जब मौलाना आज़ाद के ख़ुत्बे को सुनने मस्जिद आने लगे रांची के हिन्दु….

 

मुहम्मद इक़बाल

जब अंग्रेज़ सरकार ने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को बंगाल से निष्काषित कर दिया था तब 1916 से 1919 तक वो रांची में नज़रबंद रहे, इस दौरान रांची की जामा मस्जिद में जुमा का ख़ुतबा देते रहे, उन्होंने अपने ख़ुत्बों में कहा के जंग ए आज़ादी में हिस्सा लेना मुसलमानों का दीनी फ़रीज़ा है, उनके ख़ुत्बों के प्रभाव से रांची के मुसलमानों ने आज़ादी की लड़ाई में पुरे जोशो जज़्बे के साथ भाग लेना शुरू कर दिया, इसके असर से रांची के हिन्दुओं ने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से कहा के वो भी उनका भाषण सुनेंगे, अंग्रेज़ सरकार ने उनके सार्वजनिक भाषण पर पाबंदी लगा रखी थी इसलिए मस्जिद में ही एक कमरा बनाया गया जहाँ शहर के हिन्दू जुमा का ख़ुतबा सुनने के लिए आने लगे।

शायद ये भारतीय इतिहास की पहली घटना रही होगी जब हिन्दू भी जुमा का ख़ुतबा सुनने मस्जिद में आते रहे हों। उन्ही दिनों जब दिल्ली में किसी हिन्दू धर्मगुरु के मस्जिद में आने पर मुसलमानों में से कुछ लोगों ने ऐतराज़ किया तब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने एक किताब लिखी “जामीउस शवाहिद” (कलेक्शन ऑफ़ प्रूफ़) और फिर ये साबित किया के इस्लाम में गैरमुस्लिमों के मस्जिद में आने पर कोई पाबन्दी नहीं है।

हिन्दू मुस्लिम के बीच की दूरियों को ख़त्म करने की उनकी कोशिशें भारतीय इतिहास का अभिन्न हिस्सा है। अपने पुराने कारनामों के बारे में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कहते हैं ये अम्र वाक़ेया है के “अलहिलाल” ने तीन साल के अंदर मुसलमानान ए हिन्द की मज़हबी और सियासी हालत में बिलकुल एक नई हरकत पैदा कर दी।
पहले वो अपने हिन्दू भाइयों की पॉलिटिकल सरगर्मीयों से न सिर्फ़ अलग थे बल्कि उसकी मुख़ालफ़त के लिए ब्युरोक्रेसी के हाथ में एक हथियार की तरह काम देते थे। गवर्नमेंट की तफ़रका अंदाज़ पालिसी ने उन्हें इस फ़रेब में मुबतला कर रखा था के मुल्क में हिन्दूओं की तादाद बहुत ज़्यादा है, अगर हिंदुस्तान आज़ाद हो गया तो हिंदुओं की गवर्नमेंट क़ायम हो जायेगी, मगर “अलहिलाल” ने मुसलमानों को तादाद की जगह ईमान पर ऐतमाद करने की तलक़ीन की और बेखौफ़ होकर हिंदुओं के साथ मिल जाने की दावत दी उसी से वो तब्दीलियां रु-नुमा हुईं जिसका नतीजा आज मुत्तहिदा तहरीके ख़िलाफ़त और स्वराज है।

ब्यूरोक्रेसी एक ऐसी तहरीक को ज़्यादा अरसा तक बर्दाश्त नहीं कर सकती थी इसलिए पहले “अलहिलाल” की ज़मानत ज़ब्त की गयी फिर जब “अलबिलाग” के नाम से दोबारा जारी किया गया तो 1916 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ने मुझे चार साल के लिए नज़र बंद कर दिया।

लेखक विभिन्न मुद्दों पर लगातार लिखते रहे हैं।

 

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