महान मज़दूर नेता, जंग ए आज़ादी के क़द्दावर नेता और 1937 में बिहार विधान सभा के सदस्य रहे प्रोफे़सर अब्दुल बारी 1940 के दशक मे बिहार के सबसे बड़े कांग्रेसी और मज़दुर लीडर थे; जिनके बारे मे यहां तक कहा जाता है कि अगर 28 मार्च 1947 को फ़तुहा के पास उन्हे शहीद नही किया जाता तो आज़ादी के बाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी ही होते।
ख़ैर इन बातो को जाने दीजिए। कहने को तो प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी कांग्रेसी भी थे और साम्यवादी (वामपंथी) भी। पर खु़द को स्वातंत्रा सेनानीयों की पार्टी कहने वाली कांग्रेस ने तो अब्दुल बारी को बिलकुल भुला ही दिया है और प्रोफ़ेसर अबदुल बारी के बनाए हुए मज़दुर युनियन के नाम पर ख़ुद को मज़दुरों की पार्टी कहने वाली कामनिस्ट पार्टीयों ने भी इन्हे भुला दिया है, हद तो तब हो गई जब हम मज़हब मुसलमानो ने इन्हे पहचाने से इंकार कर दिया. वैसे इनकी समाजिक और सियासी पहुंच का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है के इनके नमाज़ ए जनाज़ा मे महात्मा गांधी जैसे क़द्दावर लोग शरीक हुए थे।
प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी वही शख़स हैं जिनके एक क़ौल पर अक्तुबर 1946 को पुरा पटना शहर जलने से बच गया, जब बिहार के मगध का पुरा इलाक़ा मुस्लिम मुख़ालिफ़ फ़सादात (दंगा) से जुझ रहा था जिसमे सिर्फ़ आठ दिन के अंदर तक़रीबन तीस हज़ार से भी ज़्यादा लोग क़त्ल कर दिए गए थे।
ये भी इत्तेफ़ाक़ है पटना शहर को दंगे की आग में जलने से बचाने वाला शख़्स ख़ुद एक गोरखा सिपाही के द्वारा पटना ज़िला के फ़तुहा मे 28 मार्च 1947 को शहीद कर दिया जाता है। (कहने वाली बात है) आज तक इस बात से पर्दा नही उठ सका के उनके क़तल की असल वजह क्या है ? और ज़िम्मेदार कौन है ? अब्दुल बारी की शहादत के बाद बिहार में फिर दंगा भड़का, तो गांधीजी के कहने पर जवाहर लाल नेहरु ने फिर बिहार का दौरा किया और अनुग्रह नारायण सिंह के साथ जवाहर लाल नेहरु तीन दिनों तक पैदल सड़कों पर घूम घूम कर लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करते रहे।
वैसे प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करने के लिए कुछ इदारे, मैदान और सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है। जहां गोलमुरी जमशेदपुर में अब्दुल बारी मिमोरियल कालेज खोला गया है, वहीं जहानाबाद में अब्दुल बारी टाऊन हाल है, साक्ची जमशेदपुर बारी मैदान है, पटना में प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी टेकनिकल सेंटर है, पटना में प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी पथ है, नोआमुंडी माईन सिंहभुम झारखंड में प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी मिमोरियल हाई स्कुल है, ब्रनपुर आसंसोल में बारी मैदान है। उन्नीसवीं सदी मे बना कोईलवर का पुल इक्कीसवीं सदी में भी गर्व से अपनी सेवाएं आज भी दे रहा है जिसका नाम भी प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी के नाम पर रखा गया है और वो अब्दुल बारी पुल है. पर इस नाम से इसे कोई जानता नही है।
हमें भी याद रखें जब लिखें तारीख़ गुलशन की,
के हमने भी जलाया है चमन में आशयां अपना.
इस वजह कर बार बार कहता हुं के अपने बुज़ुर्गों को याद करें, तवारिख़ (इतिहास ) के नायकों कि मेहनत और योगदान को भुला देना या नज़रअंदाज कर देना भविष्य के लिए घातक है। अपने अपने क्षेत्रों के बुजुर्गों, स्वतत्रंता सेनानी, लेखक, शिक्षाविदयों के बारे मे लिखें क्योंकि ”जो कौम अपनी तवारीख भूलती है, उसे दुनिया भुला देती है.”
कौन थे प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी ?
प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी 1892 को बिहार के ज़िला भोजपुर के गांव शाहबाद मे पैदा हुए. वालिद का नाम मोहम्मद क़ुरबान अली था. पटना कॉलेज और पटना युनिवर्सटी से आर्ट्स में मास्टर डिग्री की हासिल की. 1917 में महात्मा गांधी के साथ इनकी पहली मुलाक़ात हुई जब मौलामा मज़हरुल हक़ गांधी की मेज़बानी पटना मे कर रहे थे. रॉलेक्ट एैक्ट का जम कर विरोध किया, वहीं ख़िलाफ़त तहरीक और असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। 1921 ई. -1922 ई. -1942 ई. के दौरान इन्होने तहरीक ए आज़ादी की जद्दोजेहद के लिए बिहार, उड़ीसा, बंगाल के मज़दूरों को मुत्ताहिद किया और उन्हे एक बैनर तले लाने मे अहम किरदार निभाया।
1920-22 मे हुए ख़िलाफ़त और असहयोग तहरीक (आंदोलन) के समय राजेंद्र प्रासाद, अनुग्रहण नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह के साथ कंधे से कंधे मिला कर पुरे बिहार मे इंक़लाब बपा किया. 1921 मे मौलामा मज़हरुल हक़ की मेहनत और पैसे की वजह कर बिहार विद्यापीठ का उद्घाटन 6 फ़रवरी 1921 को मौलाना मुहम्मद अली जौहर और कस्तूरबा गांधी के साथ पटना पहुंचे महात्मा गांधी ने किया था. मौलाना मज़हरूल हक़ इस विद्यापीठ के पहले चांसलर नियुक्त हुए और इसी इदारे मे अब्दुल बारी प्रोफे़सर की हैसियत से मुंतख़िब हुए. वहीं ब्रजकिशोर प्रसाद वाईस-चांसलर और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद प्रधानाचार्य बनाए गए।
1930 मे प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी ने भागलपुर मे सत्याग्रह अंदोलन छेड़ा जिसमे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उनके साथ थे। 1937 के सुबाई इंतख़ाब मे बिहार विधान सभा के सदस्य के रुप मे मुंतख़िब हुए।
1937 में राज्य चुनाव में 152 के सदन में 40 सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित थीं जिनमें 20 सीटों पर ‘मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी’ और पांच सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की. शुरू में कांग्रेस पार्टी ने मंत्रिमंडल के गठन से यानी सरकार बनाने से इंकार कर दिया तो राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में बैरिस्टर मो. यूनुस को प्रधानमंत्री (प्रीमियर) पद का शपथ दिलाया. लेकिन चार महीने बाद जब कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन पर सहमत हो गई तो यूनुस ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. 1937 में बिहार मे पहली बार कांग्रेसी की हुकुमत वजूद मे आई, और अब्दुल बारी चंपारण से जीत कर असेंबली पहुंचे थे और उन्हे इस हकुमत मे असंबली का उपसभापती बनाया गया।
डॉ राजेंद्र प्रासाद के अध्यक्षता में बनी बिहार लेबर इंकोआईरी कमिटी के उपाअध्यक्ष मुंतख़िब हुए. और इसी लेबर इंकौईरी कमिटी के साथ जमशेदपुर मज़दुरो के हाल चाल लेने पहुंचे. नेता जी सुभाष चंद्र बोस जो उस वक़्त जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन के अध्यक्ष थे; की दरख़्वास्त पर प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी ने जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन की क़ियादत करने का फ़ैसला किया।
प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी ने लेबर एसोसिएशन का भारतीय कानून के तहत मज़दूर यूनियन के रूप में परिवर्तित किया। इसके बाद बिहार बंगाल उड़ीसा मे मज़दूर आंदोलन को एक नई पहचान दी और पुरे इलाक़े मे इंक़लाब ला दिया। टिस्को में मजदूरों के संगठन का नाम लेबर एसोसिएशन था। ट्रेड यूनियन एक्ट बनने के बाद अब्दुल बारी के कार्यकाल में इसका नामकरण टाटा वर्कर्स यूनियन किया गया था। पांच मजदूरों पर गोली चालन के बाद 1920 में लेबर एसोसिएशन बना था। टिस्को(टाटा स्टील) की तारीख़ मे पहला समझौता 1937 मे अब्दुल बारी की ही क़यादत मे हुआ. 1937 से 1947 तक अब्दुल बारी टिस्को (टाटा स्टील) वर्कर्स युनियन के सदर के तौर पर रहे।
1942 के भारत छोड़ो तहरीक से जुड़े और ख़ुद को साबित किया. 1946 में बिहार प्रादेश कमिटी के अध्यक्ष मुंतख़िब हुए।
28 मार्च 1947 को फ़तुहा के पास उन्हे शहीद कर दिया गया. महात्मा गांधी ने प्रोफे़सर अब्दुल बारी के शहादत पर संवेदना करते हुए 29 मार्च 1947 को कुछ बात लिखी थी जिसे बिहार विभुती किताब मे अभीलेखार भवन द्वारा शाए किया गया ”जिसमे गांधी ने उन्हे अपनी आख़री उम्मीद बताया ” और कहा के अब्दुल बारी एक ईमांदार इंसान थे पर साथ मे बहुत ही ज़िद्दी भी थे। वहीं पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी की पहली बर्सी के मौक़े पर इनके कारनामे को याद करते हुए एक पैग़ाम 22 मार्च 1948 को लिखा जिसे मज़दुर आवाज़ मे शाए (छापा) किया गया।