मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी : जो बने भारत सरकार के गृहमंत्री

10 मार्च 1872 को पंजाब के सियालकोट में एक सिख घराने मे एक लड़के ने जन्म लिया, बाप लड़के के पैदा होने से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुका था। जब लड़के ने कुछ होश सम्भाला तो माँ ने उसे पढ़ने के लिए मामा के पास सिंध भेज दिया। वहाँ उस लड़के के ताललुक़ात कई फ़क़ीरों और सूफ़ियों से हुई, सूफ़ियों की तालीमात ने उसे इस्लाम की तरफ़ खींचा और एक दिन वह अपना घर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ और सिंध के एक बुज़ुर्ग के हाथ पर इस्लाम को क़बुल किया या दुसरे लफ़्ज़ मे कहे तो लड़के ने अपने दिल की बात को ख़ुद से मनवा लिया; और अपना नाम अपना नाम ओबैदुल्लाह रखा। यही लड़का बाद में हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी का अज़ीम रहनुमा मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी बना।

25 बरस की उम्र तक मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी ने सूफ़ियों और ख़ानकाहो मे इल्म सीखते रहे उसके बाद देवबंद चले गए। वहां शेख़ उल हिन्द से मुलाक़ात हुई, और छह साल तक देवबंद मे इल्म हासिल किया, फ़िक़ह, लॉजिक और फ़लसफ़े में महारत हासिल करने के बाद वापस सिंध लौट गये।

प्रथम विश्व युद्ध के समय मौलाना शैख़ उल हिन्द के कहने पर काबुल चले गये और देवबंद की सियासी तहरीक रेशमी रुमाल में शामिल हो गये और फिर अफ़ग़ान के सरदार हबीबुल्ला ख़ान की मदद से राजा महेन्द्र प्रताप की प्रवासी सरकार की स्थापना की गई। जहां राजा महेन्द्र प्रताप राष्ट्रापति, मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली प्रधानमंत्री बने वहीं मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी उस सरकार मे गृह मंत्री की हैसियत से थे।

मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी लगभग सात साल काबुल मे रहे, प्रथम विश्व युद्ध के बाद हालात ख़राब हो चुके थे, जर्मनी बिखर चुका था तो रुस अपने घर मे ही क्रांति के दौर से गुज़र रहा था।

मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी रुस को रवाना हो गए, अपनी आँखो के सामने रुस के क्रांति को देखा, लेनिन से कभी मिल तो नही पाए लेकिन रुस की क्रांति ने मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी की ज़िन्दगी मे नया इंक़लाब ला चुका था। 1923 में मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी वहाँ से तुर्की चले गए। वहाँ भी कमाल पाशा के हाथ तुर्की नई ज़िन्दगी की शुरुआत कर रहा था, मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी पर वामपंथी विचारधारा का कितना असर हुआ था ये कहना आसान नही; लेकिन मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी वामपंथी विचारधारा को अस्वाभाविक मानते थे।

तुर्की से मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी मक्का की तरफ़ निकल गये, वहाँ आल सउद की हुकूमत बन चुकी थी, लगभग दस साल तक मौलाना वहाँ रहे, पढ़ने पढ़ाने का काम जारी रखा। दिल मे एक कसक थी वतन लौटने की, लौटना आसान नही था।

आख़िर 1936 मे कांग्रेस की मदद से अंग्रेज़ी हुकुमत ने वतन हिन्दुस्तान लौटने की इजाज़त दे दी, और मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी 1938 को कराची लौट आए।

मौलाना कांग्रेस के कभी मेम्बर नही रहे; उसके बाद भी मौलान कांग्रेस के आसपास ही रहे, वक़्त को हालात को देखते हुए मौलाना अंग्रेज़ के ख़िलाफ़ गांधी जी के हथियार अहिंसा को सही मानते थे।

1944 मे मौलाना अपने बेटी से मिलने वापस पंजाब जाते हैं। वहीं बिमार हो जाते हैं और 22 अगस्त 1944 को इस दुनिया को अलविदा कह जाते हैं।

कुछ बातें मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी के ज़ुबान से :–

एक दिन मौलाना बड़े ग़मगीन से थे, और कहने लगे मैं मुसलमानों को ज़रूरत की बातें कहता हुँ; लेकिन वो सुनते नही हैं, बल्कि उल्टा मुझे ही बुरा भला कहते हैं ! मैं सोलह बरस का था जब मैं घर छोड़ कर निकल आया था। मेरा ख़ानदान बहुत बड़ा न था और न ही हमारे यहाँ दौलत की भरमार थी; लेकिन मेरी माँ थी, मेरी बहन थी और उनकी मोहब्बत मेरे दिल में थी। लेकिन इस्लाम से मुझे इतनी मोहब्बत थी के मैंने किसी को ख़ातिर न लाया! खुदा जानता है माँ को छोड़ने से मुझे किस क़दर ज़हनी तकलीफ़ हुई थी।

हज़रत शेख़ उल हिन्द र.अ ने मुझे इस्लाम सिखाया और उनके ज़रिये मैंने शाह वलीउलाह मुहद्दिस देहलवी की तालीमात हासिल की, क़ुरान समझा और दीन इस्लाम की हक़ीक़त को समझा। अब अगर मैं मौजुदा मज़हबी तबक़ों के ख़िलाफ़ कोई बात कहता हुँ, तो उसे ये समझना के मैं मज़हब के ख़िलाफ़ हुँ, ये बिलकुल ग़लत है ! मैंने दुनिया की सबसे अज़ीज़ अपनी माँ की मोहब्बत को छोड़ कर मज़हब की मोहब्बत को अपनाया, उम्र भर तकलीफ़ और मुसीबत झेलने के बाद भी मुझे मुसलमान होने पर फ़ख़्र है।

लेखक की राय :-

मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी की हालत ज़िन्दगी, उनकी तालीमात और उनकी सियासी फ़िकर पर प्रोफ़ेसर मोहम्मद सरवर साहब ने एक किताब लिखी है, किताब पढ़ने के बाद इस नतीजे पर हुं के उनकी ज़िन्दगी को किसी एक पोस्ट मे समाया नही जा सकता, राजनीति विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान के स्टूडेंट्स के लिए उनकी ज़िन्दगी मे बहुत कुछ है, जो लोग इस देश मे गंगा जमनी तहज़ीब को बचाना चाहते हैं उनके लिए भी मौलाना की ज़िन्दगी मे बहुत कुछ है और जो लोग सुफ़िईस्म को समझना चाहते हैं, मज़हब को समझना चाहते हैं, उसे सीखने और समझने के लिए मौलाना की ज़िन्दगी मे बहुत कुछ है।