जयन्त जिज्ञासु
पिछले कुछेक बरसों में इस देश की साझा विरासत को जिस तरह कुचला गया है, दंगाई माहौल में जिस तरह लोगों को झोंका जा रहा है और उसी बीच कथित रूप से प्रधानमंत्री को जान से मारने की भी ख़बर आ जाती है; वैसे में लालू प्रसाद और भी प्रासंगिक हो जाते हैं। कोई 29 साल पहले देश के इस दूरदर्शी नेता ने कुछ कहा था, जो आत्मदया (सेल्फ पिटि), आत्मश्लाघा, आत्ममुग्धता व अटेंशन सीकिंग सिंड्रोम के शिकार मोदीजी को सुनना चाहिए, जो उनके बहुत काम का है, “जितनी एक प्रधानमंत्री की जान की क़ीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की भी क़ीमत है। जब इंसान ही नहीं रहेगा, तो मंदिर में घंटी कौन बजाएगा, देशहित में जब इंसान ही नहीं रहेगा, तो मस्जिद में इबादत देने कौन जाएगा?” मोदीजी को अब भी कुछ नहीं बुझाया तो मार्गदर्शक मंडल से उन्हें कहना चाहिए कि वुजूद में आने के बाद वो अब तक की अपनी पहली बैठक आहूत करे। लोग उस लालू प्रसाद के प्रति आभारी हैं, जिन्होंने बिहार में वर्षों से तिरस्कार झेल रही बड़ी आबादी को ग़ैरत के साथ प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जीने का साहस दिया, जिनकी पहली प्राथमिकता ‘विकास का हव्वा’ नहीं, उपेक्षितों-अक़्लियतों की इज़्ज़त-आबरू-अस्मिता की हिफ़ाज़त थी। डिवलपमेंट सिंड्रोम के शिकार प्रधानमंत्री मोदी को अपने पद की गरिमा और ‘हम भारत के लोग’ का ख़याल रखना चाहिए। लालू प्रसाद ने “ढिंढोरा मॉडल ऑफ डिवलपमेंट” में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई, उनके लिए मानव संसाधन का अस्तित्व व इंसान के रूप में उसकी प्रतिष्ठा सर्वोपरि रही।
इस साल 2 लाख तलवारों की ऑनलाइन ख़रीद हुई, बिहार सरकार हाथ पर हाथ धड़े रही। पहली बार पटना की सड़कों पर गोडसे ज़िंदाबाद के नारे लगे। बिहार को दंगों की लपट में झुलसाया गया। जिस बिहार में आडवाणी की गिरफ़्तारी पर चिड़िया ने चू़ं नहीं किया, बाबरी विध्वंस के बाद कहीं हिंसा नहीं भड़कने दी गई, उस बिहार को नीतीश-मोदी ने कहां से कहां पहुंचा दिया। लालू प्रसाद ने 14 के आम चुनाव के वक़्त कहा था, “यह चुनाव तय करने जा रहा है कि इ देश रहेगा कि टूटेगा”। उस वक़्त किसी ने सोचा नहीं था कि आने वाला निजाम इस कदर ख़तरनाक साबित होगा कि मजहब के नाम पर उन्माद फैलाएगा, इलेक्शन कमीशन की ऐसी-तैसी करके रख देगा, बैंक के बैंक लुटवा देगा और लुटेरों को विदेश भगा देगा और जनता बिचारी त्राहिमाम करेगी।
तेजस्वी यादव ने कहा, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चार सिपाही के साथ केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के दंगा आरोपी फ़रार बेटे को पकड़ने की मुझे प्रशासनिक अनुमति दें। एक घंटे में घसीटकर नीतीश कुमार के नकारा प्रशासन को सौंप दूँगा। मेरा दावा है। लटर-पटर से शासन नहीं चलता। दंगा रोकने के लिए कलेजा होना चाहिए”।
लालू प्रसाद ने 90 की रैली में पटना के गांधी मैदान से क़ौमी एकता के लिए जो हुंकार भरा था, और कड़े शब्दों में संदेश दिया था, इतिहास उसे कभी भुला नहीं सकता। उनके शब्द थे:
मैं इस मंच के माध्यम से पुनः श्री आडवाणी जी से अपील करना चाहता हूँ कि अपनी यात्रा को स्थगित कर दें। स्थगित कर के वो दिल्ली वापस चले जायें, देशहित में। अगर इंसान ही नहीं रहेगा, इंसान नहीं रहेगा तो मंदिर में घंटी कौन बजाएगा? या कौन बजाएगा जब इंसानियत पर ख़तरा हो? इंसान ही नहीं रहेगा तो मस्जिद में इबादत कौन देने जाएगा? 24 घंटा मैं निगाह रखा हूँ, हमने अपने शासन के तरफ़ से, अपने तरफ़ से पूरा उनकी सुरक्षा का भी व्यवस्था किया। लेकिन, दूसरे तरफ़ हमारे सामने सवाल है… अगर एक नेता और एक प्रधानमंत्री का जितना जान का क़ीमत है, उतना आम इंसान का जान का भी क़ीमत है! हम अपने राज में मतलब दंगा-फ़साद को फैलने नहीं देंगे। जहाँ फैलाने का नाम लिया और जहाँ बावेला खड़ा करने का नाम लिया, तब फिर हमारे साथ चाहे राज रहे या राज चला जाए, हम इस पर कोई समझौता करने वाले नहीं हैं!”
जिस बाबरी मस्जिद को ढहाने जा रहे आडवाणी को लालू प्रसाद ने अपने राजनीतिक मेंटर कर्पूरी ठाकुर के गृह ज़िले समस्तीपुर में 23 अक्टूबर 1990 को गिरफ़्तार किया था, उस मस्जिद को भाजपा के तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के साथ कल्याण सिंह, अशोक सिंघल, उमा भारती, आदि की अगलगुआ टोली ने 6 दिसंबर 1992 को गिरा दिया।
आडवाणी की गिरफ़्तारी की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। इसके पहले लालू प्रसाद आडवाणी के दिल्ली आवास पर चलकर देशहित में रथयात्रा को स्थगित करने का आग्रह किया। पर वो नहीं माने। जब उनका रथ बिहार पहुंचा और झारखंड के इलाक़े में घुसा, तो लालू प्रसाद ने धनबाद के उपायुक्त अमानुल्लाह और एसपी रंजीत वर्मा को आडवाणी की गिरफ़्तारी के लिए कहा। पर, दोनों अधिकारियों ने कथित तौर पर सांप्रदायिक हिंसा के अंदेशे से हाथ खड़े कर दिए।
फिर जब आडवाणी वहां से 22 अक्टूबर को देर रात पटना आए और फिर रथ लेके समस्तीपुर पहुंचे, तो लालू जी ने योजनाबद्ध तरीक़े से मुख्य सचिव कमला प्रसाद को भरोसे में लेकर सहकारिता सचिव आरके सिन्हा और डीआईजी रामेश्वर उरांव को टेलीफ़ोन कर 23 अक्टूबर की सुबह स्टेट गवर्नमेंट हेलीकॉप्टर से समस्तीपुर भेजकर सर्किट हाउस से आडवाणी को गिरफ़्तार कराया। दरभंगा के आईजी आर.आर. प्रसाद को मुख्यमंत्री ने रात में ही सारा प्लान समझा दिया, वो भी सीनियर अफ़सरान के साथ समस्तीपुर के डीएम-एसपी को तैयार रहने का संदेश देकर रात में ही चल पड़े थे। आडवाणी को अरेस्ट वारंट दिखाया गया, उन्होंने वहीं वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से समर्थन वापसी का पत्र राष्ट्रपति के नाम लिखा। प्रमोद महाजन को साथ ले जाने के आग्रह को मानते हुए लालू जी ने हेलीकॉप्टर में बिठा के आडवाणी जी को बिहार-बंगाल के बॉर्डर पर मसानजोड़ के रेस्ट हाउस में पहुंचा दिया।
अगले दिन लालू जी ने सांप्रदायिक एकता के लिए 12 घंटे का उपवास रखा, और बड़ी सूझबूझ से बहुत कम बलप्रयोग के साथ बिना किसी फ़साद के सूबे के हालात को क़ाबू में रखा। आडवाणी की गिरफ़्तारी पर बिहार में एक चिड़िया को भी चूं नहीं करने दिया।
यह अनायास नहीं है कि 6 दिसम्बर का दिन ही चुना गया। जिस रोज़ संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर का परिनिर्वाण दिवस है, उसी रोज़ देश के आईन पर चोट कर उसकी रूह को मसला गया। ख़याल रहे कि इस बहुलता व विविधता वाले मुल्क को पिछले 71 सालों से अगर कोई एक सूत्र जोड़ कर रखे हुए है, तो उसका नाम है, धर्मनिरपेक्षता। धर्मनिरपेक्षता के मानी यह नहीं कि मंदिरों को जला दें, मस्जिदों को ढा दें, गिरजों को तोड़ दें, गुरुद्वारों को गिरा दें, विहारों को उजाड़ दें। सेक्युलरिज़म की मूल भावना व खूबसूरत मीमांसा संविधान की प्रस्तावना में है कि हर एक नागरिक को धर्म व उपासना की स्वतंत्रता होगी।
इसीलिए, जब बाबरी मस्जिद को ढाह कर नफ़रतगर्दों ने गंगा-जमुनी तहज़ीब और क़ौमी एकता को तहसनहस करने की कोशिश की, तो पूरे मुल्क के अमनपसंद लोगों ने उसकी निंदा की। 6 दिसम्बर 92 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने आरएसएस की मजम्मत करते हुए कहा था, “बाबरी मस्जिद को गिराकर साम्प्रदायिक शक्तियों ने पूरे विश्व में भारत को कलंकित किया है। 30 जनवरी यदि राष्ट्रीय शोक का दिवस है, तो 6 दिसम्बर राष्ट्रीय शर्म का दिवस होना चाहिए”।
लालू प्रसाद ने 7 दिसम्बर 1992 को बाक़ायदा आकाशवाणी और दूरदर्शन के ज़रिये सूबे की जनता को सामाजिक सौहार्द बनाए रखने की अपील की जिसके कुछ अहम अंश यूं हैं :
बिहारवासी भाइयो एवं बहनो!
आप सभी जानते हैं कि वर्षों की गुलामी को काटने के लिए हमारे नेताओं ने, हमारे पुरखों ने, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, बाबा साहब अम्बेडकर, डॉ. लोहिया, जयप्रकाश नारायण, युसफ़ मेहर अली और देश की जनता चाहे कश्मीर की हो या कन्याकुमारी की, सभी जात, सभी धर्मों के लोगों ने भारत को आज़ाद कराने के लिए बड़ी भारी क़ुर्बानी देने का काम किया था, और आपसी एकता और हमारे पुरखों की क़ुर्बानी की वजह से देश आज़ाद हुआ।
अपने संविधान में जो पिछड़े भाई हैं, दबे-कुचले लोग हैं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लोग हैं, उनके लिए व्यवस्था की थी हमारे पुरखों ने कि हम इनको सेवाओं में विशेष अवसर देंगे, आरक्षण की व्यवस्था दी थी। यह देश सबों का देश है, यह धर्मनिरपेक्ष देश है, अलग भाषा, अलग बोली, हर मजहब का समान आदर किया जाएगा। लेकिन, 45 साल की आज़ादी और हमारी क़ुर्बानी को इस देश में भाजपा, आरएसएस, वीएचपी ने राम रहीम का बखेड़ा उठाकर, धर्म को राजनीति से जोड़कर अयोध्या में जो करोड़ों लोगों की आस्था का प्रतीक था बाबरी मस्जिद, उसे ढाहने का काम किया। इससे न केवल करोड़ों अक़लियत के लोगों के, पूरे राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष जनता के मन में दुःख और शोक, भय की लहर फैल गई, बल्कि हम भारत के लोग दुनिया में कोई उत्तर देने की स्थिति में नहीं हैं।
बाबरी मस्जिद पर किया गया प्रहार देश के लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता पर किया गया प्रहार है। हम सभी मर्माहत हैं और कभी भी इसे चुपचाप देखते नहीं रह सकते। भारत की जनता में वह ताक़त है जिनसे बेमिसाल ताक़त वाली ब्रितानी हुकूमत को उखाड़ फेंका। इमरजेंसी लागू करने वाली ताक़त को धूल चटा दी, और शिलान्यास करने की छूट देनी वाली सरकार के पाए ढाह दिए। हम इस मामले को देश की अमनपसंद जनता की अदालत में ले जा रहे हैं और जिन लोगों ने हमारी उम्मीदों पर पानी फेरा है, उनके मंसूबों को भी हम सत्य और अहिंसा के बल पर चकनाचूर कर देंगे।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने हमें सिखाया था कि नफ़रत का जवाब मोहब्बत से और हिंसा का जवाब अहिंसा से देना चाहिए। मैं आपलोगों को पूरा यक़ीन दिलाता हूं कि फ़िरक़ापरस्त लोगों को किसी क़ीमत पर क़ामयाब नहीं होने दिया जाएगा। हम अपने सद्भाव और मोहब्बत से जख़्म भर देंगे। यह तभी मुमकिन है जब हम सब पूरे सब्र से काम लें और आपसी सद्भाव पर कोई आंच नहीं आने दें। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा में हमारे पूरे मुल्क की तहज़ीबो-तमद्दुन की रूह बस्ती है। इनमें किसी को भी कोई नुक़सान होता है, तो हममें से हर शख़्स का ज़ाती नुक़सान होता है।
अयोध्या में हुई घटना से हर हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई के दिल पर गहरी चोट पहुंची है। हमारी एकता सबसे बड़ी ताक़त है और धर्मनिरपेक्षता पर हुए हमले का मुक़ाबला हम सब अपनी चट्टानी एकता के बल पर ही करेंगे। बाबरी मस्जिद पर किये गए हमले की हम ज़ोरदार निन्दा करते हैं और इस हमले के लिए ढिलाई बरतने वाली सत्ता के मठाधीशों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसकी पुरज़ोर मजम्मत करते हैं।
आपसे हमारी अपील है कि हर गाँव, शहर, गली और मुहल्ले, खेत और खलिहान में शांति और सद्भावना, दोस्ती और भाईचारा का माहौल बनाए रखें। विशेषकर जो गांव के गंवई लोग हैं, ग़रीब और लाचार लोग हैं, अमनपसंद लोग हैं, बुद्धिजीवी भाई हैं , धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करने वाले हैं, उन सभी भाइयों से हम अपील करते हैं। आज देश ऐसे नाजुक मोड़ पर खड़ा है कि इस देश की रखवाली करना, देश को बचाने की जिम्मेवारी आपके कंधों पर है। आप अफ़वाहों पर कान न दें। हर क़दम, हर मोर्चे पर साम्प्रदायिकता को शिक़स्त दें, सभी हिन्दू-मुस्लिम भाइयों से निवेदन है कि वे धैर्य और संयम बरतें। उकसावे में न आवें, देश की बहुसंख्यक ग़रीब और लाचार जनता धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करती है, और इन्ही ताक़तों के द्वारा हम उस जहरीले सांप को जिसने देश को ऐसे मोड़ पर खड़ा किया है, उसके घाव को निकालने का काम करेंगे।
हम बिहार के भाइयों और बहनों से पुरज़ोर अपील करते हैं कि जहां अपना राज्य भूख , अकाल और सुखाड़ में है, वहीं ऐसे हालात पैदा करने के पीछे के कारण आप आसानी से समझ सकते हैं। उनकी मंशा ग़रीबों की भलाई नहीं है, उनकी इच्छा है कि हिन्दुत्व फैलाओ, हिन्दू-मुस्लिम दंगे कराओ और फिर से दिल्ली की गद्दी पर आसीन हो जाओ, यही इसके मन में अरमान है। इनके अरमान को हम सफल नहीं होने देंगे। ग़रीब जनता से, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई भाई और बहन से हम अपील करते हैं कि आज इस देश की रक्षा की जिम्मेवारी विशेषकर बिहार के लोगों के कंधों के ऊपर है। जो भाई-भाई में फूट डालनेवाली ताक़तें हैं, उनको दरकिनार करेंगे, यही हम आप सबसे अपील करते हैं।
बिहार से ही सद्भावना का संदेश पूरे देश में फैला। पूरे देश को एकजुट होकर माला में गूंथने की जिम्मेवारी आप सभी के कंधों पर है। हम आपसे आपका सहयोग चाहते हैं। सरकार ने हर जगह निगरानी रखी है, हम हर जगह जागरूक हैं, सचेत हैं। शासन को हिदायत दी गई है कि जहाँ भी कोई बलवाई हो, चाहे वो किसी धर्म, किसी मजहब का मानने वाला हो, उससे सख़्ती बरती जाय। दंगा-फ़साद को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। इस कार्रवाई में हम लगे हैं, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेवारी जो गांव के लोग हैं, मोहल्ले के लोग हैं, ग़रीब लोग हैं, लाचार लोग हैं, जिनसे औजार बनवाया जाता है दंगा-फ़साद कराने के लिए, उनसे हमारी अपील है कि इन ताक़तों से अलग-थलग रहेंगे, कोई भी अफ़वाह नहीं सुनेंगे।
इन्हीं शब्दों के साथ हम सभी भाइयों-बहनों को इकट्ठे नमस्कार, जय हिंद, आदाब-सलाम करके अपनी अपील को, अपनी बात को समाप्त करते हैं।
ज़ाहिर है कि आज तक बाबरी का मसला सुलझा नहीं और जो राष्ट्रीय एकता व सांप्रदायिक सौहार्द को क्षति पहुंची, परस्पर अविश्वास की खाई बढ़ी, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। वसीम बरेलवी ने ठीक ही कहा :
तुम गिराने में लगे थे तुमने सोचा भी नहीं
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊंगा।
जमीन समतल करने का आह्वान करनेवाले अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय राजनीति के उदार चेहरे के रूप में स्थापित करने की आकुलता के दौर में जहां धर्मनिरपेक्ष देश को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की जबरन कोशिश की जा रही है, वैसे में सामाजिक फ़ासीवाद से जूझने का जीवट रखने वाले मक़बूल जननेता लालू प्रसाद कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते। उनके लिबरेटिव रोल पर ख़बरनवीसों ने बहुत कम कलम चलाई है। पर एक दिन इतिहास उनका सही मूल्यांकन करेगा।
लोकतंत्र में चुनावी तंत्र की कमज़ोरियों का लाभ उठाकर सत्तासीन होने वाले लोग जब ये भूल जाते हैं कि जम्हूरियत जुमलेबाजी से नहीं चला करती, न ही यह किसी की जागीर होती है, तो सामाजिक न्याय व सांप्रदायिक सौहार्द के लिए बड़ा संकट पैदा हो जाता है। चाहे बहुमत की सरकार हो या अल्पमत की, लोकराज लोकलाज से ही चलना चाहिए। एक तरफ विकास के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं, दुनिया भर में घूम-घूम कर डंका पीटा जा रहा है, तो दूसरी ओर लोगों को गृहदाह की ओर धकेला जा रहा है। ख़ुद प्रधानमंत्री धर्मनिरपेक्षता शब्द की घर-बाहर गाहे-बगाहे खिल्ली उड़ाते फिरते हैं। तो, गृहमंत्री धर्मनिरपेक्षता की बजाय पंथनिरपेक्षता शब्द को सटीक बताते हुए उसके प्रयोग पर बल देते हैं। मतलब, संविधान की मूल भावना से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। सदाशयी, सद्विवेकी दृष्टिकोण के अभाव में देश कभी खड़ा नहीं हो सकता, दो क़दम नहीं चल सकता, सवा सौ करोड़ क़दम चलने की बात तो छोड़ ही दीजिए। इसलिए, बकौल डॉ. बरेलवी,
घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे।
जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव निकट आ रहे हैं, भाजपा को अयोध्या में भव्य राम मंदिर की आवश्यकता कुछ ज़्यादा ही महसूस होने लगी है। अर्थव्यवस्था की माली हालत सुधारने की सरकार की प्राथमिकता काफूर होने लगी है, ‘सहकारी संघवाद’ महज जुमला बन के रह गया है। यह सिर्फ और सिर्फ बहुसंख्यक आबादी के मन में मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाकर हिन्दुत्व के नाम पर गोलबंद करने की ओछी हरकत है। ये वही लोग हैं जिनके लिए मुँह में राम, बगल में छूरी कहावत सटीक बैठती है। समाज के वंचित तबके की घनीभूत पीड़ा व इंसान के रूप में पहचाने जाने के उसके सतत संघर्ष की ईमानदार व उर्वर अभिव्यक्ति के ज़रिये अभिजात्य शासक वर्ग की अमानुषिक प्रणाली के चलते इस देश की सदियों की कचोटने वाली हक़ीक़त से जब साक्षात्कार कराया जाता है, तो सत्ता तंत्र को सांप सूंघने लगता है। साथ ही, इस मुल्क के निर्माण में इन शोषितों के अनूठे योगदान की जब कोई मुखर होकर चर्चा करता है, तो उसे जातिवादी व समाज को तोड़ने वाला तत्त्व बता दिया जाता है। अदम गोंडवी ने हिन्दुस्तान की जाति-व्यवस्था व हिंदू धर्म की विसंगतियों व विद्रूपताओं पर तंज कसते हुए कहा था –
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का यथार्थ
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें
मंदिर के बाबत केएन गोविन्दाचार्य ने 13 पन्नों का ख़त लिखा प्रधानमंत्री कार्यालय को। ये क्या बखेड़ा चल रहा है इस मुल्क में? न्यायालय की पूरी तरह अवमानना की जा रही है, उसे फॉर ग्रांटेड लिया जा रहै है। भैयाजी जोशी ने अयोध्या जाकर बयान दिया, “तिरपाल के अंदर भगवान राम का वो आखिरी बार दर्शन कर रहे हैं”। गिरिराज सिंह ने कहा, “अब हिन्दुओं का सब्र टूट रहा है। मुझे भय है कि हिंदुओं का सब्र टूटा तो क्या होगा? उस पर तेजस्वी यादव ने फौरन फटकार लगाई, “काहे बड़बड़ा रहे हैं, किसी का सब्र नहीं टूटा है। ठेकेदार मत बनिए, ये मगरमच्छी रोना रोने से फुर्सत मिले तो युवाओं की नौकरी, विकास और जनता की सेवा की बात करिए”।
राजनैतिक उत्तेजना का माहौल बनाने की मंशा रखने वालों को अखिलेश यादव ने चेतावनी दी कि धार्मिक उन्माद फैलाने वाले सबसे खतरनाक हैं।
सिर्फ़ फजुल्ला चीजों को मुद्दा बनाया जा रहा है। बिहार में 80 साल के बुजुर्ग का क़त्ल कर दिया गया, मगर क्राइम, करप्शन व कम्युनलिज़म का राग अलापने वाले नीतीश कुमार के होंठ संघ ने सिल दिए हैं। वहीं दिल्ली में बैठे ये अहमक स्मार्ट सिटी तो बना नहीं पाए, शहरों के नाम ही बदल कर अपनी हिकारत का प्रदर्शन करने में लगी है मौजूदा सरकार। फैजाबाद का नाम बदल कर अयोध्या कर दिया गया, इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज कर दिया, जिससे लोककल्याण का कुछ लेनादेना नहीं।
देश को आग में झोंकना हमारे दोहरे मापदण्ड वाले क्षुद्र सामाजिक व सियासी समझ के लोगों की कुंठा का द्योतक है। बावजूद इसके, कुछ लोग इस सरकार, इसकी असह्य बदमाशी, अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की घिनौनी हरकत और सामाजिक समरसता को तार-तार करने के कुटिल षडयंत्र, राम मंदिर के नाम पर धार्मिक उन्माद में देश को झुलसाने वाले एजेंडे को समय रहते समझने से लगभग इंकार कर रहे हैं। संघ परिवार के नीति नियंताओं को देश के तानेबाने, जनता के मानस व मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब से कोई लेनादेना नहीं है।
आज चारों ओर नवउदारवाद का कहर बरपा हुआ है, बाज़ारवाद का डंडा चल रहा है, डब्ल्यूटीओ के सामने घुटने टेक कर शिक्षा को बाज़ार की वस्तु बना दी गयी है। लोगों को दो जून की रोटी नहीं नसीब हो रही है, बुंदेलखंड मे सूखे की मार है, लोग त्रस्त हैं, और हमारे देश की ढीठ सरकार को राम मंदिर की पड़ी है। दो साल पहले स्वामी की नेशनल चैनल पर एक तरह से ये धमकी कि हम फिर से नहीं चाहते कि ख़ून-ख़राबा हो, 2000 लोग फिर से मारे जायें, इसलिए आपसी सहमति से, प्यार से मंदिर के निर्माण पर मुसलमान लोग मान जायें। एक ओर सेल्फी विद डॉटर का तामझाम प्रधानमंत्री करते हैं, तो दूसरी ओर उनके मंत्री से लेकर पार्टी पदाधिकारी अंटशंट काम में संलिप्त रहते हैं। और, आप भलीभाँति जानते हैं कि जिस दिन मातृशक्ति, माँ की सत्ता अपना आपा खोती है, बड़ी-बड़ी शक्तियाँ उखड़ जाती हैं। यह अनावश्यक बखेड़ा, घृणा व नफ़रत की सियासत इस अकर्मण्य सरकार की शिक्षा-विरोधी, छात्र-विरोधी, किसान विरोधी, जवान विरोधी छवि को हमारे सामने रखता है।
एक ऐसा कैंपस जहां से नजीब दिनदहाडे गायब हो जाता हो और सीबीआई उसे देश की राजधानी में ढूंढने में नाकाम रहती हो, उसी जेएनयू परिसर में जब हिंदुत्व के नाम पर राममंदिर के निर्माण हेतु उतावले बाहरी लोगों को जुलूस निकालने की अनुमति शासन-प्रशासन से मिल जाती हो, तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश कहां से संचालित, निर्देशित व नियंत्रित हो रहा है। किससे छुपा है कि वह कौन संघ है जो मनुविधान को संविधान के ऊपर वरीयता देता है? संविधानेतर शक्तियों का दोहन कौन कर रहा है?
इस मोड़ पर दो तस्वीरें उभड़ती हैं- एक, जहां सरकार के बडे पुलिस अधिकारी कांवडियों पर पुष्पवृष्टि कर रहे हैं, तो दूसरी, जहां गाय के नाम पर पागल हो चुकी भीड़ की हिंसा में बुलंदशहर में शहीद हुए इंस्पेक्टर के शव को वो कंधा दे रहे हैं। यह हालात कौन पैदा करा रहा है? हालांकि, परदे के पीछे की कहानी और भी है। सुधीर सिंह के बेटे ने जो कहा, वह विह्वल कर देने वाला है, “मेरे पिता चाहते थे कि मैं देश का अच्छा नागरिक बनूं। ऐसा इंसान, जो धर्म के नाम पर समाज में हिंसा न भड़काए। आज हिंदू-मुस्लिम विवाद में मेरे पिता की जान गई. कल किसके पिता को अपनी जान गंवानी पड़ेगी?” वहीं, सुधीर सिंह की बहन का बयान तंत्र की बेशर्मी, क्रूरता व हैवानियत को दर्शाता है, “मेरा भाई अख़लाक केस की जांच में था, इसलिए उनको मारा गया। ये पुलिस के द्वारा की गई साजिश है। उनको शहीद घोषित करना चाहिए और मेमोरियल बनना चाहिए। हमको पैसे नहीं चाहिए। सीएम सिर्फ गाय गाय करते रहते हैं।”
सचमुच, नफ़रत के पास भीड़ है नारा है जोश है
मैं बात कर रहा हूं मोहब्बत की अम्न की
तन्हा हूं और जिंदा हूं, हैरत की बात है।
(प्रो. बरेलवी)
एक ऐसे दौर में जब एसएचओ सुधीर सिंह की जान उन्मादी भीड़ ले लेती हो, लोकतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील किया जा रहा हो, बहुतेरे न्यूज़ चैनल्स आग में घी डालने का काम कर रहे हों, वहां बड़े सद्विविकी व दूरदर्शी नेताओं की एक पूरी की पूरी जमात की ज़रूरत है जो इस देश व समाज में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व के जज़्बे को मज़बूत करने में अपनी महती भूमिका निभा सके। राजनेताओं का काम महज चुनाव लड़ना व जीतना नहीं है, अपितु एक सुंदर संसार की रचना हेतु सुसूचित, परिपक्व व संवेदनशील नागरिक के निर्माण में योगदान देना भी है। यह काम लोकतंत्र के चारों स्तम्भ- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व संवादपालिका, मिल कर करें तो समाज की बीमार हो चुकी रूह की तीमारदारी हो सकती है, उसकी बदसूरती थोडी कम की जा सकती है। वेल इनफॉर्म्ड लोगों के मीडिया मेनिपुलेशन का शिकार होने का खतरा कम रहता है।
क्यों बाँटते हो अनासिर के हसीं संगम को
आग, पानी, हवा, मिट्टी की कोई जात नहीं।
(मसऊद अहमद)
मेरा ख़याल है कि इस पाखंड से भरे खंड-खंड समाज वाले देश के आधुनिक इतिहास में आजादी से भी कहीं अहम व हसीन घटना कोई दर्ज हुई है, तो वो है संविधान का निर्माण और उसका अंगीकृत, अधिनियमित व आत्मर्पित होना। इस नाजुक घडी में असहमति के साहस व सहमति के विवेक के साथ बडी संजीदगी से समाज व मुल्क को बचाने की ज़रूरत है ताकि आने वाली नस्लों की दुश्वार राहें हमवार हो सकें। इसलिए, आज ज़रूरत है कि हम सब इस देश में क़ौमी एकता व अमन चैन के लिए नफ़रतगर्दों के हर एक मंसूबे पर पानी फेरें व धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को कमज़ोर न पड़ने दें। आज की तारीख़ में संविधान व संवैधानिक संस्थाओं को बचाना व उसकी गरिमा को बहाल करना दरअसल जम्हूरियत को बचाना है।
– जयन्त जिज्ञासु,
शोधार्थी, सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़, जेएनयू, नई दिल्ली