1808 को पटना में पैदा हुए मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी के वालिद का नाम इलाहीबख़्श सादिक़पुरी था। अहमदुल्लाह जब बड़े हुए तो मौलवी सैयद अहमद शहीद, मौलवी ईनायत अली सादिक़पुरी और मौलवी विलायत अली सादिक़पुरी की सोहबत में रहने का मौक़ा मिला। इन लोगों के वफ़ात के बाद वहाबी तहरीक की क़यादत की और इसके अमीर चुने गए।
मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी के नेतुत्व में वहाबी तहरीक ने खुले तौर पर अंग्रेज़ विरोधी रुख़ इख़्तयार कर लिया था। चूंकी हिन्दुस्तान में उस समय अंग्रेज़ों के विरुद्ध कोई सेना ख़डी नहीं की जा सकती थी, इस लिए मौलवी अहमदुल्ला सादिक़पुरी ने मुजाहिदीनों की एक फ़ौज सरहदी इलाक़े के सिताना स्थान पर ख़डी की। उस सेना के लिए वे धन, रंगरूट और हथियार हिन्दुस्तान से ही भेजते थे।
अंग्रेज़ी हुकुमत और ख़ास कर पटना के कमिश्नर विलियम टेलर को मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी की गतिविधियों को लेकर शक था, पर उनके प्रभाव को देखते हुए वे उनके ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठा सकते थे।
सन 1857 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पटना में भी विद्रोह भड़क उठा तो वहाँ के कमिश्नर विलियम टेलर ने मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी को शांति स्थापना के उपायों पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया और वहीं उन्हें धोखे से गिरफ़्तार कर लिया।
पटना के कमिश्नर टेलर के स्थानांतरण के तीन महीने बाद मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी आज़ाद हुए। आज़ाद होने के बाद मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बाक़ायदा युद्ध का संचालन प्रारंभ कर दिया। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मुजाहिदीनों ने कई स्थानों पर लड़ाइयाँ लड़ीं।
इसी बीच पंजाब के आस पास कुछ ख़त अंग्रेज़ों द्वारा पकड़े गए, जिसमें पटना और सादिक़पुर का ज़िक्र मिला, अंग्रेज़ी अफ़सर और सी.आई.डी के कान खड़े हो गए। सादिक़पुर पर नज़र रखा जाने लगा। इन लोगों की रेकी के लिए पंजाब से आफ़िसर पटना आए और सन् नवम्बर 1864 में बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में मौलवी अहमदुल्ला सादिक़पुरी और उनके कुछ साथियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और उन तमाम लोगों पर मुक़दमा चलाया गया, अम्बाला सहित कई जगह ट्रायल हुआ। तमाम सरकारी पदों से मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी को बर्ख़ास्त कर दिया गया।
बहुत लोभ-लालच देकर अंग्रेज़ी हुकुमत ने मौलवी अहमदुल्ला सादिक़पुरी के ख़िलाफ़ गवाही देने वालों को तैयार किया। इस मुक़दमे में सेशन अदालत ने तो मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी साहब को अंग्रेज़ों से बग़ावत के जुर्म में 27 फरवरी 1865 को प्राणदंड की सज़ा सुनाई, बाद में हाईकोर्ट मे अपील करने पर इनकी सारी सम्पत्ति को ज़ब्त करते हुए इस सज़ा-ए-मौत को उम्र-क़ैद में तब्दील करके जून 1865 में अंडमान भेज दिया गया। उस समय मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी की सम्पत्ति की सालाना कमाई 120000रु से अधिक थी।
मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी के छोटे भाई मौलवी यह्या अली सादिक़पुरी 1868 में अंग्रेज़ों का ज़ुल्म सहते हुए अंडमान निकोबार में ही इंतक़ाल कर गए, वहीं वहाबी तहरीक के नायक “मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी” कालेपानी की काल कोठरी में बंद थे, लेकिन वे वहाँ से भी हिन्दुस्तान में चलने वाले वहाबी तहरीक को निर्देशित करते रहे। मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी को काला पानी के सज़ा के दौरान ही 20 सितम्बर 1871 में बंगाल के चीफ़ जस्टिस पेस्टन “नार्मन” और 8 फ़रवरी 1872 में उस समय के वाईसराय “लार्ड मॉयो” के क़त्ल का ख़ाका बनाने का शर्फ़ हासिल हुआ; का इंतक़ाल 21 नवम्बर 1881 में हुआ।
मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी ने पूरे पच्चीस साल तक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रहे जद्दोजेहद का संचालन किया। इनके आन्दोलन ने अंग्रेज़ी शासन की जड़ों को हिला देने का काम किया था।
मौलवी अहमदुल्लाह सादिक़पुरी और उल्मा ए सादिक़पुर को अपने अंग्रेज़ मुख़ालिफ़ मुहीम की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी, जहां पूरी जागीर ज़ब्त कर ली गई वहीं अंग्रेज़ों ने इनके हौंसले को तोड़ने और इन्हे निचा दिखलाने की नियत से इनके ख़ानदानी क़ब्रिस्तान को 1864 में जहां ‘गधे’ से जुतवा दिया था. क़ब्रिस्तान की बेहुरमती की बात कई जगह से साबित है।
जिसका एक उदाहरण ये है के 1884 मे सबूत के अभाव मे 20 साल बाद मौलवी अब्दुर रहीम काला पानी (अंडमान) से रिहा हो कर पटना आते हैं, जहां वो सादिक़पुर जाते हैं, जिसके बारे वो ख़ुद लिखते हैं :- सुबह मै सादिक़पुर गया, जहां मै अपने घर को ढूंडता हुं, पर वो मुझे नही मिला, हमारे माकान को तोड़ कर ज़मीन के सतह पर ला दिया गया था। उसकी जगह पर बाज़ार और मुनस्पेल्टी की इमारत बना दी गई है। फिर मै क़ब्रिस्तान गया जहां 14 पुश्तों से मेरे बुज़ुर्ग आराम फ़रमा रहे थे। मै वहां अपने वालदैन के क़बर पर जा कर फ़तिहा पढ़ना चाहता था पर मुझे वहां मायूसी हाथ लगी। मै अपने वालदैन के क़बर को नही ढुंड पाया, मुझे नही पता चल पा रहा था के वोह कहां दफ़न हैं.. बहुत सोचने और दिमाग़ लगाने के बाद मै इस नतीजे पर पहुंचा के मेरे बुज़ुर्गो के क़बर के उपर मुनस्पेल्टी की इमारत बना दी गई है।
वोह आगे लिखते हैं :- अऐ पढ़ने वालों, मै अपने ग़म को यहां ब्यां नही कर सकता हुं के मेरे बुज़ुर्गो के साथ जो नाइंसाफ़ी हुई उस पर मै क्या महसुस कर रहा हुं ?? मुझे ये समझ मे नही आ रहा है के हमारी ग़लती की सज़ा हंमारे मरहुम के क़बर को खोद कर क्युं दी जा रही है। ??
अंग्रेज़ो से बग़ावत करने के जुर्म मे उलमाए सादिक़पुर पटना की पुरी बस्ती को अंग्रेज़ो ने 1864 मे तहस नहस कर नीलाम कर दिया था. और तमाम उल्मा ए कराम को काला पानी की सज़ा दी जाती है जिसमे से अधिकतर वहीं इंतक़ाल कर जाते हैं.. पर ? वैसे सेलुलर जेल में क़ैदियों के नाम की लगी तख़्ती में बिहार के मौलवी अहमदउल्लाह सादिक़पुरी का नाम सबसे उपर है।