बंगाल से बिहार का पृथक्करण : सच क्या झूठ क्या

 

आधुनिक भारत ही की भांति आधुनिक बिहार के इतिहास पर भी अगर गौर करें तो कहना पड़ेगा कि आधुनिकता और राष्ट्रवाद की प्रगति के साथ-साथ समाज में व्याप्त नकारात्मक शक्तियों में भी वृद्धि होती रही। भारत में राष्ट्रवाद, सम्प्रदायवाद तथा जातिवाद का जन्म साथ-साथ हुआ। तात्पर्य यह कि हमारा राष्ट्रवाद अपनी प्रकृति में प्रतिक्रियात्मक और नकारात्मक था। साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में जैसे ही प्रगति हुई वैसे ही उनकी प्रतिगामी शक्तियों में भी इजाफा हुआ। सन् 1885 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने सांप्रदायिक विद्वेष एवं जातीय संगठनों के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। कहना होगा कि इन अंतर्विरोधों के पीछे एक तो राष्ट्रवादियों द्वारा इस्तेमाल किये गये प्रतीकों तथा सांस्कृतिक चेतना की भूमिका हो सकती है, तो दूसरी ओर साम्राज्यवाद ने राष्ट्रवादी चेतना को शिकस्त देने के लिए उन प्रतीकों तथा चेतना का दुरूपयोग किया। साम्प्रदायिक विचारधारा की प्रगति ने हिन्दुस्तान के दो टुकड़े किये वहीं ‘क्षेत्रीयतावाद’ तथा ‘भाषावाद’ ने बंगाल से बिहार को तथा पुनः बिहार से उड़ीसा को पृथक किया। शैबाल गुप्त भी लिखते हैं कि राष्ट्रवाद की प्रगति के साथ-साथ, जनता की ठोस राजनीतिक समझ के अभाव में जातिवादी, सम्प्रदायवादी, क्षेत्रीयतावादी एवं भाषाई विचारधाराओं का सहगामी स्वरूप अप्रत्याशित नहीं होता। ये शक्तियां भी साम्राज्यवादी खाद-पानी से फल-फूल रही थीं और जिसकी परिणति बिहार के बंगाल से बंटवारे के रूप में हुई। (शैबाल गुप्त, ‘इमर्जिंग पैराडाइम ऑफ रीजनल बुर्जुआ इन इंडिया’, द मेनस्ट्रीम, दिसंबर 1985, पृष्ठ 48)

उन्नीसवीं शती बिहार में कथित ‘नवजागरण’ की शती है। इस शती के अंतिम दशकों में बिहार के पत्रकारिता-जगत में कई मासिक एवं साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं का उदय हुआ। किंतु, यह कहना मुश्किल है कि ‘नवजागरण’ पहले शुरू हुआ या पत्रकारिता पहले शुरू हुई। बिहार का नवजागरण एक जटिल परिघटना है। इसने इतिहास के भिन्न कालखंड में भिन्न रूपों में अपने को अभिव्यक्त किया है। यह एक स्थापित ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद जहां अंग्रेजी साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ था वहीं बिहार में नवजागरण ब्रिटिश-बंगाली आधिपत्य/वर्चस्व के विरोधस्वरूप पैदा हुआ। दूसरी तरफ, विभिन्न जातियों के आपसी झगडों एवं संगठनों के रूप में भी इसने अपने को अभिव्यक्त करने की कोशिश की।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के आरंभिक बिहारी नेता यथा महेश नारायण, सच्चिदानन्द सिन्हा एवं अन्य सभी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति ‘सचेत’ रूप से उदासीन भाव रखते हुए बंगाल से बिहार को अलग करने के आंदोलन से गहरे जुड़े थे। बिहार के नवजागरण का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि सन् 1912 से पहले प्रतिक्रियावादी जमींदार वर्ग कांग्रेस अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन के साथ है और बंगाल से बिहार के पृथक्करण के विरोध में है जबकि प्रगतिशील मध्यवर्ग पृथक्करण के तो पक्ष में है लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उदासीन है। बल्कि कई बार यह प्रगतिशील तबका अपनी ‘राजभक्ति’ भी प्रदर्शित करता है।

हसन इमाम ने कहा कि महेश नारायण ‘बिहारी जनमत के जनक’ हैं तो सिन्हा ने उन्हें ‘बिहारी नवजागरण का जनक’ कहा। कहना न होगा कि यह नवजागरण बिहार के पृथक्करण की शक्ल में था। महेश नारायण के बड़े भाई गोविंद नारायण कलकत्ता विश्वविद्यालय में एम. ए. की डिग्री पानेवाले पहले बिहारी थे। उनके ही नेतृत्व में बिहार में सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा का आंदोलन आरंभ किया गया था और यह उन्हीं की प्रेरणा का फल था कि हिंदी का प्रवेश उस समय स्कूलों और कचहरियों में हो सका। गोविंद नारायण को नौकरी पाने के लिए विकट संघर्ष करना पड़ा था। महेश नारायण अपने भाई के कड़वे अनुभवों से बहुत प्रभावित थे। वे भूल नहीं पाये कि भाई को बिहारी होने की वजह से कितना भेदभाव झेलना पड़ा था।

बंगाल से बिहार के पृथक्करण में महेश नारायण, डा. सच्चिदानंद सिन्हा, नंदकिशोर लाल, परमेश्वर लाल, राम बहादुर कृष्ण सहाय, भगवती सहाय तथा आरा के हरवंश सहाय समेत लगभग तमाम लोग, जिनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है, जाति से कायस्थ थे और अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में उनकी जाति अग्रणी थी। सुमित सरकार ने बंगालियों के प्रभुत्त्व को चुनौती देते बिहार की कायस्थ जाति के लोगों के द्वारा पृथक बिहार हेतु आंदोलन का नेतृत्त्व करने की बात पर प्रकाश डाला है। यह अकारण नहीं था कि 1907 में महेश नारायण के निधन के बाद डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने बंगालियों के प्रभुत्व को तोड़नेवाले नेतृत्व की अगुआई की और अंततः इस जाति ने बंगाली वर्चस्व को समाप्त कर अपनी प्रभुता कायम कर ली। इस वर्ग की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा ने एक बार पुनः बिहार से उड़ीसा को अलग करने का ‘साहसिक’ कार्य किया। डा. अखिलेश कुमार ने अन्यत्र डा. सच्चिदानंद सिन्हा की उस भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास किया है जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि वे उड़ीसा के पृथक्करण के भी प्रमुख हिमायती थे। डॉक्टर अमरनाथ झा ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि बंगाल के अखबारों में डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा पर यह अभियोग लगाया गया कि उनका स्थान बंगाल के शत्रु मैकाले के समकक्ष ही है। (डॉ. विजय कुमार (संपादक), आधुनिक बिहार के सृजन का शताब्दी वर्ष, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2011, पृष्ठ 7)

आधुनिक शिक्षा प्राप्त बिहारी युवकों में अशराफ मुसलमानों के बाद कायस्थ सबसे आगे थे। इस जाति के युवकों को बेरोजगारी का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ता था। सरकारी दफ्तरों और शिक्षण संस्थानों में नौकरियां पाने में और स्कूलों-कॉलेजों में दाखिला लेने में उन्हें बंगाली युवकों से कड़ी प्रतियोगिता करनी पड़ती थी। बंगाली युवकों को कई निश्चित सुविधाजनक स्थितियां हासिल थीं। कानून और चिकित्सा के पेशों में बंगाली इस तरह जड़ जमाए हुए थे कि उनमें घुसना किसी बिहारी युवक के लिए अत्यंत कठिन था। शिक्षित बिहारी युवकों ने महसूस किया था कि अपना अलग प्रांत नहीं होगा तो उनका कोई भविष्य नहीं है। इन युवकों में अधिकतर कायस्थ थे। अतएव वे अलग बिहार प्रांत बनाने के आंदोलन में स्वाभाविक रूप से कायस्थ जाति के लोग ही आगे आए।

रोजगार एवं अवसर की तलाश की इस मध्यवर्गीय लड़ाई को सच्चिदानंद सिन्हा ने एक व्यापक आधार प्रदान करने हेतु ‘बिहारी पहचान’ एवं ‘बिहारी नवजागरण’ की बात ‘गढ़ी’। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘सिर्फ खुद बिहारियों को छोड़कर बाकी लोगों में बिहार का नाम भी लगभग अनजान था।’ आगे उन्होंने लिखा, ‘पिछली सदी के 90 के दशक के प्रारंभ में मैं जब एक छात्र के रूप में लंदन में था, तब मुझे जबरन इस ओर ध्यान दिलाया गया। तभी मैंने यह दर्दनाक और शर्मनाक खोज की कि आम बर्तानवी के लिए तो बिहार एक अनजान जगह है ही, और यहां तक कि अवकाशप्राप्त आंग्ल-भारतीयों के बहुमत के लिए भी बिहार अनजाना ही है। …मेरे लिए आज के बिहारियों को यह बताना बड़ा कठिन है कि उस वक्त मुझे और कुछ दूसरे उतने ही संवेदनशील बिहारी मित्रों को कितनी शर्मिंदगी और हीनता महसूस हुई जब हमें महसूस हुआ कि हम ऐसे लोग हैं जिनकी अपनी कोई अलग पहचान नहीं है, कोई प्रांत नहीं है जिसको वे अपना होने का दावा करें, दरअसल उनकी कोई स्थानीय वासभूमि नहीं है जिसका कोई नाम हो। यह पीड़ादायक भावना उस वक्त और टीस बन गई जब सन् 1893 में स्वदेश लौटने पर बिहार में प्रवेश करते-करते पहले ही रेलवे स्टेशन पर एक लंबे-तगड़े बिहारी सिपाही के बैज पर ‘बंगाल पुलिस’ अंकित देखा। घर लौटने की खुशियां गायब हो गईं और मन खट्टा हो गया। …पर सहसा ख्याल आया कि बिहार को एक अलग और सम्मानजनक इकाई का दर्जा दिलाने के लिए, जिसकी देश के अन्य महत्वपूर्ण प्रांतों की तरह अपनी एक अलग पहचान हो, मैं सब कुछ करने का संकल्प लूं जो करना मेरे बूते में है। एक शब्द में कहूं तो यही मेरे जीवन का मिशन बन गया और इसको हासिल करना मेरे सार्वजनिक क्रियाकलापों की प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत।’

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में बिहारियों के बीच रोजगार के अवसर की स्थिति का जायजा लेना प्रासंगिक होगा। 1883 से 1893 के बीच सिर्फ 7 बिहारी मुंसिफ बहाल हुए जिनमें महज 3 हिन्दू थे। 1893 से 1898 के बीच डिप्टी कलक्टरों और सब-डिप्टी कलक्टरों की 69 रिक्तियां भरी गईं जिसमें सिर्फ 7 बिहारी हिन्दू बहाल हुए जबकि 44 पद बंगाली हिंदुओं को मिले। कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन जो जमींदारियां थीं उनमें भी बंगाली अधिकारी ही बहाल किये जाते थे। 17 मार्च और 9 जून 1899 के ‘द बिहार टाइम्स’ ने हथुआ राज के ऐसे अधिकारियों की सूची (वेतन सहित) जारी की और इसे ‘बंगालीकरण की प्रक्रिया’ कहा। 1899 में कनीय जजों की संख्या 60 थी जिसमें सिर्फ 3 बिहारी थे। 60 जजों का मासिक वेतन 42000 रुपया था जबकि 3 बिहारी जज मात्र 1800 रुपया वेतन प्राप्त करते थे। बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में सिर्फ 3 बिहारी थे।

प्रारंभिक दौर में शिक्षा के क्षेत्र में अशराफ मुसलमान, कायस्थों की तुलना में बढ़-चढ़कर थे। इस संदर्भ में 18 जून 1888 के अंक में ‘अनीश’ नामक अखबार में प्रकाशित एक घटना का उल्लेख प्रासंगिक है। पत्र के अनुसार पटना के आयुक्त के दफ्तर में मुसलमान तथा बंगालियों ने एक संयुक्त मोर्चा कायम कर रखा था। उनका कहना था कि इस दफ्तर में सिर्फ एक बंगाली और एक मुसलमान किरानी है तथा अन्य लाला हैं, जो दूसरी जाति के लोगों की बहाली ही नहीं होने देते। बिहार के सरकारी/गैर सरकारी पदों पर बंगालियों की नियुक्ति की प्राथमिकता से मुसलमानों के पढ़े-लिखे तबके को काफी मुश्किलें आयी थीं। शायद इसीलिए इस आंदोलन में उनकी पहल कायस्थों से पहले हुई। हालांकि यह पहल बिहारी अखबारों को संरक्षण प्रदान करने की बात से हुई। 18 मई, 1874 को ‘नादिर उल अखबार’ नामक उर्दू अखबार ने सरकार की उस नीति का, जो बिहारी अखबारों के विरुद्ध विभेद करती थी, विरोध किया। अखबार ने लिखा कि जहां दूसरे प्रांतों के अखबारों की कुछ प्रतियां उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सरकार खरीदती है, वहीं बिहार से प्रकाशित होनेवाले अखबारों की उपेक्षा होती है। उसने मांग की कि बिहार से प्रकाशित अखबारों की प्रतियां भी खरीदें, जिससे इनके प्रकाशन को भी प्रोत्साहन मिल सके।

7 फरवरी 1876 को पुनः एक दूसरे उर्दू अखबार ‘मुर्ग-ए-सुलेमान’ ने ‘बिहार बिहारियों के लिए’ का नारा दिया और यह मांग रखी गई कि बिहार में बंगालियों की बजाय बिहारियों की बहाली हो, खासकर शिक्षा विभाग में, क्योंकि विद्यार्थियों को यूरोपीयन समेत गैर-बंगालियों की अपेक्षा बंगालियों की अंग्रेजी समझने में ज्यादा दिक्कतें होती हैं। उसने यह भी कहा कि सरकार को बिहारियों के विरुद्ध किसी दूसरे के प्रति अनुग्रह का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। उसका स्पष्ट रूप से कहना था कि अगर किसी पद के लिए बिहारी योग्य हों तो वह पद उन्हें ही मिलना चाहिए। कदाचित् कोई योग्य बिहारी नहीं मिल सके तो किसी दूसरे भारतीय की नियुक्ति होनी चाहिए। 22 जनवरी, 1877 को ‘कासिद’ नामक अखबार ने बिहार को पृथक करने के पक्ष में तथ्य और तर्क उपस्थित करने की कोशिश की। उसकी दलील थी कि बंगाल और बिहार का एक ही प्रान्त में होना नुकसानदेह तथा अस्वाभाविक है, क्योंकि दोनों की परंपराएं और रीति-रिवाज जुदा हैं। (चितरंजन चौधरी, बिहार विधान परिषद का इतिहास, पृष्ठ 9) 1881 में अंग्रेजों को ‘बिहार बिहारियों के लिए’ नारे में कुछ सार समझ आया और बंगाल के गवर्नर आशले ईडन ने बिहार की कुछ नौकरियों को बिहारियों के लिए ही आरक्षित करने का आदेश निर्गत किया जिसका मुखर विरोध संभ्रांत बंगालियों के प्रतिनिधि अखबार ‘सहचार’ (17 जनवरी, 1881) ने किया फलतः सर्कुलर वापस ले लिया गया। ‘बिहार बिहारियों के लिए’ नारा आगे चलकर आंदोलन तब बना जब 1894 ईस्वी में ‘द बिहार टाइम्स’ का प्रकाशन शुरू हुआ। साल पूरा होते-होते इस अखबार को ‘बिहारी जनमत का मान्यता प्राप्त प्रवक्ता’ होने की हैसियत प्राप्त हो गई। सच्चिदानंद सिन्हा के शब्दों में, ‘कहा जा सकता है कि इस अखबार का जन्मदिन बिहार में नवजागरण की शुरुआत है।’

यह आंदोलन विशुद्ध रूप से आधुनिक शिक्षा प्राप्त मध्यम वर्ग का था जिन्हें नौकरियों में बंगालियों के साथ कड़ी प्रतियोगिता करनी पड़ती थी। इस बँटवारे से कृषि अर्थव्यवस्था से जुड़े किसानों, मजदूरों और यहाँ तक कि जमींदारों का भी कोई खास सरोकार न था क्योंकि पृथक होने से जमींदारों एवं धनी किसानों की आर्थिक समृद्धि में जायदाद के बँटवारे और बिखराव के कारण उनकी हैसियत में स्वाभाविक तौर पर ह्रास पैदा होता है, अतः वे मूलतः किसी प्रकार के बँटवारे के पक्षधर नहीं हो सकते। इन तथ्यों की पुष्टि इस बात से भी होती है कि कालांतर में जब उड़िया लोगों की माँगों के अनुरूप ब्रिटिश सरकार ने मद्रास, बंगाल, केन्द्रीय प्रान्त तथा बिहार के इलाकों को काटकर पृथक उड़ीसा प्रांत बनाने का निश्चय किया तो अपनी जागीरें बचाने के उद्देश्य से बिहार को छोड़ शेष प्रांतों ने इसका विरोध किया। ऐसे भी, बँटवारे का जो मनोविज्ञान है, उसके अनुसार कृषि-कर्मों से जुडे़ लोग इसके पक्ष में नहीं होते हैं क्योंकि इससे उनकी जमीन का रकबा कम होता जाता है और कृषि कर्म हेतु आदमियों की भी कमी होती जाती है। प्रसंगवश, एक अलग प्रांत के रूप में बिहार के सृजन से दरभंगा महाराज भी खुश नहीं थे। 19 दिसंबर, 1911 के अंक में ‘द नायक’ ने लिखा है, “Maharajah of Darbhanga did not take the separation of Bihar from Bengal in good sense, for he was the Raja of Mithila, the Mithila’s connection with Bengal was very intimate and the disruption of this connection could not be pleasing to the Maharajah.”

1912 तक बिहारी मध्यवर्ग ने सुनियोजित तरीके से अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यक्रम से अपने को न केवल अलग रखा बल्कि अंग्रेजी राज के प्रति अपनी ‘भक्ति’ भी प्रदर्शित की। 11 अगस्त, 1908 को लेफ्टिनेंट गवर्नर के बांकीपुर आगमन के अवसर पर 6000 लोगों के हस्ताक्षर वाला मेनिफेस्टो का समर्पण किया गया, जिसमें बंगाल विभाजन से उत्पन्न अव्यवस्था के दौर में बिहारवासियों की ‘शांति’ एवं ‘न्यायपूर्ण शासन’ में विश्वास की अभिव्यक्ति थी। पुनः जब फ्रेजर इंगलैंड लौटने लगे तो उनके कार्यकाल को बढ़ाने के लिए बिहार के हिन्दू-मुसलमानों ने एक हस्ताक्षर अभियान शुरु किया। 14 अगस्त 1908 को ‘बिहार लैण्ड होल्डर्स ऐसोसिएशन’, ‘बिहार प्रांतीय संघ’, ‘बिहार प्रांतीय मुस्लिम लीग’ आदि की तरफ से एक संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल को यह आवेदन दिया, जिसमें यह स्पष्ट कर दिया गया कि उपर्युक्त अभिवेदन ‘नम्र’ तथा ‘वफादार’ होने के साथ-साथ धर्म, जाति, वर्ग तथा समुदाय निरपेक्ष है।

अंग्रेजी सरकार को भी समझ में आ रही थी कि यदि बिहार को स्वतंत्र प्रांत का रूप नहीं दिया गया तो क्षोभ की लहर विद्रोह तथा राष्ट्रीय आंदोलन की चिंगारी में परिणत हो जायगी। यदि ऐसा नहीं किया गया तो विद्रोही बंगाल के साथ रहते-रहते बिहार में भी राष्ट्रीय आंदोलन की लहर तेज हो जायगी। अतः इन खतरों तथा बिहारी मध्य वर्ग की ‘राजभक्ति’ को ध्यान में रखकर ब्रिटिश सरकार ने बिहार को पृथक प्रांत बनाने का निर्णय लिया। अतः अगस्त, 1911 में सरकार ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को लिखा कि ‘बिहार के लोग अत्यंत ही बलिष्ठ तथा ‘‘राजभक्त’’ हैं तथा वे बंगाल से पृथक होना चाहते हैं। बंगाल के विभाजन के समय बिहार के लोगों ने बिहार को पृथक करने के लिए ‘‘जान बूझकर’’ आंदोलन नहीं शुरू किया था, क्योंकि वे सरकार के विरोध में बंगालियों का साथ नहीं देना चाहते थे। हाल के वर्षों में बिहार में बड़ा जागरण हुआ है तथा उनको विश्वास हो गया है कि जबतक बिहार को बंगाल से पृथक नहीं कर दिया जाता तब तक उनका विकास नहीं होगा। अतः बंगाल से बिहार को पृथक कर अब उनकी ‘चिरलंबित मांग’ तथा ‘अच्छे ध्येय’ को पूर्ण करने का अवसर आ गया है।’ इस पत्र का इंगलैंड में अच्छा प्रभाव हुआ तथा इसकी स्वीकृति मिल गई। 12 दिसंबर, 1911 के दिल्ली दरबार से सरकार ने यह घोषणा की कि बिहार, उड़ीसा तथा छोटानागपुर को बंगाल से पृथक किया जाता है। 22 मार्च 1912 को इसकी अधिसूचना भी निकाल दी गई और 1 अप्रैल 1912 से भारत के मानचित्र पर बिहार नामक एक पृथक प्रांत अस्तित्व में आ गया।

संक्षेप में, ‘बिहार में बंगाली-बिहारी समस्या का प्रारंभ केवल बिहारी तथा बिहार में बसे हुए इन बंगालियों के अर्थात मध्यवित श्रेणी के आपसी झगड़े से उद्भूत है. यह झगड़ा केवल नौकरियों तथा टुकड़ों का झगड़ा है, जनता से इसका कोई सम्बन्ध नहीं, किन्तु मध्यम श्रेणी के पढ़े-लिखे गुलामी के लिए लालायित बंगाली और बिहारी दूसरी श्रेणियों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए कैसे-कैसे नारे देते रहे हैं, कैसी बेशर्मी से बिहार और बंगाल की संस्कृति की कसमें खाते रहे हैं, यह देखने की बात है.’ (मन्मथनाथ गुप्त, भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन का इतिहास, पृष्ठ 143-44) बंगाल से बिहार को अलग किये जाने की घटना को ‘बिहार की जनता की जीत’ एवं ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ के रूप में देखा जाता रहा है जो इतिहास का मिथकीकरण है. ध्यान रहे कि बंगाल से बिहार के पृथक्करण के आन्दोलन में जनता की ओर से कोई भागीदारी नहीं निभायी गई. यह विशुद्ध रूप से उच्च मध्य वर्ग का आन्दोलन था जो आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर सरकारी नौकरियों की तलाश कर रहे थे. कहना होगा कि सरकारी नौकरियों में उन दिनों बंगालियों का एकाधिकार था, क्योंकि आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने में उनकी अग्रणी भूमिका थी. अतएव बिहार की नई जमात को मुश्किल का सामना करना पड़ रहा था. बंगाल से बिहार का पृथक्करण रोजगार के अवसर की तलाश था, न कि ‘बिहारी अस्मिता’ की तलाश-जैसा इन दिनों ‘सरकारी बुद्धिजीवी’ प्रचारित कर रहे हैं.

पृथक प्रांतों की मांग के पीछे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं पर एक साथ विचार करते हुए हिंदी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने दिसंबर 1932 में ‘नये-नये सूबों की सनक’ शीर्षक से एक लेख (प्रेमचंद के विचार, भाग 1 में संकलित) प्रकाशित किया था जिसमें स्पष्ट तौर पर उन तथ्यों को रेखांकित किया गया है जो प्रान्तों के पृथक्करण के कारण तथा परिणाम पर एक मुकम्मल टिप्पणी है। प्रेमचंद के शब्दों में, “इधर कुछ दिनों से फिर प्रांतीयता का भाव जोर पकड़ने लगा है। कहीं प्रतिद्वंदिता के वशीभूत होकर, कहीं निकट स्वार्थ के कारण और कहीं ऐतिहासिक आधार पर नये-नये सूबे की मांग की जा रही है। बिहार और सीमाप्रांत को पृथक हुए अर्सा हुआ, अब सिंध और उड़ीसा पृथक होने के लिए जोर मार रहे हैं। आंध्र प्रान्त भी पृथक होना चाहता है। दिल्ली से भी पृथक प्रान्त बनाये जाने का आंदोलन शुरू हो गया है।” पृथक प्रान्त का मनोविज्ञान उन्हीं के शब्दों में, “नये-नये प्रान्तों से नये-नये नगरों का विकास होता है, काउंसिलों में ज्यादा आदमियों के लिए जगह निकल आती है तथा नये हाईकोर्ट में ज्यादा वकीलों की खपत हो सकती है।”

अप्रैल 1912 को बंगाल के पुनर्गठन से देश के नक्शे में बिहार की अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनी। बिहारी उच्च मध्यवर्ग की यह पहली ‘राजनीतिक’ सफलता थी। ऐसा भी नहीं था कि बिहार को बंगाल से अलग कर दिये जाने के बाद बिहारियों की कायापलट हो गई। बिहार के सृजन के समय भारत सरकार के अफसरों में बिहार के ब्राह्मणों की संख्या 77, कायस्थों की 64, राजपूतों की 7, वैश्यों और यादवों की 5-5 और बाभनों तथा कोइरियों की 3-3 थी। वकीलों एवं लॉ एजेंटों के बीच भी अन्य सभी जातियों की संख्या 639 थी जबकि कायस्थ अकेले 1, 289 थे। ज्ञातव्य है कि उन दिनों राजनीतिज्ञों की सबसे अधिक आमद इसी पेशे से थी। अतएव बंगाली वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष की बागडोर कायस्थों (और उनके साथ अशराफ मुसलमानों) के हाथों में थी। बीसवीं शताब्दी का आरंभिक तीन दशक बिहारी कायस्थों का ‘स्वर्णकाल’ माना जाता है। 1921 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के 52 फीसदी सदस्य इसी जाति से थे। इसलिए यह कहना ज्यादा सच होगा कि जनता ने नहीं, मुसलमानों और कायस्थों के मध्य वर्ग ने बनाया अलग बिहार.

21 अगस्त, 1931 को बिहार विधान परिषद में स्वयंबर दास के प्रस्ताव पर बोलते हुए श्री दारोगा प्रसाद राय ने ‘रिजर्वेशन’ के विरुद्ध ‘फ्री कम्पटीशन’ का पाठ पढ़ानेवाले को जो कुछ कहा था, वह बंगाल से बिहार को अलग किये जाने की मांग को लेकर चले आंदोलन की राजनीति को समझने के लिए आवश्यक है। उन्होंने कहा : “आज जो लोग कहते हैं कि रिजर्वेशन की बात करने से जातीयता का नंगा नाच होता है, उनका ध्यान हम बिहार के पिछले तीस वर्षों के इतिहास की ओर ले जाना चाहते हैं। आज जो लोग फ्री कम्पटीशन की बात करते हैं, उनसे हम एक सवाल पूछना चाहते हैं। जब मुट्ठी भर बंगाली बिहार में थे, जो इंटेलेक्चुअली बहुत एडवांस्ड थे, फार सुपीरियर थे, जब उनके साथ फ्री कम्पटीशन में बिहारी लोग नहीं आ सकते थे, उस वक्त आपने यह नारा उठाया कि बिहार को बंगाल से सेपरेट होना चाहिए। उसके बाद धीरे-धीरे बंगाली बिहार से आउट हो गए। उसके बाद सर्विसेज में एक दूसरा कम्युनिटी आ गए, जिनका नाम हम यहाँ नहीं लेना चाहते हैं। मगर माइनॉरिटी होने के कारण वे भी आउट हो गए और दूसरा मेजॉरिटी कम्युनिटी ने उस स्थान को ग्रहण किया। तो पिछले तीस वर्ष में आपने जो भावना फैलाई उसका तो यह रिफ्लेक्शन है।” (प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकांत, बिहार में सामाजिक परिवर्तन, विद्या विहार, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2010, पृष्ठ 86)