इस लिए मेरी किताब “चम्पारण 1917” में गांधी स्पेशल एपियरेंस की तरह ही हैं, नायक की भूमिका में नहीं.

 

Pushya Mitra 

आज राजकुमार शुक्ल की जयंती है. 143वीं. राजधानी पटना में आज एक संस्था उनपर केंद्रित आयोजन कर रही है और इस मौके पर उन पर लिखे गये स्मृति ग्रंथ ‘बिहार का अख्यात गांधी’ का लोकार्पण भी हो रहा है. यह आयोजन पं. राजकुमार शुक्ल स्मारक न्यास की तरफ से आयोजित हो रहा है, जिसके संयोजक शुकुल जी के नाती रवि भूषण राय हैं.

रवि भूषण राय से मैं पिछले साल अप्रैल के महीने में पहले मिला था. तब बिहार सरकार चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की तैयारी कर रही थी. अवकाश प्राप्त दारोगा रवि भूषण राय हमारे दफ्तर आये थे, उनकी शिकायत थी कि सरकार इस भव्य आयोजन में उस राजकुमार शुक्ल के परिजन को याद नहीं कर रही, जिन्हें पहली दफा गांधी को बिहार लाने का श्रेय जाता है. बाद में उनसे कई दफा बातें हुईं, उन्होंने बड़े दुख के साथ कहा कि स्थिति यह है कि इस अभूतपूर्व मौके पर भी आप चाहें तो राजकुमार शुक्ल के गांव तक नहीं पहुंच सकते, सड़कों का इतना बुरा हाल है. गुजरात से एक डेलीगेशन उस साल आया था. भितिहरवा आश्रम घूमने के बाद उसने शुकुल जी के गांव सतवरिया जाने की कोशिश की, मगर सड़कें इतनी खस्ताहाल थी कि उन्हें बीच रास्ते से लौटना पड़ा.

बाद में मैं भी उस गांव गया. रवि भूषण जी के भतीजे की बाइक पर बैठकर गिरता-पड़ता सतवरिया पहुंचा. वहां मेरी मुलाकात रवि भूषण जी के बड़े भाई मणिभूषण जी से हुई जो अब काफी वृद्ध हो चुके हैं. उन्होंने मुझे राजकुमार शुक्ल की वह डायरी दिखाई जिसमें साल 1917 के विवरण दर्ज हैं. कैथी लिपि में लिखी इस डायरी का महत्व इसलिए है, क्योंकि इसमें चंपारण सत्याग्रह के दौरान हुई घटनाओं का ब्योरा है.

यह दुःखद है कि चंपारण सत्याग्रह की ब्रांडिग राष्ट्रीय स्तर पर करने वाली बिहार सरकार राजकुमार शुक्ल का महत्व नहीं समझती. संभवतः सरकार के लोग शुकुलजी को एक सामान्य किसान नेता मानते रहे हैं, क्योंकि गांधी ने भी अपनी आत्मकथा में और चिट्ठियों में उन्हें अनपढ़ किसान कहा था. मगर जब हम चंपाऱण सत्याग्रह की घटनाओं का बारीकी से अध्ययन करते हैं तो शुकुलजी के किरदार का महत्व समझ आता है.

आप एक ऐसे इंसान के बारे में सोचिये जो 1915 से ही गांधी जी को चंपारण लाने की कोशिश में जुटा है. यह वही साल है जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आये थे. शुकुलजी अहमदाबाद के आश्रम में जाते हैं तो पता चलता है गांधी पुणे चले गये हैं. शुकुलजी लौट कर कानपुर आते हैं और प्रताप अखबार के संस्थापक संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलते हैं. फिर शुकुल जी बिहार प्रांतीय कांग्रेस के अधिवेशन में अपने साथियों के साथ पहुंचते हैं, वहां चंपारण का मसला उठाते हैं. वहां एक प्रतिनिधिमंडल का गठन होता है, जिसे 1916 में लखनऊ में आयोजित कांग्रेस के राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाना है. उस प्रतिनिधिमंडल में चंपारण के अपने साथियों के साथ शुकुलजी भी होते हैं.

लखनऊ में शुकुलजी कांग्रेस की सभा के सामने चंपारण के किसानों का दुख दर्द बखान करते हैं और तिलक, मालवीय और गांधी के पीछे पड़ जाते हैं कि आपको चंपारण चलना ही होगा. शुकुलजी कुछ इस तरह पीछे पड़ जाते हैं कि गांधी को हां कहना पड़ता है, मगर इतने से शुकुलजी नहीं मानते. वे गांधी के पीछे-पीछे कानपुर पहुंच जाते हैं, कहते हैं तारीख दीजिये. चंपारण आकर वे गांधी से पत्राचार करते हैं कि कब आइयेगा. और गांधी के कोलकाता पहुंचने पर वहां पहुंच जाते हैं और गांधी को खींच कर जबरन चंपारण ले आते हैं, उस चंपारण में जहां से भारत में गांधी का राजनीतिक जीवन शुरू होता है. सत्याग्रह की शुरुआत होती है, गांधी एक वस्त्र पहनने का संकल्प लेते हैं, सामाजिक कार्यों की शुरुआत करते हैं. और अपने आंदोलनों की रूपरेखा तैयार करते हैं.

शुकुलजी का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि वे गांधी का महत्व तब से समझते थे, जब देश में गांधी आये ही थे. बल्कि वे यह भी समझते थे कि चंपारण के किसानों की लड़ाई को स्थानीय आंदोलन के जरिये नहीं जीता जा सकता. इसके लिए चंपारण को नेशनल इश्यू बनाना होगा. वे कोलकाता से लेकर कानपुर तक की नियमित यात्रा करते थे और आनंद बाजार पत्रिका से लेकर प्रताप तक जैसे अखबारों के संपादक से संपर्क में रहते थे. उन्हें और उनके संवाददाताओं को चंपारण से जुड़ी खबरों के इनपुट देते थे. वे ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे वकील के संपर्क में थे, जो बिहार स्टेट लेजिस्लेटिव काउंसिल के मेंबर थे. ब्रजकिशोर प्रसाद ने उनके ही इनपुट से काउंसिल में चंपारण का सवाल उठाया था.

शुकुलजी लगातार घूमते थे. चंपारण के गांवों से लेकर बेतिया, मोतिहारी और मुजफ्फरपुर तक रैयतों के मुकदमे की पैरवी के लिए और पटना, लखनऊ, कोलकाता, कानपुर और अहमदाबाद तक चंपारण के सवाल को आगे बढ़ाने के लिए. गांधी जी ने उन्हें अनपढ़ किसान लिखा है, मगर वे कई अखबारों के नियमित ग्राहक थे. और उनकी समझ कितनी साफ थी, यह चंपारण के सवाल को लेकर गठित जांच आयोग के सामने पेश किये गये उनके बयान को पढ़कर समझा जा सकता है.

यह चंपारण सत्याग्रह की सफलता ही थी कि बिहार में राजेंद्र बाबू, मजहरूल हक, ब्रजकिशोर बाबू जैसे लोगों की राष्ट्रीय पहचान बन गयी. मगर इस आंदोलन के जमीनी सिपाही राजकुमार शुक्ल, पीर मोहम्मद मूनिस, शेख गुलाब, हरबंस सहाय आदि लोग चंपारण तक ही सीमित रह गये. गांधी के जाने के बाद इन्होंने घनघोर यातनाएं सहीं, अंगरेजों ने इन्हें खूब परेशान किया. कहते हैं, एक बार ने गांधी से मिलने अहमदाबाद गये थे तो कस्तूरबा इनकी सेहत देखकर रोने लगीं. आखिरकार 1929 में शुकुलजी का निधन हो गया.

उनके निधन के बाद किसी सरकार ने उनकी सुध नहीं ली. मदद की भी तो उस नीलहे प्लांटर एसी एम्मन ने जिसके खिलाफ वे ताउम्र लड़ते रहे. उन्होंने शुकुलजी के दामाद को पुलिस सेवा में नौकरी लगवा दी. बेटी ही शुकुलजी की वारिस थी. आजादी के बाद भी सरकारों ने उन पर ध्यान नहीं दिया.

बिहार सरकार के चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की सबसे बड़ी विडंबना यही रही कि सरकार ने गांधी को तो खूब याद किया, मगर इन स्थानीय नायकों को स्थापित करने के लिए कुछ भी नहीं किया. इनके लिए सिर्फ रस्मअदायगी होती रही. यही वजह है कि आज भी आप राजकुमार शुक्ल के गांव नहीं पहुंच सकते, शेख गुलाब के गांव साठी चले भी जायें तो उनका घर नहीं ढूंढ सकते. सरकार शायद इस बात को नहीं मानती कि जो समाज अपने नायकों को इस तरह उपेक्षित रखता है वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता. बहरहाल मेरे लिए आज भी जब चंपारण का सवाल आता है तो नायकों की श्रेणी में मैं राजकुमार शुक्ल, पीर मोहम्मद मूनिस, शेख गुलाब, हरबंस सहाय, शीतल राय, संत भगत आदि को देखता हूं.

इसलिए मेरी किताब चम्पारण 1917 में गांधी स्पेशल एपियरेंस की तरह ही हैं, नायक की भूमिका में नहीं.