शाह आलम
आज़ादी की तारीख कही जाने वाली 15 अगस्त, 1947 को 71 साल बीत जाने के बाद भी अवसरवादी ताक़तें आज़ादी के दीवाने शहीदों के अरमानों से गद्दारी करने पर तुली हैं। इंकलाबी चंद्रशेखर आज़ाद की बहदुराना शहादत को आत्महत्या कहकर क्रांतिवीर को आज तक अपमानित किया जा रहा है। स्कूली किताबों से लेकर इतिहास तक हर जगह हमें लगातार यही बताया गया है कि इलाहाबाद के अल्फ़्रेड पार्क में आज़ाद ने खुद को गोली मार ली थी। यह कहानी विशुद्ध पुलिसिया संस्करण है जिसे आज तक किसी ने कभी भी चुनौती नहीं दी।
सच्चाई यह है कि आज़ाद के पास न तो अंतिम गोली बची थी और न ही उन्होंने खुद को गोली मारकर कथित आत्महत्या की थी। यह एक पुलिसिया थ्योरी है जिसका साजिशकर्ता ब्रिटिश साम्राज्यवाद था। इलाहाबाद के गौरवपूर्व बलिदान की यह खबर 1 और 2 मार्च 1931 को ‘लीडर’ मे विस्तार से प्रकाशित हुई थी।
पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट और आज़ाद पर गोली चलाने वाले अफ़सर जॉन नाट बावर की रिपोर्ट से सारी चीज़ें साफ हो जाती हैं। इस कहानी को जानने से पहले ज़रूरी है कि हम उन परिस्थितियों की पृष्ठभूमि को जान लें जिनके चलते चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हुए।
बात तब की है जब हिंदुस्तान के क्रांतिकारियों के खुफिया दल पर संकट के बादल मडरा रहे थे। लाहौर षडयंत्र केस के प्रसिद्ध मुकदमे में राजनीतिक बंदियों के अधिकारों के लिए चले 63 दिन के अनशन मे यतीन्द्रनाथ दास शहीद हो चुके थे। 7 अक्टूबर 1930 को इस मुकदमे का फैसला भी सुना दिया गया- भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सज़ा! विजयकुमार सिन्हा, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, महावीर सिंह, किशोरी लाल, गया प्रसाद आदि दल के प्रमुख क्रांतिकारियों को लंबी सज़ा हो चुकी थी। भगत सिंह और साथियों को जेल से छुड़ाने के लिए बम परीक्षण के दौरान रावी तट पर 28 मई 1930 को बापू भाई (भगवतीचरण) बलिदान दे चुके थे। बापू भाई क्रांतिकारी आंदोलन के मस्तिष्क और चन्द्रशेखर आज़ाद के दाहिने हाथ माने जाते थे। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को इस हादसे से बहुत सदमा पहुंचा। उन्होंने जेल से बाहर आने से इनकार कर दिया। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कुछ सदस्यों की गद्दारी से दल के सभी सदस्यों के नाम पते, खुफिया ठौर-ठिकाने पुलिस के पास पहुंच गए। इसी फूट की वजह से हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सेनापति चन्द्रशेखर आज़ाद ने 4 सितंबर 1930 को दिल्ली के झंडेवालान मे बैठक कर सेंट्रल कमेटी को भंग कर दिया।
आज़ाद के सबसे विश्वस्त सहयोगी बच्चन (विश्वनाथ वैशम्पायन) 11 फरवरी 1931 को कानपुर मे गिरफ्तार हो चुके थे। इससे आज़ाद को बेहद तकलीफ हुई। बच्चन दल के पुराने समय से गुप्त से गुप्त मोर्चा संभालते थे। ऐसे कठिन दौर में दल को नए और मजबूत तरीके से खड़ा करने की ज़िम्मेदारी आज़ाद को इलाहाबाद खींच लाई।
27 फरवरी, 1931 का सवेरा था। हल्की ठंड थी। कटरा मुहल्ले के गुप्त ठिकाने से भवानी सिंह को जरूरी काम सौंपकर वे अल्फ्रेड पार्क की ओर निकल पड़े जहां उनके साथी इंतज़ार कर रहे थे। तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक आज़ाद और सुखदेव राज मिले। सुखदेव राज के अनुसार सुरेन्द्र पांडेय और यशपाल उनसे पहले भेंट कर चुके थे। बात का दौर चला ही था कि एक मोटर आकार सामने सड़क पर रुकी जिसमें से एक गोरा अफसर और दो कांस्टेबल उतरे। इधर दोनों क्रांतिकारी सतर्क हो चुके थे। पुलिस सुप्रीटेंडेंट जॉन नाट बावर ने पास पहुंचकर गोली चला दी और पूछा, ‘कौन हो तुम’? गोली से आज़ाद के जांघ की हड्डी टूट गयी, लेकिन अचूक निशानेबाज आज़ाद ने गोली का जवाब गोली से दिया। दोनों और से गोलियां चलने लगीं जिससे नाट बावर की कलाई टूट गयी और उसका रिवाल्वर जमीन पर गिर पड़ा। दारोगा विश्वेश्वर सिंह का जबड़ा टूट गया। एक गोली आज़ाद की दाहिनी भुजा पर लगती हुई फेफड़े में जा घुसी।
आज़ाद की गोली से मोटर का टायर धवस्त हो चुका था। बावर ने जान बचाने के लिए पेड़ की आड़ में पनाह ली। सिपाही नाले में छुप गये। आज़ाद और सुखदेव राज़ ने जामुन के पेड़ को सुरक्षा कवच बना लिया। आज़ाद ने आदेश दिया- ‘सिराज तुम निकल जाओ’। सुखदेव किसी तरह बच कर निकले। अजेय सेनापति आज़ाद अंतिम पल तक मोर्चे पर डटे रहे। बीस मिनट तक गोलियां दोनों तरफ से चलती रहीं लेकिन अपने दल के एक क्रांतिकारी को सकुशल उन्होंने वापस भेज दिया। यह क्रांतिकारी पार्टी के सुयोग्य सेनापति की अनोखी नेतृत्व क्षमता थी। एचआरए और एचएसआरए की सभी कार्रवाइयों मे आज़ाद आगे रहते थे और वापस लौटते वक्त सबसे पीछे होते थे। सिराज (सुखदेव राज़) 5 जुलाई 1975 तक जिंदा रहे लेकिन उन्हें इस बात का ज़िंदगी भर मलाल रहा।
आज़ाद के शव की तलाशी लेने पर उनके पास से 448 रूपये के नोट और कुछ नकदी निकली, साथ ही 16 गोलियां तथा 22 खाली कारतूस मिले। आज़ाद के जिस्म का पोस्टमॉर्टम सिविल सर्जन लेफ़्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड ने किया था। उनके सहायक डॉ. गांडे और डॉ. राधेमोहन लाल थे। रिपोर्ट के मुताबिक दो गोलियों के घाव दाहिने पैर के निचले हिस्से में थे। गोलियों से टिबिया बोन फ्रैक्चर हुई थी। एक गोली दाहिने जांघ से निकाली गयी। घातक गोलियां दो थीं। एक तो सिर में दाहिनी ओर और दूसरी छाती में लगी थी जिसका पता पोस्टमॉर्टम के वक्त चला। एक गोली दाहिने कंधे को पास से छेद कर दाहिने फेफड़े मे जा रुकी। सिर में दाहिनी ओर जो गोली लगी थी वह पैरिएंटल बोन को छेदती हुई दिमाग मे घुसी और सिर के नीचे बाई ओर रुकी। डॉक्टरों की राय में यह कहना गलत है कि उन्होंने अपने आप को गोली मार ली थी। यदि ऐसा होता तो वहां पर चमड़ी और बालों के जलने के निशान होते, जो थे ही नहीं।
कथित आज़़ादी के बाद से लगातार चार पीढियों तक हमें कई झूठ घुट्टी की तरह पिलाये गए हैं जिनमें से एक आज़ाद की शहादत का पुलिसिया संस्करण भी है। इन क्रांतिकारियों का समाजवादी समाज बनाने का सपना अगर आज तक पूरा नहीं हुआ है, तो उसकी एक वजह वह झूठ और साजि़श की जमीन है जिस पर इस देश के भविष्य की फ़सल लहलहाने से पहले ही कुम्हला गयी है। क्रांतिवीर आज़ाद की बलिदान गाथा को जिस तरह धूमिल कर लगातार अपमानित किया गया है, वह ऐतिहासिक रूप से शर्मनाक है।
आज़ादी की लड़ाई से जुड़े सच को सामने लाने की यह लड़ाई बहुत लंबी है जिसे आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी उन सभी की हैं जिनकी अपने देश के शहीदों के प्रति गहरी आस्था है।
(लेखक दस्तावेज़ी फिल्म निर्माता हैं और एक दशक से अधिक समय से भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन से नई पीढ़ी को रूबरू करने की मुहिम चला रहे हैं)
27 फ़रवरी 2015 को ये लेख राष्ट्रीय संवाद श्रृंखला के तहत ‘जनपथ’ में छप चुका है।