आख़िर सिखों से माफ़ी क्युं मांग रहा है कनाडा ?

कनाडा में भारतीय मूल के करीब 14 लाख लोग रहते हैं लेकिन आज़ादी से पहले वहां हिंदुस्तानियों के बसने की इजाजत नहीं थी.

भारतीय वहां काम की तलाश में जाते थे लेकिन उन्हें परिवार समेत वहां आने की मनाही थी.

उस वक्त की कनाडा सरकार ने एशियाई और अफ़्रीकी मूल के लोगों को यहां आने से रोकने के लिए क़ानून बना रखे थे.

यह क़ानून था कंटिन्यूअस पैसेज एक्ट. यानी समुद्र में बगैर रुके अगर कोई जहाज कनाडा के तट पर पहुंचता है तभी उसे कनाडा में घुसने की अनुमति दी जाएगी.

1914 में कोमागाटा मारू नामक एक जहाज में 300 से अधिक हिंदुस्तानी मुसाफिर कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया तट पर पहुंचे थे. जहाज़ को ग़दर पार्टी से संबंधित गुरदीत सिंह ने किराए पर लिया था.

यह जहाज हांगकांग से सीधी यात्रा कर वहां पहुंचा था. यह कनाडा के उस हिस्से में पहुंचा था जहां ब्रिटिश शासन था.

भारतीयों का यह मानना था कि वो उन जगहों पर अपनी रोजी रोटी के लिए जा सकते हैं जहां-जहां ब्रिटिश राज है.

उसी कड़ी में लोग कनाडा पहुंचे. लेकिन जो लोग नस्लवाद के पैरोकार थे वो बाहर से आने वाले लोगों को यहां आने नहीं देना चाहते थे.

23 मई को वैंकुवर पहुंचे इस जहाज को वहां समुद्र तट पर ही दो महीने तक रोके रखा गया और कनाडा में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई.

कोमागाटा मारू में सवार 376 भारतीय मुसाफिरों में से सिर्फ़ 24 को कनाडा सरकार ने वैंकूवर में उतरने दिया था.

कनाडा के अधिकारियों का कहना था कि कोमागाटा मारू पर इस यात्रा के बीच में लोग चढ़ाए गए हैं.

1913 में कनाडा और अमरीका में रह रहे प्रवासी भारतीयों की बनाई गदर पार्टी ने कनाडा की सरकार पर यात्रियों को वहां उतारने का दबाव डाला इसके बावजूद तट पर दो महीने तक रखने के बाद उन्हें वापस भारत भेज दिया गया.

लगभग छह महीने समुद्र में घूमने के बाद यह जहाज़ सितंबर 1914 में कोलकाता के पास बज बज बंदरगाह पहुंचा. बंगाल सरकार के प्रशासन ने यह फ़ैसला किया कि जहाज में सवार सभी लोगों की पहले शिनाख्त की जाएगी. इसके लिए उन्हें एक ट्रेन से बिना हावड़ा और कलकत्ता गए पंजाब ले जाया जाएगा. लेकिन केवल 62 यात्री इसके लिए तैयार हुए. बाकियों ने इसका विरोध किया और फिर 29 सितंबर 1914 को यात्रियों और पुलिस के बीच गंभीर झड़प शुरू हो गई.

झड़प इतनी गंभीर थी की सेना बुलानी पड़ी. यात्रियों पर गोलियां चलाई गईं. जिसमें 20 सिख यात्री मारे गए. साथ ही एक पुलिस अधिकारी, एक रेलवे अधिकारी, पंजाब पुलिस के दो अधिकारी, बज बज के रहने वाले दो भारतीय की भी इस झड़प में मौत हो गई.

कोमागाटा मारू की घटना को लेकर बहुत हंगामा हुआ. एक समिति गठित की गई जिसने दिसंबर 1914 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. इसमें 321 यात्रियों का जिक्र है जो कोमागाटा मारू से बज बज पहुंचे थे. इसके मुताबिक 62 लोगों को ट्रेन से पंजाब भेजा गया. 20 यात्री मारे गए. 211 यात्रियों को गिरफ़्तार किया गया जबकि 23 यात्री फरार हो गए.

लेकिन इस पूरे जत्थे के मुखिया गुरदीत सिंह ने अपनी किताब में लिखा कि अंग्रेज़ सिपाहियों ने इस पूरे प्रकरण की शुरुआत की. उन्होंने लिखा, ‘हम सभी प्रार्थना के लिए जुटे थे. गुरु ग्रंथ साहिब बीच में रखी थी. लेकिन एक पुलिस वाले ने बीच में घुस कर लाठी चलाई. इस पर सरदार कमल सिंह ने उससे लाठी छीन ली. इसे देखते हुए एक दूसरा पुलिस वाला इस भीड़ में पहुंचा जिसे ग्रंथी ने गुरु ग्रंथ साहिब तक पहुंचने से रोका. तभी एक तीसरे पुलिस वाले ने गोली चला दी. बिना कोई चेतावनी दिए गोली चलाई गई.’

द वॉयज ऑफ़ द कोमागाटा मारू में ह्यूज जेएम जॉन्सटन लिखते हैं, “कोमागाटा मारू के यात्रियों के साथ क़ानून का उल्लंघन करने वालों की तरह व्यवहार किया गया.”

इस घटना के बाद भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ बहुत गुस्सा पैदा किया.

कनाडा स्थित रैडियल देसी के संस्थापक संपादक गुरप्रीत सिंह ने बीबीसी से कहा कि कोमागाटा मारू की घटना ने आज़ादी की लड़ाई को प्रचंड किया और लोगों में जहां और भी गुस्सा भरा वहीं बगावत भी तेज़ हुई.

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने इसी घटना को लेकर अपने सदन में माफ़ी मांगी थी.

कोमागाटा मारू पर सवार यात्रियों के वंशजों और सिख समुदाय से माफ़ी मांगते हुए उन्होंने कहा था कि जिस दर्द और तकलीफ़ से वो लोग गुज़रे हैं उसे कोई शब्द मिटा नहीं सकता. उन्होंने कनाडा सरकार के तब के क़ानून को इस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया और कहा कि उसकी वजह से हुई बाद में मौतों का उन्हें दुख है.

“पिछले प्रधानमंत्री स्टीफ़न हार्पर ने भी माफ़ी मांगी थी लेकिन उन्होंने माफ़ी एक पार्क में मांगी थी. सिख समुदाय चाहता था कि यह माफ़ी संसद में मांगी जाए जिसे ट्रूडो ने किया.”

“कोमागाटा मारू घटना के बाद लोग क्रांतिकारी घटनाओं में शामिल हुए. यह बहुत महत्वपूर्ण अध्याय था. कनाडा की सरकार ने माफ़ी मांग ली लेकिन भारत सरकार ने बहुत दिनों तक यह स्वीकार नहीं किया कि वो स्वतंत्रता सेनानी थे.”

कनाडा सरकार ने कोमागाटा मारू घटना की शताब्दी पर डाक टिकट भी जारी किया था.

साभार : बीबीसी न्यूज़ हिन्दी