20 सितम्बर 1927 की रात मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली की आख़िरी रात थी. इस रात अपने साथियों से अपने पूरे होशों-हवास में उन्होंने कहा था —‘तमाम ज़िन्दगी मैं पुरी ईमानदारी के साथ अपने वतन की आज़ादी के लिए जद्दोजहद करता रहा. ये मेरी ख़ुश-क़िस्मती थी कि मेरी नाचीज़ ज़िन्दगी मेरे प्यारे वतन के काम आई. आज इस ज़िन्दगी से रुख़्सत होते हुए जहां मुझे ये अफ़सोस है कि मेरी ज़िन्दगी में मेरी कोशिश कामयाब नहीं हो सकी, वहीं मुझे इस बात का भी इत्मिनान है कि मेरे बाद मेरे मुल्क को आज़ाद करने के लिए लाखों आदमी आज आगे बढ़ आए हैं, जो सच्चे हैं, बहादुर हैं और जांबाज़ हैं. मैं इत्मिनान के साथ अपने प्यारे वतन की क़िस्मत उनके हाथों में सौंप कर जा रहा हूं…’
अब मौलाना इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह कर जा चुके थे. उनके चाहने वाले का बुरा हाल था. इंतक़ाल की ख़बर बिजली की तरह पूरे अमेरिका में फैल गई. और थोड़ी देर में प्रेस एसोसिएशन ऑफ़ अमेरिका ने इस ख़बर को पूरे युरोप और एशिया में फैला दिया. जहां-जहां हिन्दुस्तानियों को ये ख़बर पहुंची, उन्होंने मौलाना के मातम में अपने कारोबार को बंद कर दिए. विदेशों में मौजूद हिन्दुस्तानियों के दिलों पर रंज व ग़म के बादल छा गए.
पांच दिन तक मौलाना को हिफ़ाज़त के साथ रखा गया ताकि उनके चाहने वाले उनका दीदार कर सकें. फिर उनके ठंडे पड़े जिस्म को एक क़ीमती संदूक़ मे बंद करके Sacramento से Maryville पहुंचाया गया. और वहां के मुस्लिम क़ब्रिस्तान में ये कहकर दफ़न कर दिया गया कि हिन्दुस्तान के आज़ाद हो जाने पर तुम्हारी ख़ाक को हिन्दुस्तान पहुंचा दिया जाएगा.
#BarkatullahBhopali (1854-1927) who dedicated his whole life to armed struggle for the liberation of his motherland from the clutches of the British, formed the ‘Government of India in Exile’ with #RajaMahendraPratap, as its President and #Barkathulla_Bhopali as the PrimeMinister pic.twitter.com/rL49W9n3nP
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) September 20, 2018
आख़िरी रस्म मौलवी रहमत अली, डॉ. सैयद हुसैन, डॉ. औरंग शाह और राजा महेन्द्र प्रताप ने मिलकर अदा की. इस तरह से एक अज़ीम इंक़लाबी अमेरिका की सरज़मीन में सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिए गए.
बताते चलें कि, भोपाल में 1854 में जन्मे अब्दुल हाफ़िज़ मोहम्मद बरकतुल्लाह उर्फ़ मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली, भोपाल के सुलेमानिया स्कूल से अरबी, फ़ारसी की माध्यमिक और उच्च शिक्षा हासिल की. फिर यहीं से हाई स्कूल तक की अंग्रेज़ी शिक्षा भी हासिल की. पढ़ाई के दौरान ही उन्हें उच्च शिक्षित अनुभवी मौलवियों, विद्वानों को मिलने और उनके विचारों को जानने का मौका मिला. पढ़ाई ख़त्म करने के बाद वह उसी स्कूल में अध्यापक हो गए. यहां काम करते हुए वो शेख़ जमालुद्दीन अफ़्ग़ानी से काफ़ी प्रभावित हुए.
शेख़ साहब सारी दुनिया के मुसलमानों में एकता व भाईचारों के लिए दुनिया का दौरा कर रहे थे. इस दौरान मौलाना बरकतुल्लाह के माँ-बाप का इंतक़ाल हो गया. अब मौलाना भोपाल छोड़ बंबई चले गए. वहां पहले खंडाला और फिर बंबई में ट्यूशन पढ़ाकर अपनी अंग्रेज़ी की पढ़ाई जारी रखी.
क़रीब चार साल बंबई में रहे. 1887 में वो आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए. वहां की चकाचौंध कर देने वाली ज़मीन पर पैर रखा तो वहां की दुनिया ने इन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया. वो लगातार सोचने लगे कि ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला मेरा देश हिन्दुस्तान गरीबी व पिछड़ापन का शिकार क्यों है.
वह सोचते थे कि हिन्दुस्तान से लेकर यहां तक एक ही मल्का विक्टोरिया का राज है तो फिर हिन्दुस्तान की हालात इतनी ख़राब क्यों और यहां के हालात इतने अच्छे कैसे? काफी चिन्तन-मनन के बाद समझ आया कि यहां की खुशहाली हिन्दुस्तान की आर्थिक लूटमार पर निर्भर है.
बस फिर क्या था. यहीं से मौलाना ने अपने देश पर ढाए जा रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ने की ठान ली. वो एक पहले अनोखे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जिन्होंने विदेशों की खाक छानकर देश को आज़ाद कराने की लड़ाई लड़ी. उनकी वीरता और निर्भीकता का इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उन्होंने लन्दन में रहकर अपने देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए क़लम उठाया. वह अग्रेज़़ों ख़िलाफ़ बहादुरी और बेबाकी से लिखते रहे.
The Afghan Mission in Kabul 1915/16
From left to right the photograph shows :- Kâzım Orbay, Werner von Hentig, Walter Röhr, #RajaMahendraPratap, Kurt Wagner, Oskar Niedermayer, Günther Voigt and #BarkatullahBhopali.
Photo © Stiftung Bibliotheca Afghanica#AzaadiKiNishaniyan pic.twitter.com/DBuSo1wrId
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) August 12, 2018
उनकी बेचैनी उन्हें जापान ले आई. यहां उन्होंने ‘अल-इस्लाम’ नाम का अख़बार निकाला, जिसमें वो आज़ादी हासिल करने के लिए जोशीले लेख लिखते थे. और फिर उस अख़बार की कापियां भारत और विदेशों में बंटवाते थे.
अब वो अंग्रेज़ों की आंखों में खटकने लगे. अंग्रेज़ी सरकार ने जापान सरकार पर उन्हें बंदी बनाने या देश से निकालने के दबाव डाला तो वो जापान छोड़कर अमेरिका चले गए. यहां भी वह भारत को आज़ाद कराने की कोशिशों में लगे रहें.
ग़ौरतलब रहे कि 1915 में तुर्की और जर्मन की सहायता से अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रही ‘ग़दर लहर’ में भाग लेने के वास्ते मौलाना अमेरिका से क़ाबुल, अफ़ग़ानिस्तान में पहुंचे. 1915 में उन्होंने मौलाना उबैदुल्ला सिंधी और राजा महेन्द्र प्रताप सिंह से मिलकर भारत की पहली आरज़ी (अस्थायी) सरकार का ऐलान कर दिया. राजा महेन्द्र प्रताप सिंह इसके पहले राष्ट्रपति थे. मौलाना बरकतुल्ला इसके पहले प्रधान मंत्री और उबैदुल्ला सिंधी इस सरकार के गृह मंत्री बने.
बताते चलें कि अंतिम दिनों में राजा महेन्द्र प्रताप हमेशा मौलाना के साथ रहे. राजा महेन्द्र प्रताप लिखते हैं कि, 1927 में मुझे मौलाना का ख़त मिला कि मैं जर्मनी आकर उनसे मिलूं. जब मैं जर्मनी पहुंचा तो मौलाना बहुत ही कमज़ोर और बीमार थे. मैं उनके क़रीब एक कमरे में ठहरा. जब हम मिले तो बातें ही बातें करते चले गए. रात भर बीते हुए दिनों, गुज़रे हुए वाक़्यात की यादें और इस क़दर कमज़ोरी और बीमारी के बावजूद फिर उसी अज़्म के साथ आगे के प्रोग्राम पर चर्चा…
जुन 1927 में मौलाना भोपाली ने अपने साथियों के बीच ये बात रखी कि एक बार फिर अमेरीका के दौरे पर चलना चाहिए और अपने पुराने साथियों से मिलकर कोई नया प्रोग्राम तय करना चाहिए. बस फिर क्या था मौलाना राजा महेन्द्र प्रताप के साथ जर्मन जहाज़ पर सवार होकर अमेरिका के लिए चल दिए.
मौलाना पूरे सफ़र में काफ़ी परेशान रहे और उनकी सेहत लगातार गिरती ही जा रही थी, पर वो अपने वतन की ख़ातिर इस इम्तिहान से गुज़र गए. अब वो न्यूयार्क पहुंच चुके थे. यहां वो राजा महेन्द्र के साथ ही होटल टाईम स्कॉयर में ठहरे. यहां हिन्दुस्तानी दोस्तों ने गर्मजोशी से इनका इस्तक़बाल किया. फिर मौलाना पूरे अमेरिका का चक्कर लगाते रहे. हर जगह लोगों ने दिल खोलकर पूरे गर्मजोशी के साथ इनका स्वागत किया.
मौलाना के बहादुरी के अनगिनत क़िस्से हैं. कभी हिन्दुस्तान एसोसिएशन ऑफ़ सेंट्रल युरोप के सदर का आख़िरी अल्फ़ाज़ कुछ इस तरह था —ये सच है कि एक अज़ीम इंक़लाबी मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली की मौत हो चुकी है, लेकिन ये भी सच है इंक़लाब ज़िन्दा है, और हमेशा ज़िन्दा ही रहेगा।