मुहम्मद दानिश
आधुनिक भारतीय इतिहास के नायकों की जब भी बात होगी मुख़्तार अहमद अंसारी का नाम एक नगीने की तरह चमकता मिलेगा। तारीख़ का चाहे जो भी पड़ाव हो आधुनिक भारत का इतिहास अंसारी साहब को याद किये बगैर नहीं लिखा जा सकता। यह सच है कि आज हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ एक ओर इतिहास को विकृत करने का अभियान जोरों पर है तो दूसरी और बाज़ार और पूंजी की संरचना ने हमें अपनी जड़ों से काटकर इतिहास, संस्कृति और विरासत से बहुत दूर कर दिया है।
ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम अपने उन युगनायकों, राष्ट्रनिर्माताओं और सच्चे अर्थों में ‘महापुरुषों’ को याद करें जिनकी पूरी जिंदगी हमारे लिए एक सबक और मिसाल है।
मुख़्तार अहमद अंसारी ऐसे ही महान शख्सियतों की परंपरा की एक मजबूत कड़ी थे। उनकी पैदाइश 25 दिसम्बर,1880 को युसुफपुर ,गाज़ीपुर (उ.प्र.) में हुई। आज ही के दिन 10 मई, 1936 को उनका देहांत हुआ।
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मुख़्तार अहमद अंसारी एक बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। मूल रूप से वे एक डॉक्टर थे लेकिन साथ ही साथ एक असाधारण जननेता, शिक्षाविद और वतनपरस्त थे। वे डॉक्टर भी कोई साधारण नहीं बल्कि एक बेहतरीन सर्जन थे।उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा, लंदन से मेडिकल डिग्री प्राप्त की। वे पहले भारतीय बने जिसका चयन ‘रेजिडेंट अफ़सर’ के रूप में हुआ।यहाँ यह जानना जरूरी है कि अंग्रेज़ों के तमाम विरोध के बावजूद अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बल पर उन्होंने यह गौरव हासिल किया था। अपने समय में xenotransplantation (जीवित उत्तक या अंगों का एक प्रजाति से दूसरे प्रजाति में प्रत्यारोपण की विधा) जैसे जटिल मेडिकल तकनीक पर उन्होंने शोध किया और The regeneration of man जैसी प्रसिद्ध किताब लिखी।
1900 से 1910 तक एक डॉक्टर के तौर पर उन्होंने अपनी सेवाएं लन्दन के विभिन्न अस्पतालों में दीं। यही उनकी मुलाकात मोतीलाल नेहरू, हकीम अजमल ख़ान और जवाहरलाल नेहरू से हुई।एक डॉक्टर के रूप में उनकी मक़बूलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस चेरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में उन्होंने अपनी सेवा दी वहां आज भी उनके सम्मान में ‘अंसारी वार्ड’ मौजूद है।
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1910 में भारत लौटने के बाद वो दिल्ली में बसे और सबसे पहले फिरंगीमहली मस्जिद, पुरानी दिल्ली के एक हिस्से में अपनी क्लिनिक खोली। यहाँ आम और ख़ास मरीज़ों की भीड़ लगातार जुटी रहती थी। ग़रीबों का इलाज वे मुफ़्त में ही किया करते थे। उनदिनों उनकी रिहाइश पुरानी दिल्ली के मोरी गेट के पास थी। उनके मकान का नाम ‘बहिश्त’ अर्थात जन्नत या स्वर्ग था। सच्चे अर्थों में वो जन्नत था क्योंकि वहां पूरे दिन लंगर चलता था कोई वहां से भूखे नहीं लौटता था। इसी ‘बहिश्त’ में 1913 में सी ऍफ़ एंड्रूज और मुहम्मद अली ने ‘दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की पीड़ा’ विषय पर जबरदस्त व्याख्यान दिया था। तुर्की की मशहूर लेखिका ख़ालिदा अबिदी उन दिनों बहिश्त में बतौर मेहमान मौजूद थीं। उस समय को याद करते हुए अपनी किताब ‘Inside india’ में उन्होंने लिखा है- “यह एक ऐतिहासिक जगह है जहाँ प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक लोग सब एक साथ मिलते हैं। जो अपने विचारों, दृष्टियों के साथ एक प्रगतिशील और खुशहाल हिंदुस्तान की रुपरेखा बनाते हैं। भावी भारत के भविष्य के निर्माण में यह घर एक मील का पत्थर साबित होगा।”
समाज को अपनी खिदमात के जरिये डॉ अंसारी लगातार एक दूसरे से जोड़ते रहे। थोड़े ही दिनो में उनकी बातों को पूरे देश में सम्मानपूर्वक सुना जाने लगा। यही वजह थी की जब बाल्कन युद्ध से त्रस्त तुर्की की मदद के लिए उन्होंने रेड क्रेसेंट सोसाइटी बनाकर कोष इकठ्ठा करना शुरू किया तो उन्हें लोगों ने खुले दिल से मदद की। क़रीब 1,18,762 रूपये उन्हें चंदे के तौर पर मिले। डॉ अंसारी यहीं से एक जननायक के तौर पर उभरने लगे।
बाद के दिनों में उन्होंने दिल्ली के दरियागंज में अपनी क्लिनिक को स्थायी रूप देने के लिए एक हवेली ख़रीदा जिसका नाम उन्होंने ‘दार-उस-सलाम’ (शांति गृह) रखा। दरियागंज में जहाँ दर-उस-सलाम था वहां की सड़क का नाम आज अंसारी रोड है। आज वहां कई प्रकाशकों के दफ्तर हैं। लेकिन कम ही लोग जानते है कि इस सड़क का नाम अंसारी रोड क्यों है और अंसारी साहब कौन थे ?
दिल्ली में वे सक्रीय तौर पर कांग्रेस से जुड़े। उनका जुड़ाव मुस्लिम लीग से भी था लेकिन मुस्लिम लीग की विभाजनकारी नीति का विरोध करते हुए उन्होंने इससे दूरी बना ली।
वे हिन्दू मुस्लिम भाईचारे के पक्षधर थे। उनकी पहल पर 1920 में दिल्ली के ओखला में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की नींव पड़ी। वे आजीवन उसके संरक्षक बने रहे। यह डॉ अंसारी की दूरदर्शिता, सूझबूझ और महानता का ही परिणाम था कि जामिया ने शुरू से ही हर तरह की कट्टरता का विरोध किया, विभाजन को ख़ारिज किया और एक ऐसे प्रगतिशील संस्थान के तौर पर उभरा जहाँ इस्लाम और राष्ट्रप्रेम का सुन्दर समन्वय दीखता है। आज जामिया में पढते हुए हर पल डॉ अंसारी के रोशन ख्याल जगह जगह हमें दिख जाते हैं चाहे वो दिवाली के समय हर जगह रौशनी में नहाता परिसर हो या होली के समय रंगो में सराबोर परिसर हो।
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आगे चलकर इस धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को इस इदारे ने और मजबूत ही किया है यहाँ एक दौर में उर्दू विभाग में डॉ गोपीचंद नारंग जैसे महान विद्वान् हुए तो ठीक उसी वक़्त हिंदी में मुजीब रिजवी। यक़ीनन जामिया की यह विविधता तब तक मुमकिन नहीं थी जब तक इसके संस्थापकों का विजन इस तरह का नहीं होता। अमीर ए जामिया रहते हुए उन्होंने डॉ अंसारी साहब ने जामिया की पहली ईंट सबसे कम उम्र के विद्यार्थी अब्दुल लतीफ़ से रखवाई। इससे पता चलता है कि वे नयी पीढ़ी के मूल्यनिर्माण और प्रशिक्षण में कितने गंभीर थे। राष्ट्रनिर्माण की हर एक कार्रवाई का गवाह जामिया खुद है जहाँ से लाखों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर गाँव से लेकर शहर और देश से लेकर विदेश तक विभिन्न क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा रहे हैं।
अपने विद्यार्थी जीवन में मद्रास में पढ़ते हुए डॉ अंसारी पहली बार 1898 में मद्रास में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए और ठीक 30वें साल मद्रास में ही 1927 के अधिवेशन में वो कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए।एक डॉक्टर को पहली बार भारतीय राजनीति में इतना प्यार, समर्थन और सम्मान मिला। कुल 17 प्रांतीय समितियों में से उन्हें 14 का समर्थन प्राप्त हुआ।
उनके अध्यक्ष चुने जाने पर हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा- “इतिहास के एक संकटपूर्ण दौर में कांग्रेस ने एक शानदार फैसला किया है। अध्यक्ष पद के लिए डॉ अंसारी से बेहतर दूसरा नहीं हो सकता था।”
उनकी लोकप्रियता का इससे बेहतर सबूत नहीं मिल सकता। यह एक ऐतिहासिक परिघटना थी एक डॉक्टर अब जननेता बन चुका था सो जरुरी था कि वो समाज की बीमारियों का इलाज अपने अंदाज में करने की पहल करे। अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ अंसारी ने जो बातें रखीं वो आज भी प्रासंगिक और काबिल-ए-गौर हैं। उन्होंने आम जन की स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को प्राथमिकता देने का आह्वान करते हुए कहा- “आज भारत की बहुत बड़ी आबादी अस्वस्थ और बीमार है। ऐसा गंदगी, मूलभूत सुविधाओं के अभाव, चिकित्सा सुविधाओं की कमी और गरीबी की वजह से है। आज हमारे देश का 60% राजस्व सैन्य सेवाओं पर देश की सुरक्षा के नाम पर खर्च होता है। लेकिन सरकार को यह ज़रूर सोचना चाहिए कि जब देश की जनता इन पीड़ादायी, कष्टप्रद स्थितियों में रहेगी तो बताइये कि सीमा की सुरक्षा कौन करेगा। हमारी असल रक्षा का प्रबंध तभी होगा जब हम इन करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य संबंधी, जीवन सम्बन्धी व्यवस्थाओं को सुनिश्चित कर सकेंगे।” उनके ये विचार आजाद हिंदुस्तान में भी एक यक्ष प्रश्न की तरह हमें मुंह चिढा रहे हैं।
डॉ अंसारी सदैव मनुष्य के भाईचारे में यकीन करते थे। उन्होंने हमेशा कहा- “कोई भी विभाजन जो नस्ल और धर्म के आधार पर किया जाता हो वह स्वार्थी और मतलबी होता है।मानवविरोधी होता है।” इन्हीं अर्थों में वे इसकी मुखालफत भी कर रहे थे।
उन्होंने खिलाफत आंदोलन से लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन तक में खुलकर भाग लिया। उनके ही भाषण के प्रभाव से पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव कांग्रेस में पारित हुआ।
डॉ अंसारी की सोच और फ़िक्र के जज़्बे को जामिया के तालिब ए इल्म आज भी अपने दिलों में सहेज कर रखते हैं। आज भी जामिया उन तमाम कट्टरपंथियों के समक्ष एक मजबूत प्रतिरोध की तरह खड़ा है जो इस देश और समाज की एकता ,मुहब्बत और साझी संस्कृति की रवायत को खत्म करना चाहते हैं।
बेशक डॉ अंसारी को खुदा ने 56 वर्ष की ही ज़िन्दगी दी लेकिन अपनी ज़िन्दगी का जो सरमाया उन्होंने हमें सौंपा है यक़ीनन उसकी गूँज और धमक हमेशा हमेशा बनी रहेगी। यूँहीं नहीं 1936 में उनकी मौत पर महात्मा गांधी ने कहा था- “शायद ही किसी की मृत्यु ने इतना विचलित और उदास किया हो जितना इसने।” वाकई ऐसे सच्चे सपूत महानायकों की कमी हमेशा खलती है।
लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।