श्री कृष्ण से मुहब्बत करने वाले महान स्वतन्त्रता सेनानी मौलाना हसरत मोहानी!

 

Shubhneet Kaushik

1924 में जब हसरत मोहानी तीसरी बार जेल में ढाई साल बिताने के बाद रिहा हुए, तो गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ में लिखा : ‘हसरत मोहानी देश की उन पाक-हस्तियों में से एक हैं जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए, क़ौमियत के भाव की तरक़्क़ी के लिए, अत्याचारों को मिटा देने के लिए, हर प्रकार से अन्यायों का विरोध करने के लिए, जन्म-भर कठिनाइयों और विपत्तियों के साथ घोर से घोरतम संग्राम किया।’
18 अगस्त 1924 को प्रकाशित इस मर्मस्पर्शी टिप्पणी में विद्यार्थीजी ने आगे लिखा ‘इस कठिन समय में जब हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन नापने में अपना बल और पुरुषार्थ दिखा रहे हैं, मौलाना का हमारे बीच में आ जाना, बहुत संभव है, देश के लिए बहुत हितकर सिद्ध हो।’

ये वही हसरत मोहानी थे, जिन्होंने ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया, जिन्होंने पहले-पहल देश में मुकम्मल आज़ादी (‘पूर्ण स्वाधीनता’) की मांग उठाई, जो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। कानपुर में 1925 में हुई कम्युनिस्ट पार्टी के पहले अधिवेशन के स्वागत समिति के अध्यक्ष रहे मोहानी ने अपने बारे में ठीक कहा है :

दरवेशी-ओ-इंक़लाब मसलक है मेरा
सूफ़ी मोमिन हूँ, इश्तिराकी मुस्लिम

महज 22 साल की उम्र में हसरत मोहानी ने 1903 में अलीगढ़ से ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ पत्रिका निकालनी शुरू की। अगले वर्ष मोहानी कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में भी शामिल हुए। मोहानी ने ‘तज़किरात-उल-शुअरा’ और ‘मुस्तक़बिल’ सरीखी पत्रिकाएँ प्रकाशित की और ‘दीवान-ए-शेफ़्ता’ व ‘इंतख़ाब-ए-मीर हसन’ का भी सम्पादन किया। वे तरक़्क़ीपसंद तहरीक से भी जुड़े और 1936 में लखनऊ में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन में शामिल हुए, जिसकी सदारत प्रेमचंद ने की।

वहाँ अपने भाषण में मोहानी ने ज़ोर देकर कहा ‘हमारे साहित्य में आज़ादी के आंदोलन का प्रतिबिंबन होना चाहिए। इसे सामराजियों और जुल्म करने वाले अमीरों का विरोध करना चाहिए। इसे मज़दूरों और किसानों और तमाम पीड़ित इंसानों का पक्षधर होना चाहिए। इसमें अवाम के सुख-दुख, उनकी आकांक्षाओं और इच्छाओं को इस तरह व्यक्त किया जाना चाहिए कि वे संगठित होकर क्रांतिकारी संघर्ष को कामयाब बना सकें।’

बतौर शायर हसरत मोहानी को ‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है’ सरीखी प्रसिद्ध गज़लों के लिए जाना जाता है। उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा भगवान कृष्ण को समर्पित है। उनकी शायरी के इस पक्ष पर प्रसिद्ध विद्वान सीएम नईम ने एक बेहतरीन लेख लिखा है, जिसका शीर्षक है “द मौलाना हू लव्ड कृष्ण’।

सितंबर 1923 में जब जन्माष्टमी के अवसर पर हसरत मोहानी मथुरा न जा सके उन्होंने कृष्ण से विनती करते हुए लिखा :

‘हसरत’ की भी कुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज

अगले महीने उन्होंने फिर से कृष्ण के बारे में लिखा :

मन तोसे प्रीत लगाई कन्हाई
काहू और की सूरती अब काहे को आई
तन मन धन सब वार के हसरत
मथुरा नगर चली धूनी रमाई

नवंबर 1934 में हसरत मोहानी ने बरसाना-नंदगांव की यात्रा के बाद लिखा-

बरसाना नंदगांव में भी
देख आए हैं जलवा हम किसी का
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
हर नगमा-ए-कृष्ण बांसुरी का

teamht http://HeritageTimes.in

Official Desk of Heritage Times Hindi