आधुनिक भारत में शिक्षा, विदेश-यात्रा और जाति-बिरादरी

 

19वीं शताब्दी का भारत नवजागरण का है। इस नवजागरण में विदेशी शिक्षा का प्रमुख हाथ था। इसलिए उन दिनों विलायत जाने वालों को लेकर एक प्रबल आंदोलन उठ खड़ा हुआ था। समाज के कट्टर और रूढ़िवादी लोग विदेश-यात्रा के विरोधी थे। भारतेन्दु हिन्दी के और नवजागरण के प्रतिनिधि लेखक थे इसलिए वे विदेश यात्रा के पक्षधर थे। उनकी रचनाओं में भी यह पक्षधरता दिखती है। (रामविलास शर्मा, भारतेन्दु युग और हिन्दी भाषा की विकास-परम्परा, राजकमल प्रकाशन, 1975, पृष्ठ 40) भारतेन्दु ने ‘विदेश-यात्रा-विचार’ लिखकर विदेश-यात्रा को अपना समर्थन दिया था। (बनारसीदास चतुर्वेदी, संस्मरण, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, 1952, पृष्ठ 34)

मोहनदास करमचंद गांधी की लालसा डॉक्टरी पढ़ने की थी किन्तु उनकी यह मुराद पूरी न हो सकी क्योंकि यह उनके पिता को पसंद नहीं थी। उनकी राय थी कि ‘वैष्णवों को हाड़-मांस नोचने का काम नहीं करना चाहिए’। (गाँधीजी, आत्मकथा, सस्ता साहित्य मंडल, 1984, पृष्ठ 46)

पुनः 1887 में जब मोहनदास मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास कर आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड रवाना होने लगे तो बिरादरी के लोगों में ‘खलबली’ मच गई। मोहनदास को बिरादरी-पंचायत में हाजिर होने का हुक्म हुआ। बिरादरी के सरपंच (जिनसे दूर की कोई रिश्तेदारी भी थी) ने उनसे कहा, ‘बिरादरी समझती है कि तुम्हारा विलायत जाने का विचार ठीक नहीं है। हमारे धर्म में समुद्र-यात्रा की मनाही है। फिर, हम यह भी सुनते हैं कि विलायत में धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। वहां साहबों के साथ खाना-पीना पड़ता है।’ (आत्मकथा, पृष्ठ 49) बिरादरी की बात अनसुनी करने पर मुखिया ने अपना फैसला सुनाया-‘यह लड़का आज से बिरादरी से बाहर माना जायगा। जो कोई इसे मदद देगा या बिदा करने जायगा, बिरादरी उससे जवाब तलब करेगी और उसपर सवा रुपया जुर्माना होगा।’ (वही, पृष्ठ 50)

मोहनदास के विलायत से लौट आने तक बिरादरी में जाति-बहिष्कार का मसला जीवित था। बिरादरी दो दल में बंट चुकी थी। एक पक्ष के लोगों ने मोहनदास की बिरादरी-वापसी का स्वागत किया। ‘बिरादरी में मिलनेवाले पक्ष के संतोष के लिए राजकोट ले जाने के पहले भाई मुझे नासिक ले गये। वहां गंगास्नान कराया और राजकोट पहुँचकर बिरादरी-भोज किया।’ (वही, पृष्ठ 95)

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में विलायत से पढ़कर लौटनेवाले प्रथम बिहारी कायस्थ (दूसरे पढ़ते ही कहाँ थे!) मि. सच्चिदानंद सिन्हा थे। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित लोकरीति ‘प्रायश्चित्त-भोज’ करके फिर पुराने तरीके से जाति के बंधन को मानना स्वीकार नहीं किया था जिससे वह जाति में नहीं लिये गये थे। (डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, आत्मकथा, सस्ता साहित्य मंडल, 2002, पृष्ठ 81) कहने की आवश्यकता नहीं कि मि. सिन्हा के लौटने के दस वर्षों बाद तक किसी की हिम्मत उस बंधन को तोड़कर विदेश जाने की नहीं हुई थी। (वही, पृष्ठ 81)

मि. सिन्हा के बाद सन 1904 में डॉक्टर गणेशप्रसाद विलायत से पढ़कर लौट रहे थे। उनके लौटने की खबर ही से आंदोलन का माहौल बन गया। डॉक्टर गणेशप्रसाद के पहुंचने से पहले ही लिखा-पढ़ी करके तय हो चुका था कि वह जाति-बंधन को मानेंगे। (वही, पृष्ठ 81) सुधारक दल के नेता बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद ने कुछ लोगों को तैयार किया था कि डॉक्टर गणेश के घर चलकर भोज में शरीक होना चाहिए। बलिया में भोज का दिन मुकर्रर हुआ। भोज में शामिल होनेवाले छपरा के बीस-इक्कीस लोगों में राजेन्द्र प्रसाद भी दोनों भाई थे। जिन लोगों ने भोज में शिरकत की थी, उनके नाम अखबारों में छपे और छपरे में यह मांग जोर पकड़ने लगी कि वैसे लोग जाति-बहिष्कृत कर दिये जायँ। (वही, पृष्ठ 83) समुद्र-यात्रा के विरुद्ध काशी से महामहोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री की व्यवस्था मंगाई गई। जिले के कायस्थों का सम्मेलन हुआ कि और प्रस्ताव पास किया गया कि ‘जितने लोगों ने भोज खाया था, वे जाति-च्युत किये गये’। (वही, पृष्ठ 85) उनके साथ खान-पान, शादी-विवाह सब बन्द कर दिया गया। राजेन्द्र प्रसाद के पिताजी ने तो गाँव-बिरादरी के लोगों को भोज खिला प्रायश्चित्त कर लिया उन्हीं के ग्रामीण जमुनाप्रसाद और गंगाप्रसाद, जो बलिया भोज में शरीक हुए थे, काफी कष्ट उठाना पड़ा। छपरे में “उनके ‘मेस’ के लड़के उनका छुआ हुआ नहीं लेते थे-उनके साथ खान-पान भी नहीं करते थे। ब्राह्मण रसोई बनाकर उनके बर्तन में अलग से भोजन दे देता। उन्होंने इस अपमान को ‘खुशी-खुशी’ बर्दाश्त किया।” (वही, पृष्ठ 87)

1907 ईस्वी में गया के बाबू परमेश्वरलाल कायस्थ अम्बष्ट विलायत जाकर तीन साल बाद घर लौटे। “उनके शुभागमन से कायस्थ समाज में शंका उठने लगी कि उनके साथ समाज को कैसा व्यवहार करना चाहिये।” (रामविलास शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 268) इसका फैसला करने के लिए काशी और मिथिला के पंडितों की एक सभा हुई। उस सभा ने जो व्यवस्था दी, उसे कुछ अन्य सामग्री के साथ 1908 ईस्वी में राय हरप्रसाद लाल ने प्रकाशित किया। व्यवस्था का सारांश है : “ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सच्छूद्र इनमें कोई विलायत जाय व वहाँ रह कर फिर अपने देश में प्रायश्चित करे तो भी वह अपने जाति के व्यवहार में ग्रहण करने योग्य नहीं हो सकता।” (रामविलास शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 269 में उद्धृत)

30 अगस्त, 1910 ईस्वी को बनारस के टाउन-हॉल में विलायत से लौटे लोगों को जाति में लेने के लिए एक सभा आयोजित हुई थी जिसके सभापति पंडित सुधाकर द्विवेदी थे। उन्होंने धर्मशास्त्र को छोड़कर परम्परा का उदाहरण देते हुए कहा : “प्राचीन समय से विदेश-यात्रा की प्रथा आती है। जब राजा लोग राजसूय यज्ञ करते थे तब दिग्विजय के हेतु सभी देशों में जाना पड़ता था, क्या वे अयोध्या का जल साथ ले जाया करते थे।” (रामविलास शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 40 में उद्धृत)

राजेंद्र प्रसाद जब अपनी पढ़ाई के सिलसिले में कलकत्ता पहुंचे-“जाति-पांति का झगड़ा इतना साथ लेते गये थे कि हिन्दू होस्टल में हमने अपने लिए अलग चौका रखा था, जिसमें बिहारी ब्राह्मण रसोई बनाता था। यद्यपि मैं डाक्टर गणेश प्रसाद के साथ भोज में शरीक हुआ था, तथापि जाति का बंधन बहुत मानता था। वह तो मेरी अपनी जाति के आदमी (कायस्थ) थे; किसी भी दूसरी जाति के आदमी का छुआ हुआ कोई अन्न, जो अपने देश (बिहार) में नहीं खाया जाता है, वहां नहीं खाया। इतने दिनों तक वहां रहा, मगर बंगाली ‘मेस’ में कच्ची रसोई एक दिन भी नहीं खाई।” (आत्मकथा, पृष्ठ 100)

काशी प्रसाद जायसवाल अपनी पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाते समय ब्राह्मण रसोइया भी साथ लेते गये थे। जब तक वहां रहे, खाने-पीने का सामान भारत ही से जाता रहा। इसमें ईंधन के लिए कोयला भी शामिल समझिए! (‘हिन्दू पॉलिटी’ में गदाधर प्रसाद अम्बष्ठ की भूमिका देखें)