क्रांति को रोक दिया। 1803 मे दिल्ली पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो गया। सभी मुगल काल पश्चात बने राजसत्ताएं पराजित हो गयीं। हालात को देखते हुये, शाह वलीउल्लाह के पुत्र शाह अब्दुल अज़ीज़ ने सामंतवाद-विरोधी धारा को उपनिवेशवाद-विरोधी धारा मे तब्दील कर दिया।

1803 मे शाह अब्दुल अज़ीज़ ने एक अनोखा फतवा जारी किया। इसमे पहली बार मुस्लिमो के साथ साथ गैर-मुस्लिम (हिंदूओ) से भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई का आह्वान किया गया। शाह वलीउल्लाह के इंकलाब के सिद्धांत को शामिल करते हुये जेहाद की अवधारणा को विदेशी कब्जे के खिलाफ आजादी की लड़ाई मे बदल दिया गया।

1786 से 1803 के मध्य वस्तुतः मराठो ने मुगलो से साधिकार दिल्ली पर शासन किया। यदि शाह वलीउल्लाह की विचारधारा या ‘वलीउल्लाहइज़्म’ या ‘वलिउल्लाहवाद’ हिंदू विरोधी होती तो जेहाद का फतवा 1786 मे जारी होता। परंतु यह 1803 मे जारी हुआ। इस फतवे में सिर्फ मुस्लिम राज नही, बल्कि हिन्दुओं (धिम्मी) द्वारा राजसत्ता खोने का उसी शिद्दत के साथ ज़िक्र किया गया। इस फतवे का साफ इशारा था कि भारतीय उप-महाद्वीप के मुसलमानो को, हिन्दू राजा या शासक स्वीकार्य था, बशर्ते वो ब्रिटिश-विरोधी हो।

वलीउल्लाहवादी विचारधारा और 1857

18वी शताब्दी का प्रथमार्ध मे भारत के कई भागो मे कई सारे अलग अलग ब्रिटिश विरोधी विद्रोह हुये। कई प्रमाण, जिनमे से कुछ इस लेखक की पुस्तक ‘War of Civilisations: India 1857 AD’ मे भी शामिल हैं, मौजूद हैं कि इन विद्रोहों के पीछे शाह वलीउल्लाह की विचारधारा थी। शाह वलीउल्लाह पर नेज्द, सऊदी अरब के अब्दुल वहाब पर कोई प्रभाव नही था। परंतु ब्रिटिश सत्ता ने वलीउलाह के अनुयाइयो को ‘वहाबी’ कहना शुरू कर दिया। ये एक असत्य आरोप था जो आज भी कायम है!

1857 के शुरुआती दौर मे सैयद अहमद शहीद का आंदोलन, 1806 का वेल्लोर विद्रोह, 1831 का कोल आंदोलन, महाराष्ट्र का रामोशी विद्रोह, कर्नाटक, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश, पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, बिहार, बंगाल (फरायज़ी आंदोलन), असम, मणिपुर मे किसान विद्रोह, केरल मे मोपला विद्रोह, 1856 मे संथालो का आंदोलन, ये सभी या तो शाह वलीउल्लाह के आदर्शो से प्रेरित थे या शाह वलीउल्लाह के अनुयाइयो के नेतृत्व मे हुये।

वलीउल्लाहवादी अनुयायियो मे सिख और हिंदू होने के भी प्रमाण हैं! इस तरह वलीउल्लाहवादी विचारधारा, इस्लाम से निकली एसी शाखा बन कर उभरी,जो एक मज़हब की सीमाओ से ऊपर उठकर, दक्षिण एशिया मे आज़ादी, मुक्ति,और सशक्तीकरण की सर्वमान्य थ्योरी बन गई।

ब्रिटिश दस्तावेज़ों के अनुसार वलीउल्लाह के अनुयाइयो ने पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिन्ह को भी प्रभावित किया। घसियारी बाबा, जो एक सनातनी हिंदू संत थे, और जिन्होने अवध के हिंदुओ के बीच क्रांति के विचार प्रसारित किये, उनकी पहचान ब्रिटिश सरकार ने शाह वलीउल्लाह के एक ब्राम्हण अनुयायी के रूप मे की।

घसियारी बाबा ने 1857 की अवध क्रांति मे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। गंगू बाबू मेहतर, जो जाति से एक वाल्मीकि दलित थे, और जिन्होने 1857 मे कानपुर के कुछ क्षेत्रो मे क्रांति का नेतृत्व किया, भी शाह वलीउल्लाह के विचारो के अनुयायी थे। ब्रिटिश सत्ता ने अनुचित तरीके से गंगू बाबू, जो एक उत्साही शिवभक्त थे, को ‘वहाबी’ घोषित कर दिया।

1857 मे फज़ल-ए-हक़ खैराबादी (जावेद अख्तर के परदादा), द्वारा जारी अंग्रेज़-विरोधी लड़ाई का फतवा, स्पष्ट रूप से वलीउल्लाहवादी विचारधारा के अनुरूप था। बहादुरशाह ज़फर के नेतृत्व मे सशस्त्र संघर्ष मे शामिल सभी चार नेता मिर्ज़ा मुग़ल, बख्त खान, भागीरथ मिश्रा, और सिरधारी सिंह, बिन अपवाद, शाह वलीउल्लाह की विचारधारा से प्रभावित थे। बहादुर शाह ज़फर की सील से 1857 मे जारी राष्ट्रीय-लोकतांत्रि क्रांति का चार्टर (घोषणा पत्र) मे ट्रेडर्स, उद्योगपतियोंं, मर्चेंट्स, किसानो, दस्ताकारों के लिये अलग अलग स्पष्ट प्रोग्राम शामिल किये गये थे। भारी उद्योगो मे सरकारी सहायता का वादा था, सभी किसानो को 5 एकड़ जमीन का एकसमान आश्वासन था। ये सब शाह वलीउल्लाह के मूल सिद्धांतो से उतपन्न हुआ।

मंगल पांडे, मौलवी अहमदुल्लाह शाह, बेगम हज़रत महल, राजा जयलाल सिंह कुरमी, भोंदू सिंह अहीर, राजा कुंवर सिंह, नाना साहेब, तात्या टोपे, अज़ीमुल्लाह खान, बांदा के नवाब बहादुर, इलाहाबाद के मौलवी लियाक़त अली, सतारा के रुंगो बापोजी, आंध्रप्रदेश के रेड्डी जमींदार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के गोंड आदिवासी, राजस्थान, गुजरात और मालवा के भील, जाट, गुज्जर और लोध, कर्नाटक के लिंगायत, फतेहपुर के चौधरी हिकमतुल्लाह, लखनऊ और उन्नाव के पासी, जौनपुर-आज़मगढ के दलित– इन सभी ने 1857 मे ब्रिटिश सत्ता से लड़ते हुये कभी ना कभी शाह वलीउल्लाह का स्मरण किया था।

(आगे जारी…… ) लेख नेशनल स्पीक पर पहले भी छप चुका है।