अशोक पुनिया
भारत की आज़ादी की लड़ाई रूपी हवन में अपने प्राणों की आहुति देने वालों में महाराष्ट्र के चाफेकर भाईयों का नाम सब से पहले लिया जाता है।तीन भाईयों में सबसे बड़े दामोदर उनसे छोटे बालकृष्ण और सबसे छोटे वासुदेव थे। तीनों को ही धर्म और देशभक्ति पारिवारिक संस्कारों से मिले थे।
The #ChapekarBrothers Damodar Hari Chapekar (1870-1898), Balkrishna Hari Chapekar (1873-1899), Vasudeo Hari Chapekar (1879-1899) and Mahadev were Indian revolutionaries involved in the assassination of W. C. Rand, the British plague commissioner of Pune.#ChapekarBandhu pic.twitter.com/HK6pOvvdiL
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) April 18, 2018
22 जून, 1897 को रैंड को मौत के घाट उतार कर भारत की आज़ादी की लड़ाई में प्रथम क्रांतिकारी धमाका करने वाले चाफेकर बँधु के शिवाजी महाराज, महर्षि पटवर्धन वं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक उनके आदर्श थे। दामोदर पंत ने बंबई में रानी विक्टोरिया के पुतले पर तारकोल पोत कर, गले में जूतों की माला पहना कर अपना रोष प्रकट किया था. दामोदर का मानना था कि भांड की तरह शिवा जी की कहानी दोहराने मात्र से स्वाधीनता प्राप्त नही होने वाली हमे शिवाजी की तरह ज़ुल्म के खिलाफ़ तलवार उठानी होगी।
1896 में महाराष्ट्र में प्लेग फैला। इस रोग की भयावहता से भारतीय जनमानस अंजान था। ब्रितानिया हुकूमत ने पहले तो प्लेग फैलने की कम परवाह नहीं की, बाद में प्लेग के निवारण के नाम पर अधिकारियों को विशेष अधिकार सौंप दिए। पुणे में डब्ल्यू सी रैंड ने जनता पर ज़ुल्म ढाना शुरू कर दिया। प्लेग निवारण के नाम पर घर से पुरुषों की बेदख़ली, स्त्रियों से बलात्कार और घर के सामानों की चोरी जैसे काम गोरे सिपाहियों ने जमकर किए। जनता के लिए जिलाधिकारी रैंड प्लेग से भी भयावह हो गया। इसी बीच तिलक का बयान आया कि एक विदेशी व्यक्ति के हाथों किए जा रहे इतने ज़ुल्मों को सहन करने वाला यह शहर जीवित मनुष्यों का शहर न होकर अचेतन पत्थरों या मुर्दों का शहर होना चाहिए।
रैंडशाही की चपेट में आए भारतीयों के बहते आंसुओं, कलांत चेहरों और तिलक के बयान की हृदय भेदी ललकार ने चाफेकर बंधुओं को विचलित कर दिया। दामोदर पंत चाफेकर ने 12जून 1897 की मध्य रात्रि में रैंड की गाड़ी पर चढ़कर उसे गोली मार दी। उसके पीछे गाड़ी में आर्यस्ट आ रहा था, बालकृष्ण चाफेकर ने उसकी गाड़ी पर चढ़कर उसे भी मौत के घाट उतार दिया। इस तरह चाफेकर बंधुओं ने जनइच्छा को अपने पौरुष एवं साहस से पूरा करके भय और आतंक की बदौलत शासन कर रहे अंग्रेज़ों के दिलोदिमाग में ख़ौफ़ भर दिया। ब्रितानिया हुकूमत उनके पीछे पड़ गई. और इन की सूचना देने वाले को 20000/-रूपये ईनाम और सरकारी नौकरी के लालच ने गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंद्र द्रविड़ को गद्दार बना दिया। इन द्रविड़ भाइयों ने इनको पकड़वा दिया और बिना किसी गवाह के अंग्रेज़ लुटेरों के जजों ने इन्हे 18 अप्रैल 1898 को फांसी की सजा दे दी। लेकिन वासुदेव चाफेकर और महादेव विनायक रानाडे के साथ मिलकर 8 फ़रवरी 1899 को इन दोनों द्रविड़ भाईयों को मौत की नींद सुला दिया। लेकिन दुर्भाग्य से ये दोनों भी पकड़े गए और वासुदेव चाफेकर को 8 मई 1899 को फांसी दे दी गई और महादेव विनायक रानाडे को 10 मई 1899 को यर्वड़ा जेल में फांसी दे दी। इस प्रकार अपने जीवन-दान के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी कोई प्रतिदान की चाह नहीं रखी।
लेखक शहीद भगतसिंह ब्रिगेड समाज सुधार समिति के सदस्य हैं।