सुनील दत्ता
ज्यादातर लोग जानते है की ब्रिटिश शासन के दौर में बनी पहली हिन्दुस्तानी सरकार आज़ाद हिन्द फ़ौज की सरकार थी। लेकिन सच्चाई यह है की पहली हिन्दुस्तानी सरकार 1915 में अफगानिस्तान में बनी हिन्दुस्तान की अस्थाई सरकार थी। राजा महेन्द्र प्रताप इसके राष्ट्रपति और मौलाना बरकतुल्लाह इसके प्रधानमन्त्री थे। इस तरह बरकतुल्लाह साहब को हिन्दुस्तान का पहला प्रधानमन्त्री बनने का गौरव प्राप्त है।
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उनका जीवन शुरुआत से ही संघर्षो का जीवन रहा है। उनकी दिलचस्पी इस्लाम के धर्मवादी रुझानो से गदर पार्टी के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी एवं धर्म निरपेक्षी रुझानो की तरफ बढ़ती रही। उन्होंने इस्लामी जगत के स्कालर के रूप में अन्तराष्ट्रीय प्रसिद्धि हासिल की। कई भाषाओं के विद्वान् के रूप में मौलाना बरकतउल्लाह ने राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर इस्लामी धार्मिक या किसी भी भाषाई संस्थान के उच्च पद पर पहुचने में कही कोई अडचन नही थी । वे लिवरपूल व टोकियो यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के रूप में सालो साल काम भी करते रहे थे। लेकिन अन्त में उन्होंने वह सब त्याग कर राष्ट्र के स्वतंत्रता के लिए प्रवासी क्रांतिकारी का जीवन अपनाया। गदर पार्टी के निर्माण में और उसे आगे बढाने में भरपूर योगदान दिया। बाद में अफगानिस्तान में देश की पहली अस्थाई सरकार बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। ब्रिटिश दासता और उसके शोषण व अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध मौलवी बरकतुल्लाह के विचार एवं व्यवहार महत्वपूर्ण हैं।
मौलाना बरकतुल्ला का पूरा नाम अब्दुल हफ़ीज़ मोहम्मद बरकतुल्लाह था। इनके जन्म के समय इनके पिता शुजातुल्लाह एक छोटे से स्कूल में अध्यापक थे। बाद में वे नौकरी छूट जाने के बाद वे स्थानीय पुलिस चौकी पर नियुक्त हो गये थे। घर की आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर थी।
बरकतुल्लाह साहब की जन्मतिथि पर भी मतभेद है। कुछ विद्वानों का कहना है की उनकी पैदाइस की तारीख़ 7 जुलाई 1854 थी. जबकि कई दूसरी जगह पर उनकी पैदाइश को 1857 या 1858 बताया गया हैं। मौलाना ने भोपाल के सुलेमानिया स्कूल से अरबी, फ़ारसी की माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। मौलाना ने यही से हाई स्कूल तक की अंग्रेजी शिक्षा भी हासिल की। शिक्षा के दौरान ही उन्हें उच्च शिक्षित अनुभवी मौलवियों और विद्वानों से देश दुनिया के बारे में जानकार पाने और उनके विचारों को जानने का अवसर मिला। शिक्षा समाप्त करने के बाद वे उसी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए। यही काम करते हुए वे अन्तराष्ट्रीय ख्याति के लीडर शेख जमालुद्दीन अफगानी से प्रभावित हुए।
शेख साहब सभी देशो के मुसलमानों में एकता व भाईचारे के लिए दुनिया के तमाम देशो का दौरा कर रहे थे। मौलवी बरकतुल्लाह के माँ – बाप की मृत्यु भी इसी दौरान हो चुकी थी। इकलौती बहन की शादी भी हो चुकी थी। इसलिए मौलाना अब एकदम अकेले थे। उन्होंने बिना किसी को बताए अचानक ह़ी भोपाल छोड़ दिया और वे बम्बई चले गए। पहले खंडाला और फिर बम्बई में ट्यूशन पढाने के साथ उन्होंने खुद भी अंग्रेजी की पढाई आगे जारी रखी। 4 साल में उन्होंने अंग्रेजी भाषा की उच्च शिक्षा हासिल कर ली और 1887 में वे आगे शिक्षा पाने के लिए इंग्लैण्ड पहुँच गए।
प्रवासी हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारियो के संरक्षक श्याम जी कृष्ण वर्मा ने उन्हें इंगलैण्ड जाने में सहायता की थी। इंग्लैण्ड में मौलाना का जीवन वहाँ की चकाचौध व विलासिता से एकदम अछूता रहा। श्याम जी कृष्ण वर्मा और इंग्लैण्ड में रह रहे दूसरे क्रांतिकारियों के सम्पर्क से मौलवी बरकतुल्लाह का सम्पर्क हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी विचारों और गतिविधियों से बढना शुरू हुआ। वे कांग्रेस के नेता गोपाल कृष्ण गोखले और फिर बाल गंगाधर तिलक से अत्यधिक प्रभावित हुए। राष्ट्र स्वतंत्रता के लिए अपनी बढती गतिविधियों के कारण मौलाना अंग्रेजी भाषा की उच्च शिक्षा को तो जारी नहीं रख सके, लेकिन इसी बीच उन्होंने जर्मनी, फ्रांसीसी, तुर्की और जापानी भाषा का ज्ञान जरूर हासिल कर लिया। उर्दू अरबी और फ़ारसी तथा अंग्रेजी के तो वे पहले से ही अच्छे खासे जानकार थे।
अब मौलाना की पहचान राजनीति व पत्रकारिता के क्षेत्र में भी स्थापित होने लगी थी। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान हिन्दुस्तान के बिगड़ते आर्थिक हालात पर मौलाना के भाषणों व लेखो को खूब सराहा जाता था। लन्दन में 7 – 8 साल तक अरबी भाषा के अध्यापक तथा स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मौलाना लिवरपूल यूनिवर्सिटी के ओरियन्टल कालेज में फ़ारसी के प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए। लेकिन उनकी राष्ट्रीय विचारधारा को लेकर इंग्लैण्ड के शासकीय हल्के में मौलाना का विरोध होने लगा। लेकिन नौजवान बरकतुल्लाह मुस्लिम देशो की शासन सत्ताओ के विरुद्ध ब्रिटिश शासन की नीतियों व कारवाइयो का तथा हिन्दुस्तान में ब्रिटिश शासन की लुटेरी नीतियों का लगातार विरोध करते रहे। वे इस बारे में खुलकर बोलते व लिखते थे | इस कारण से ब्रिटिश सरकार ने अब उन पर तरह – तरह के प्रतिबन्ध भी लगाने शुरू कर दिए, इसलिए मौलाना के लिए अब वहाँ टिकना सम्भव नही रह गया।
इसी बीच न्यूयार्क के मुसलमानों की तरफ़ से उन्हें एक मस्जिद व इस्लामिक स्कूल बनवाने के लिए रखे गए सम्मलेन में आने का निमंत्रण मिला। तब तक मौलाना की पहुँच विश्व के नामी गिरामी इस्लामी विद्वानों तथा बहुतेरे मुस्लिम राष्ट्रों के शासको में हो चुकी थी | 1899 में अमेरिका पहुँचने के बाद बरकतुल्लाह साहब ने वहा के स्कूलो में अरबी पढाने का काम शुरू कर दिया । लेकिन ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध अपनी गतिविधियों को उन्होंने वहाँ भी लगातार जारी रखा। इसका सबूत 21 फरवरी 1905 को उनके द्वारा हसरत मोहानी को लिखे गये एक पत्र में भी मिलता है।
बरकतुल्लाह ने यह पत्र हसरत मोहानी द्वारा हिन्दू मुस्लिम एकता की जरूरत पर लिखे गए किसी समाचार पत्र के सम्पादकीय को पढकर लिखा था | उन्होंने हसरत मोहानी के विचारों की प्रशंसा करते हुए लिखा था — “बड़े अफ़सोस की बात है कि, 2 करोड़ हिन्दुस्तानी, हिन्दू-मुसलमान भूख से मर रहे हैं, पूरे देश में भुखमरी फैलती जा रही हैं, लेकिन ब्रिटिश सरकार हिन्दुस्तान को अपने मालो – सामानों का बाज़ार बनाने की नीति को ही आगे बढाने में लगी हैं। इसके चलते देश के लोगो के काम -धंधे ख़त्म होते जा रहे हैं। ब्रिटिश सरकार खेती के विकास का भी कोई प्रयास नही कर रही है जबकि उसकी लूट निरंतर जारी है। भारतीयों को अच्छे व ऊँचे ओहदों से भी वंचित किया जाता है। इस तरह से ब्रिटिश हुकूमत द्वारा हिन्दुस्तान व उसकी जनता पर हर तरह का बोझ डाला जा रहा हैं। उसकी अपनी धरोहर को भी नष्ट किया जा रहा है। हिन्दुस्तान से करोड़ो रुपयों की लूट तो केवल इस देश में लगाई गई पूंजी के सूद के रूप में ही की जाती है और यह लूट निरंतर बढती जा रही है। देश की इस गुलामी और उसमे उसकी गिरती दशा के लिए जरूरी है कि देश के हिन्दू-मुसलमान एकजुट होकर तथा कांग्रेस के साथ होकर देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए हिन्दू मुस्लिम एकता को बढाएँ।”
खुद मौलाना ने 1857 के संघर्ष को याद करते हुए हिन्दू मुस्लिम एकता को आगे बढाने के लिए हर स्तर पर प्रयास किया। इसी संदर्भ में वे न्यूयार्क से जापान पहुँचे। अब ब्रिटिश हुकूमत और उसकी नीतियों के विरोध को आगे बढाने का काम ही मौलाना और उनके अन्य साथियों व सहयोगियों का सर्वप्रमुख मिशन बन चुका था। मिशन में ब्रिटिश हुकूमत से पीड़ित हर देश के हिन्दू मुसलमान व अन्य धर्मावलम्बी लोग उने साथ खड़े हो रहे थे। 1905 के अन्त में जापान पहुँचने के साथ मौलाना की ख्याति एक महान क्रांतिकारी के रूप में हो चुकी थी। वहाँ जापानी भाषा के साथ कई भाषाओं के ज्ञान और उर्दू, अरबी, फ़ारसी की विद्वता के चलते टोकियो यूनवर्सिटी में उनकी नियुक्ति उर्दू प्रोफेसर के रूप में हो गयी। लेकिन उनका मुख्य काम ब्रिटिश हुकूमत का विरोध बना रहा। वे हर जगह ब्रिटिश राज को उखाड़ फेकने के लिए खासकर मुसलमानों का आह्वान करते रहे और इस बात पर जोर देते रहे कि इसके लिए मुसलमानों को हिन्दू और सिक्खों के साथ भी एकता बढाने की जरूरत है।
इसके बाद जापान में ब्रिटिश हुकूमत के प्रतिनिधि के दबाव में मौलाना को यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया. लेकिन मौलाना का विरोध समाचार पत्रों तथा मीटिंगों सम्मेलनों के माध्यम से निरंतर बढ़ता चला गया। इस सिलसिले में वे फ्रांस और फिर दोबारा अमेरिका पहुँचे। तब तक अमेरिका के प्रवासी हिन्दुस्तानियों द्वारा गदर पार्टी के निर्माण का प्रयास शुरू हो चुका था। वे कनाडा तथा मैक्सिको में रह रहे भारतीय प्रवासियों के साथ सहयोग कर रहे थे। 13 मार्च 1913 को गदर पार्टी और उसके क्रियाकलापों को संगठित और निर्देशित करने के लिए 120 भारतीयों का सम्मलेन बुलाया गया। इसमें सोहन सिंह बहकना, लाला हरदयाल, मौलाना बरकतुल्लाह जैसे लोगो ने प्रमुखता से भाग लिया। गदर पार्टी का उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष के जरिए ब्रिटिश राज को उखाड़ कर भारत में जनतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष गणराज्य की स्थापना करना था। गदर पार्टी के इन उद्देश्यों को तय करने में बरकतुल्लाह ने भी प्रमुख भूमिका निभाई थी।
मौलाना के जीवन में आया यह मोड़ उनको धर्मवादी, इस्लामवादी रुझानो से आगे ले जाकर राष्ट्रीय क्रांतिकारी एवं धर्म निरपेक्षी मूल्यों व रुझानो की तरफ बढ़ाने वाला साबित हुआ। जब अमेरिका में गदर पार्टी का काफ़ी विस्तार हो गया और ‘साप्ताहिक गदर’ के कई भाषाओं में प्रकाशन के जरिए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेकने के लिए उसका प्रचार – प्रसार का काम तेज़ हो गया, तब ब्रिटिश सरकार ने अमेरिका सरकार पर गदर पार्टी पर रोक लगाने के लिए दबाव डालना शुरू किया। इसके बाद बरकतुल्लाह, लाला हरदयाल और कई अन्य क्रान्तिकारियो को अमेरिका छोड़ना पडा।
इन क्रान्तिकारियो ने जर्मनी पहुच कर वहा से हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के के लिए लड़ाई शुरू कर दी। बर्लिन में सक्रिय गदर पार्टी में प्रमुख रूप से चम्पक रामन पिल्लई,लाला हरदयाल, बरकतुल्लाह , भूपेन्द्रनाथ दत्ता , राजा महेंद्र प्रताप और अब्दुल वहीद खान आदि शामिल थे। यही पर राजा महेन्द्र प्रताप और बरकतुल्लाह की पहली मुलाक़ात हुई और इसके बाद वे तब तक एक-दूसरे के साथ रहे, जब तक मौत ने बरकतुल्ला को अपने आगोश में नही ले लिया।
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बर्लिन में सक्रिय गदर पार्टी का एक मुख्य काम विदेशो में ब्रिटिश सरकार की तरफ से युद्धरत हिन्दुस्तानी सैनिको से ब्रिटिश फ़ौज से बगावत करवाने के बाद उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खड़ा करना था। बर्लिन गदर पार्टी द्वारा बरकतुल्ला व राजा महेन्द्र प्रताप को अफगानिस्तान के रास्ते विद्रोही सैनिको को लेकर हिन्दुस्तान की ब्रिटिश सरकार पर हमला करने का कार्यभार सौपा गया था। इसी सिलसिले में बरकतुल्ला और महेन्द्र प्रताप ने तुर्की, बगदाद और फिर अफगानिस्तान का सफर किया। वे वहाँ के शासको से मिले तथा उन्हें अपना उद्देश्य बताया। उन्होंने उनसे हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए सहयोग और सहायता करने का अनुरोध किया। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध कर रही जर्मनी की सरकार ने सफर के दौरान जर्मन सैनिको का एक दस्ता भी उन्हें उनकी सुरक्षा के लिए दिया था।
The Afghan Mission in Kabul 1915/16
From left to right the photograph shows :- Kâzım Orbay, Werner von Hentig, Walter Röhr, #RajaMahendraPratap, Kurt Wagner, Oskar Niedermayer, Günther Voigt and #BarkatullahBhopali.
Photo © Stiftung Bibliotheca Afghanica#AzaadiKiNishaniyan pic.twitter.com/DBuSo1wrId
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) August 12, 2018
काबुल पहुचने पर पहले तो उन्हें राजकीय मेहमानखाने में नज़रबंद कर लिया गया, पर बाद में जर्मनी तथा अफगानी हुकमत के प्रधानमन्त्री के दबाव में न केवल इन्हें नजरबंदी से मुक्ति दे दी गयी अपितु हिन्दुस्तान की आजादी के लिए अफगानिस्तान में रहकर गतिविधियाँ बढाने की छूट मिल गई। 1915 का अंत होते – होते मौलवी बरकतुल्लाह और महेन्द्र प्रताप ने अपने सहयोगियों के साथ अफ़गानिस्तान में हिन्दुस्तान की अस्थाई सरकार के गठन का काम पूरा किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौर में ब्रिटिश विरोधी जर्मनी सरकार ने तुरन्त ही अफ़गानिस्तान में हिन्दुस्तानियों की इस अस्थाई क्रांतिकारी सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। महेन्द्र प्रताप हिन्दुस्तान की इस अस्थाई सरकार के राष्ट्रपति और बरकतुल्लाह प्रधानमन्त्री बने थे। मौलाना ओबेदुल्ला सिंधी को इस सरकार का विदेश मंत्री बनाया गया था। इस अस्थाई सरकार और अफगानिस्तान की सरकार के बीच यह समझौता हुआ था कि अफगानिस्तान की सरकार उन्हें हिन्दुस्तान को आजाद कराने में पूरा सहयोग देगी। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दुस्तान की सरकार बलूचिस्तान और पख्तुनी भाषा – भाषी क्षेत्र अफ़गानिस्तान को सौप देगी।
इस अस्थाई सरकार ने हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए हर संभव प्रयास जारी रखा | इस प्रयास से काबुल में हिन्दुस्तानियों की खासी बड़ी जमात इकठ्ठा हो गई। अस्थाई सरकार के अध्यक्ष महेन्द्र प्रताप ने रूस के सम्राट जार निकलाई द्दितीय से ब्रिटेन से सम्बन्ध तोड़ लेने और हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए अस्थाई सरकार से सहयोग करने का अनुरोध किया। लेकिन जारशाही रूस ब्रिटेन के साथ था। उसने अस्थाई सरकार को कोई सहयोग नही किया। अब अस्थाई सरकार ने हिन्दुस्तान की ब्रिटिश हुकूमत पर आक्रमण करने के लिए सेना का गठन शुरू किया। इस सेना में ज्यादातर सीमावर्ती क्षेत्रो के लोग शामिल थे। सेना के गठन के साथ अस्थाई सरकार द्वारा हिन्दुस्तानियों को देश में बगावत करने, अंग्रेजो की हुकूमत को ध्वस्त करने और अंग्रेजो को पूरी तरह से खत्म कर देने की अपीले जारी कर दी।
इसी बीच 1917 की अक्तूबर क्रान्ति के जरिए रूस की जारशाही का तख्ता पलट दिया गया। लेनिन के नेतृत्त्व में बनी सोवियत सत्ता ने अंग्रेजो के साथ हुए गोपनीय समझौतों व संधियों को रुसी जनता के सामने उजागर करते हुए उन्हें रद्द कर दिया। मई 1919 में बरकतुल्लाह, महेन्द्र प्रताप, मौलवी अब्दुल रब तथा दिलीप सिंह के साथ हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के उद्देश्य के बारे में बात करने के लिए मास्को पहुचे | जहाँ उन्होंने लेनिन से भेट की। लेनिन ने उनके उद्देश्य को न्याय संगत बताते हुए उनका समर्थन किया। बरकतुल्लाह और उनके साथी लेनिन से मिलकर और सोवियत सत्ता की व्यवस्था देखकर बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने लेनिन की प्रशंसा करते हुए लिखा — “लेनिन ऐसे बहादुर इनसान हैं , जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के साथ जारशाही और उसके बाद की करेनस्की सरकार की गोपनीय संधियों , समझौतों को सबके सामने उजागर करते हुए उन्हें रद्द कर दिया। लेनिन पर लिखे अपने बहुत से लेखो में बरकतुल्लाह ने उन्हें मुसलमानों और एशियाई जनगण की मुक्ति के लिए “उगता सूर्य” बताया। बरकतुल्ला की अगुवाई में अस्थाई सरकार तथा प्रवासी हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारियो का सोवियत रूस के साथ सम्पर्क बढ़ता रहा। उन्हें सोवियत रूस से हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता संघर्ष का सीधा समर्थन निरंतर मिलता रहा।
अब बढती उम्र और लगातार की भाग-दौड़ के साथ बढते काम के दबाव के कारण मौलाना का स्वास्थ्य गिरने लगा था। लम्बे संघर्ष की निरंतर गतिशीलता ने उन्हें थकने पर मजबूर कर दिया। अपने उद्देश्यपूर्ण एवं संघर्ष पूर्ण जीवन की आखरी मंजिल तक पहुँचते हुए मौलाना ने अमेरिका जाकर अपने मित्रो से मिलने और भविष्य की रणनीतियो पर विचार – विमर्श करने का निर्णय लिया। वे 70 वर्ष से ज्यादा उम्र के हो चुके थे और उन्हें मधुमेह का रोग भी था। कैलिफोर्निया में मौलाना को सुनने के लिए भारी संख्या में हिन्दुस्तानी इकठ्ठा हुए। वे बोलने के लिए खड़े हुए, लेकिन बीमारी, बुढ़ापे और भावावेश में वे अपनी बात देर तक नही रख सके। उन्होंने महेन्द्र प्रताप से सभा को संबोधित करने की बात कही और मंच छोड़ दिया।
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चंद दिन बाद 27 सितम्बर 1927 को मौलाना के जीवन का चमकता सूरज हमेशा के लिए विलीन हो गया। उन्हें अमेरिका के मारवस्बिली क़ब्रिस्तान में दफना दिया गया। उनका अंतिम संस्कार रहमत अली. डॉ० सैयद हसन, डॉ० औरगशाह और राजा महेन्द्र प्रताप द्वारा मिलकर किया गया। मृत्यु से पहले मौलाना ने अपने साथियो से ये शब्द कहे थे — “मैं आजीवन हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए सक्रिय रहा। यह मेरे लिए ख़ुशी की बात हैं कि मेरा जीवन मेरे देश की बेहतरी के लिए इस्तेमाल हो पाया। अफ़सोस है कि हमारी कोशिशों का हमारे जीवन में कोई फल नहीं निकला। लेकिन उसी के साथ यह ख़ुशी भी है कि अब हजारो कि तादात में नौजवान देश की आज़ादी के लिए आगे आ रहे हैं, जो ईमानदार और साहसी हैं। मैं पूरे विश्वास के साथ अपने देश का भविष्य उनके हाथो में छोड़ सकता हूँ।
अब आख़िर में मुझे अली सरदार जाफरी की कुछ लाइन याद आ रही है —
हिन्दुस्तान में इक नई रूह फूँककर
आज़ादी-ए-हयात का सामान कर दिया
शेख़ और बिरहमन में बढ़ाया इत्तिहाद
गोया उन्हें दो कालिब-ओ-यकजान कर दिया
ज़ुल्मो-सितम की नाव डुबोने के वास्ते
क़तरे को आँखों-आँखों में तूफ़ान कर दिया
— सुनील दत्ता