अजमेर मे नात का मुशायरा था, लिस्ट बनाने वालों के सामने मुशकिल ये थी के “जिगर मुरादाबादी” साहब को इस मुशायरा मे कैसे बुलाया जाए ? वो खुले शराबी थे और नात के मुशायरे मे इनकी शिरकत मुमकिन न थी। अगर लिस्ट मे इनका नाम न रखा जाए तो फिर मुशायरा ही क्या हुआ ? इंतज़ामीया मे ज़बरदस्त इख़्तलाफ़ था, कोई बुलाने के फ़ेवर मे था कोइ नहीं।
जिगर का मामला था ही ऐसा बड़े बड़े उलमा इनकी शराबनोशी के बाद भी इनसे मोहब्बत करते थे, इन्हें गुनहगार समझते थे लेकिन लायक़ इसलाह भी, शरीयत की ज़बरदस्त पाबंद मौलवी हज़रात भी इनसे नफ़रत के बजाए अफ़सोस करते के कैसा अच्छा आदमी इस बुराई का शिकार हो गया ? अवाम के लिये अच्छे शायर थे लेकिन थे शराबी! तमाम रियायत के बाद भी मौलवी हज़रात और अवाम ये इजाज़त नहीं दे सकते थे कि जिगर एक नात के मुशायरे मे शरीक हों।
#JigarMoradabadi (6 April 1890– 9 September 1960), was an Urdu poet and ghazal writer. He received the Sahitya Akademi Award Award in 1958 for his poetry collection "Atish-e-Gul", and was the 2nd poet (after Iqbal) to be awarded an honorary D.Litt. by the #AligarhMuslimUniversity pic.twitter.com/m6RrTZbgKO
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) September 7, 2018
बहुत सोचने के बाद जिगर को बुलाने का फ़ैसला कर लिया गया, जिगर को जब बुलाया गया तो वो सर से पैर तक काँप गये, मैं शराबी, आवारा, बद बख़्त और मुशायरा नात का ? पहले तो वो तैयार नहीं हुये, बड़ी मुश्किल से तैयार किया गया, सिराहने बोतल रखी थी, जिगर ने उसे कहीं छुपा दिया और दोस्तों से कह दिया कि मेरे सामने शराब का नाम भी न लिया जाए।
वो बेसाख़्ता शराब की तरफ़ दौड़ते फिर रुक जाते, मुझे नात लिखनी है अगर हल्क से एक बुंद भी शराब उतर गया तो किस तरह अपने नबी(स.अ.) की तारीफ़ लिखुंगा ? एक दिन गुज़रा, दो दिन गुज़रा वो नात का मज़मून सोचते और ग़ज़ल कहने लगते, सोचते रहे, लिखते रहे, काटते रहे, और आख़िर नात का मतलअ लिखा गया फिर एक शेर हुआ, फिर दुजा और धीरे धीरे नात मुकम्मल हो गया।
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अजमेर के लिये रवाना हुये, शराब को हाथ भी नहीं लगाया था। दुसरी तरफ़ मुशायरा की जगह पर पोस्टर लगे पड़े थे कि एक शराबी से नात क्यों पढ़वाया जा रहा है ? अवाम भी बिफ़री पड़ी थी, इसलिये इंतज़ामीया ने चुपचाप कई दिन पहले ही बुला लिया था और लोग समझ रहे थे जिगर मुशायरे के दिन आयेगा !!
मुशायरा की रात आ गई जिगर को हिफ़ाज़त के साथ स्टेज पर पहुँचा दिया गया। लोगों ने हुटिंग और शोर चालु कर दिया, यही वो पल था जब जिगर के टुटे हुए दिल से सदा निकली…
एक रिंद है और मदहत ए सुल्तान ए मदीना
हां कोई नज़र रहमत ए सुल्तान ए मदीना।
जो जहाँ था वही खड़ा रह गया, फिर क्या था एक तूफ़ान गुज़रा जो सबको रुलाते हुये गुज़र गया, दिल भी नरम हो गया और इख़्तलाफ़ भी ख़त्म।
इस नात के कुछ शेर ये थे ⬇
एक रिंद है और मदहत ए सुल्तान ए मदीना
हां कोई नज़र रहमत ए सुल्तान ए मदीना।
दामान ए नज़र तंग ओ फ़रावानी ए जलवा
अऐ तलअत ए हक़, तलअत ए सुल्तान ए मदीना।
अऐ ख़ाक ए मदीना तेरी गलियों के तसद्दुक़
तू ख़ुल्द है तू जन्नत ए सुल्तान ए मदीना।
इस तरह के हर सांस हो मसरूफ़ ए इबादत
देखुं मैं दर ए दौलत ए सुल्तान ए मदीना।
कुछ हमको नही काम ‘जिगर’ और किसी से
काफ़ी है बस एक निसबत ए सुल्तान ए मदीना।