गंगा जमुनी तहज़ीब के माथे का झूमर- फिराक़ गोरखपुरी

सरज़मीन-ए-हिन्द पे अक़वाम-ए-आलम के फिराक़
क़ाफ़िले आते गये हिन्दोस्तां बनता गया

फिराक़ गोरखपुरी अपने इस शेर में हिंदुस्तान की हज़ारों बरस पुरानी गंगा जमुनी तहज़ीब की सुन्दरता को बयान करते हुये फ़रमाते हैं कि हिंदुस्तान किसी एक धर्म, किसी एक जाति, किसी एक बिरादरी, किसी एक सोच, किसी एक भाषा के लोगों का स्थान नहीं हैं बल्कि हिंदुस्तान विभिन्न धर्मों, विभिन्न जातियों, विभिन्न बिरादरी, विभिन्न सोच, विभिन्न भाषाओं के इंसानों का संगम है| अनेक तहज़ीबों के इस संगम को गंगा जमुनी तहज़ीब कहते हैं, दूसरे शब्दों में इसे अनेकता में एकता भी कहा जाता है, जो हमारे मुल्क हिंदुस्तान की ख़ूबसूरती है और फिराक़ गोरखपुरी इस ख़ूबसूरत तहज़ीब के माथे का झूमर हैं|

रह-ए-सुखन में बचा के नज़रें हर एक की मैं जिधर से गुज़रा
सदा लगी हर तरफ से आने फिराक़ साहब फिराक़ साहब

फिराक़ साहब 28 अगस्त 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में पैदा हुये| उनका असली नाम रघुपति सहाय था लेकिन साहित्यिक जगत में फिराक़ गोरखपुरी के नाम से प्रसिद्धि मिली|

फिराक़ ने प्रारम्भिक शिक्षा गोरखपुर में प्राप्त की| अपनी अनथक मेहनत और ज़बरदस्त क़ाबिलियत के बलबूते पर पी.सी.एस और आई.सी.एस में सफलता हासिल की लेकिन महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन के समर्थन में इस्तीफा दे दिया और उसके बाद इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाने लगे|

ऐ अहल-ए-अदब आओ जागीर संभालो
मैं ममलिकत-ए-लौह-ओ-क़लम बांट रहा हूँ

फिराक़ के हवाले से मजनूँ गोरखपुरी फरमाते हैं कि “फिराक़ की शायरी न सिर्फ उर्दू अदब बल्कि सारे देश और कौम के लिए सराहना और प्रशंसा की पात्र है, फिराक़ जैसी महान शख्सियतें रोज़ रोज़ नहीं पैदा होतीं”

सह्ल तू ने फिराक़ को जाना
ऐसे सदियों में होते हैं पैदा

फिराक़ ने अपनी गज़लों में उर्दू शायरी के रवायती विषयों जैसे हुस्न और इश्क, हिज्र और विसाल में नया रंग पैदा किया है| यह फिराक़ का ही कारनामा है कि फ़ानी, जोश, यगाना जैसे शायरों की मौजूदगी में अपनी अलग शिनाख्त स्थापित की|

शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं

कोई समझे तो ऐक बात कहूँ
इश्क तौफ़ीक है गुनाह नहीं

इक उम्र कट गई है तेरे इंतिज़ार में
ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात

ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त!
तेरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई

फिराक़ ने न सिर्फ हिंदुस्तानी साहित्य को पढ़ा बल्कि अंतर्राष्ट्रिय साहित्य पर भी उनकी गहरी नज़र थी| बीसवीं सदी में होने वाले अधिकतर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के वो चश्मदीद गवाह भी थे, जिसे उनकी शायरी में महसूस किया जा सकता है

इस दौर में ज़िन्दगी बशर की
बीमार की रात हो गयी है

मौत का कुछ इलाज हो शायद
ज़िन्दगी का कुछ इलाज नहीं

फिराक़ साहब उर्दू के पहले शायर हैं जिन्हें ज्ञानपीठ अवार्ड से नवाज़ा गया| फिराक़ को अपनी शायरी और शख्सियत की महानता का अन्दाज़ा अपनी ज़िन्दगी में ही हो गया था, इसीलिये वो ऐसा दावा कर रहे थे|

आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा है
– फिराक़_गोरखपुरी