नेताजी सुभाष चंद्र बोस के राष्ट्र भाषा पर विचार : रोमन लिपि में लिखें हिन्दी-उर्दू (हिंदुस्तानी)

 

निम्न अंश सुभाष चंद्र बोस के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन, 19 फ़रवरी, 1938 के भाषण से लिया गया है। नेताजी ख़ुद इस अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे थे।  

जहां तक कि हमारी लोकभाषा का सवाल है मेरा विचार है कि हिन्दी और उर्दू के बीच का भेद कृत्रिम है। भारत कि सबसे स्वाभाविक लोकभाषा हिन्दी एवं उर्दू का मिश्रण होगा, जो कि देश के एक बड़े भाग में बोली भी जाती है। जहां तक लिखने का सवाल है ये भाषा देवनागरी अथवा उर्दू दोनों लिपियों में लिखी जा सकती है। मैं ये भली भांति जनता हूँ कि भारत में ऐसे बहुत से लोग हैं जो इनमें से एक लिपि को अपनाना और दूसरी को नष्ट कर देने के पक्षधर हैं। लेकिन हमारा तरीक़ा किसी भी लिपि को नष्ट करने वाला क़तई नहीं है। हमें दोनों लिपियों के प्रयोग को पूरा बढ़ावा देना है।

इस ही के साथ मेरा विचार ये है कि इस समस्या के सही हल ये होगा कि हमारी लिपि हमको बाक़ी के विश्व के क़रीब लाये। मेरे बहुत से देशवासी इस पर आश्चर्य करेंगे कि हिन्दी-उर्दू को रोमन लिपि में लिखना कितना अजीब लगेगा लेकिन मैं उनसे अनुरोध करूँगा के वे इस को वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से देखें। अगर हम ऐसा करेंगे तो जानेंगे कि लिपि में कुछ भी दैवीय या पूजनीय नहीं है। नागरी लिपि को जैसे हम आज देखते हैं वो एक लंबे क्रमिक विकास का नतीजा है। इसके अलावा भारत के कई प्रांतों की अपनी अपनी लिपि हैं।

भारत के अधिकतर उर्दू बोलने वाले मुसलमान उर्दू लिपि का प्रयोग करते हैं और पंजाब एवं सिंध में तो सभी इस लिपि का प्रयोग करते हैं। ऐसे में समूचे भारत में एक लिपि लाने का फ़ैसला पूर्णतया वैज्ञानिक और निष्पक्ष होना ज़रूरी है। मैं स्वीकारता हूँ कि एक समय था जबकि मैं ख़ुद ये मानता था कि किसी विदेशी लिपि का प्रयोग पूर्णतया देशद्रोह है। लेकिन 1934 में तुर्की के दौरे के बाद मेरे ये विचार बदल गए। मैंने तब ये समझा कि दुनिया के अन्य देशों जैसी लिपि का इस्तेमाल करना कितना लाभकारी हो सकता है।

जहां तक जनमानस का सवाल है हमारे देश कि 90% जनता निरक्षर है और वो कोई भी लिपि नहीं जानती, उनको इस से ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा की जब उनको साक्षर बनाया जायेगा तो कौन सी लिपि उनको सिखाई जाएगी। रोमन लिपि से हमें यूरोपियन भाषा सीखने में भी मदद मिलेगी। मुझे इसका भली भांति अंदाज़ा है कि रोमन लिपि को अपनाने का शुरू शुरू में इस देश में कैसा विरोध होगा। इसके बावजूद मैं देशवासियों से प्रार्थना करता हूँ कि फ़ैसला वो लिया जाये जिसका एक लंबे समय में देश को फ़ायदा भी हो।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर, 1943 को जब आरज़ी-हुकूमत-ए-आज़ाद हिन्द का गठन किया तो अपने इस कथन पर अमल करते हुए रोमन लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी (हिन्दी+उर्दू) को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया। 

अनुवाद : साक़िब सलीम

Saquib Salim

Saquib Salim is a well known historian under whose supervision various museums (Red Fort, National Library, IFFI, Jallianwala Bagh etc.) were researched. To his credit Mr. Salim has more than 400 published articles on history, politics, culture and literature in English and Hindi. Before pursuing his research and masters in modern Indian History from JNU, he was an electrical engineering student at AMU. Presently, he works as a freelance/ independent history researcher, writer and works at www.awazthevoice.in