Md Umar Ashraf
10 नवंबर 1871 को बकसर ज़िले के चौंगाईं प्रखण्ड के मुरार गांव में एक इज़्ज़तदार कायस्थ परिवार मे पैदा हुए डॉ सच्चिदानंद सिन्हा ने इबतदाई तालीम (प्राथमिक शिक्षा) गांव में ही हासिल की, बचपन से ही पढ़ने मे बहुत ज़हीन थे इस वजह कर मैट्रिक का इम्तेहान ज़िला स्कूल आरा के बाद टी. को. घोष स्कुल से काफ़ी अच्छे नम्बर से पास किया। 26-29 दिसम्बर 1888 को इलाहाबाद मे हुए कांग्रेस चौथे सेशन मे दर्शक की हैसियत से हिस्सा लिया। सियासत मे दिलचस्पी देख घर वालों ने अठारह साल की उम्र में ही 26 दिसम्बर 1889 को बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया और वो पहले बिहारी कायस्थ थे जो विदेश गए। वहां उनकी सक्रियता को नया आयाम देने दो नए दोस्त मज़हरुल हक़ और अली इमाम आ जुड़े। यह 1890 का दौर था। इंग्लैंड में मुस्लिम सटुडेंट की अच्छी ख़ासी तादाद थी। वहां उन लोगों के लिए मज़हरुल हक़ ने एक संस्था भी बनाई “अंजुमन-ए- इस्लामिया”। इस संस्था की बैठकों में सच्चिदानन्द सिन्हा अक्सर शामिल होते। बंगाल से बिहार को अलग कर ख़ुदमुख़्तार रियासत बनाने में इसी दोस्ती ने सबसे अहम किरदार निभाया था। इंग्लैंड से 1893 में हिंदुस्तान वापस लौट कर इलाहाबाद हाईकोर्ट में सालों तक प्रैक्टिस की।
#DrSachchidanandaSinha : a maker of Bihar and modern India.#SachchidanandaSinha (10 November 1871 — 6 March 1950) was an Indian lawyer, parliamentarian, and journalist who served as the first President of Constituent Assembly of India from
9 December 1946 to 11 December 1946. pic.twitter.com/27Ma8qQGgn— Heritage Times (@HeritageTimesIN) November 10, 2018
1894 मे सच्चिदानंद सिन्हा की मुलाक़ात जस्टिस ख़ुदाबख़्श ख़ान से हुई और वोह उन से जुड़ गए और जस्टिस साहेब के काम मे उनकी मदद करने लगे. और जब जस्टिस ख़ुदाबख़्श ख़ान का तबादला हैदराबाद हुआ तो उनकी लाईब्रेरी का पुरा दारोमदार सिन्हा साहेब ने अपने कांधे पर ले लिया और 1894 से 1898 तक ख़ुदाबख़्श लाईब्रेरी के सिक्रेट्री की हैसियत से अपनी ज़िम्मेदारी को अंजाम दिया। इसी बीच कई एैसे वाक़ीयात हुए जिसने सच्चिदानंद सिन्हा को बिहार के लिए लड़ने पर मजबुर कर दिया. उन्होंने बिहार को बंगाल से आज़ाद कराने को अपने ज़िन्दगी का सबसे बड़ा मक़सद बनाया और इसके लिए उन्होंने सबसे बड़ा हथियार बनाया अख़बार को। उसके बाद अलग बिहार की मुहिम तेज होने लगी। इस कड़ी में महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह, नंद किशोर लाल, राय बहादुर व कृष्ण सहाय का नाम जुड़ गया। जगह-जगह पर अलग बिहार की मांग को लेकर तहरीक (आंदोलन) होने लगे। बिहार से निकलने वाले अख़बार भी इसके समर्थन में आ गए। इनकी तादाद (संख्या) बहुत कम थी। बंगाली अख़बार अलग बिहार का विरोध करते थे।
उन दिनों सिर्फ़ ‘द बिहार हेराल्ड’ अख़बार था, जिसके ईडीटर गुरु प्रसाद सेन थे। उस वक़्त एक यही अंग्रेज़ी अख़बार था जो किसी बिहारी के निगरानी मे था इस लिए 1894 मे सच्चिदानंद सिन्हा ने “द बिहार टाइम्स” के नाम से एक अंग्रेज़ी अख़बार निकाला जो 1906 के बाद “बिहारी” के नाम से जाना गया। सच्चिदानंद सिन्हा ने कई सालों तक महेश नारायण के साथ इस अख़बार के इडिटर का काम किया और इसके ज़रिया से उन्होंने अलग रियासत “बिहार” के लिए मुहीम छेड़ी। उन्होने हिन्दु और मुसलमानो को “बिहार” के नाम एक होने की लगतार अपील की।नंद किशोर लाल के साथ मिल कर सिन्हा साहेब ने बंगाल लेफ़टिनेंट गवर्नर को मेमोरंडम भेज कर अलग “बिहार” रियासत की मांग भी की।1907 में महेश नारायण के इंतक़ाल (मृत्यु) के बाद डॉ. सिन्हा अकेले से हो गए, इसके बाद वे कमज़ोर तो ज़रुर हुए पर मुहिम पर कोई असर नहीं पड़ा क्युंके उनकी मदद के लिए वो मित्र मंडली पुरी तरह तैयार खड़ी हो थी जिनसे उनकी मुलाक़ात इंगलैंड मे हुई थी।
इसी को आगे बढ़ाते हुए अप्रील 1908 को बिहार प्रोविंसयल कांफ़्रेंस (बिहार राज्य सम्मेलन) सर अली इमाम की सदारत (अध्यक्षता) मे पटना मे हुआ जिसकी पुरी ज़िममेदारी सच्चिदानंद सिन्हा और मज़हरुल हक़ के कंधे पर थी.. इसी कांफ़्रेंस मे सर मुहम्मद फ़ख़रुद्दीन ने एक अलग ख़ुदमुख़्तार रियासत “बिहार” की मांग करते हुए रिज़ुलुशन पास किया जिसे हर ज़िले से आए हुए नुमाएंदों ने सपोर्ट किया। इसी समय सोनपुर मेला के मौक़े पर नवाब सरफ़राज़ हुसैन ख़ान की सदारत (अध्यक्षता) मे बिहार प्रादेश कांग्रेस कमिटी की बुनियाद रखी गई और सैयद हसन इमाम को इसका सदर (अध्यक्ष) और को ख़जांची को ओहदा दिया गया. उपाअध्यक्ष और सिक्रेट्री का ओहदा तीन चार लोग मे बांट दिया गया. इस तरह बिहार से कंग्रेस पर एक-तरफ़ा बंगाली राज को ख़त्म किया गया। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की सदारत मे अप्रील 1909 को मे एक बार फिर बिहार राज्य सम्मेलन भागलपुर मे हुआ और अपनी मांग वापस दुहराई गई।
1910 के चुनाव में चार महाराजों को हरा कर सच्चिदानन्द सिन्हा इंपीरियल विधान परिषद मे बंगाल कोटे से और ठीक उसी समय मौलाना मज़हरुल हक़ मुसलिम कोटे से बतौर प्रतिनिधि निर्वाचित हुए, जो के बिहारीयों के हक़ के लिए लड़ने वालों की बड़ी उपलब्धी थी, सच्चिदानन्द सिन्हा से 1910 से 1920 तक इस पद पर रहे। फिर 1921 मे सच्चिदानन्द सिन्हा केन्द्रीय विधान परिषद के मेम्बर के साथ इस परिषद के नाएबसदर (उपाअध्यक्ष) भी रहे। उसी समय लॉ मेम्बर अस.पी. सिन्हा ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया तब वाईसरॉय लारड मिंटो ने डॉ सच्चिदानंद सिन्हा से इस पद के लिए सबसे क़ाबिल शख़स का नाम पुछा तो उन्होने सर अली ईमाम का नाम आगे कर दिया, पर अली ईमाम ने इस पद पर जाने से इंकार कर दिया लेकिन सच्चिदानंद सिन्हा के बार बार ज़ोर ड़ालने पर वो खुद को रोक नही पाए और लॉ मेम्बर अस.पी. सिन्हा की जगह ले ली। 25 अगस्त 1911 को सर अली इमाम ने उस रिपोर्ट को सबमिट किया जिस पर अमल कर हिन्दुस्तान की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली की जा सके.
इसके बाद सर अली इमाम से मिलकर सच्चिदानंद सिन्हा ने केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उन्हे राज़ी किया क्युंके उस समय अली ईमाम एकेले हिन्दुस्तानी थे जो इतने उचे पद पर थे। इसका असर यह हुआ कि 12 दिसम्बर 1911 को अंग्रेजी हुकूमत ने बिहार व उड़ीसा के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल का एलान कर दिया। धीरे-धीरे इनकी मुहिम रंग लाई और हिन्दुस्तान की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली होने से बंगालीयों की एक तरफ़ा दादागिरी मे काफ़ी कमी आई और आख़िरकार 22 मार्च 1912 को बिहार बंगाल से अलग हो कर एक ख़ुदमुख़्तार रियासत हो गया। 26-28 दिसम्बर 1912 को बांकीपुर पटना मे राओ बहादुर रगुनाथ मधोलकर की सदारत (अध्यक्षता) मे हुए कांग्रेस के 27वें सेशन के स्वागत कमिटी के जेनरल सिक्रेट्री का पद सच्चिदानंद सिन्हा ने ही संभाला था.. 1916 से 1920 तक बिहार प्रादेश कांग्रेस कमिटी के सदर रहे. डॉ सच्चिदानंद सिन्हा 1899 से 1920 तक कांग्रेस के मेम्बर रहे और उन्होने होम रूल लीग आन्दोलन मे खुल कर हिस्सा लिया. औऱ 1914 मे काग्रेस के डेलीगेट के तौर पर युरोप के दौरे पर गए.
1927 और 1933 मे अपने निजी ख़र्चे पर युरोप के दौरे पर भी गए। इसी बीच 1918 मे सच्चिदानंद सिन्हा ने सैयद हसन इमाम के साथ मिल कर एक अंग्रेज़ी अख़बार “सर्चलाईट” निकाला क्युंके उनके ज़ेर ए निगरानी चलने वाला “हिन्दुस्तान रिव्यु” फ़ंड की कमी के वजह कर बंद हो गया था। 1921 मे डॉ सिन्हा अर्थ सचिव और कानून मंत्री 5 साल के लिए बनाए गए और इस तरह वोह पहले हिन्दुस्तानी बने जो इस पद पर पहुंचे. इसी दौरान वोह पटना विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर नियुक्त हुए और इस पद पर वोह आठ साल तक रहे। डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा द्वारा अपनी पत्नी स्वर्गीया श्रीमति राधिका सिन्हा की याद मे सिन्हा लाइब्रेरी की बुनियाद 1924 मे डाली गई । डॉ सिन्हा ने इसकी स्थापना लोगों के मानसिक, बौद्धिक एवं शैक्षणिक विकास के लिए की थी। डॉ सिन्हा ने 10 मार्च 1926 को एक ट्रस्ट की स्थापना कर लाइब्रेरी की संचालन का जिम्मा उसे सौंप दिया। इस ट्रस्ट के सदस्यों में पदेन माननीय मुख्य न्यायाधीश, मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री, पटना विश्वविद्यालय के उप कुलपति और उस समय के अन्य कई गणमान्य व्यक्ति आजीवन सदस्य बनाये गए।
डॉ सिन्हा को कोई औलाद (संतान) नहीं थी। उन्होंने अपने मित्र के बेटे को गोद लिया था। उनके दत्तक पुत्र अवैतनिक सचिव बनाए गए। ट्रस्ट डीड में इस बात की व्यवस्था की गई कि परिवार का सदस्य ही सचिव बने और सारे कार्यो का संचालन वही करे। 1929 को दिल्ली मे ऑल इंडिया कायस्थ कांफ़्रेंस डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की सदारत (अध्यक्षता) मे मुकम्मल हुआ. डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा ने एक किताब दो जिल्द मे लिखा जो Eminent Behar Contemporaries और Some Eminent Indian Contemporaries के नाम से 1944 मे शाए हुई. 9 दिसम्बर 1946 को जब भारत के लिए संविधान का निर्माण प्रारंभ हुआ तो तजुर्बा और क़ाबिलयत को नज़र मे रखते हुए डॉ सच्चिदानंद सिन्हा गठित सभा के सदर (अध्यक्ष) बनाए गए।
दुर्भाग्य से जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुई तब उनकी तबियत काफ़ी ख़राब हो गई। तब उनके हस्ताक्षर के लिए मूल प्रति को दिल्ली से विशेष विमान से पटना लाया गया, 14 फरवरी 1950 को इन्होंने संविधान की मूल प्रति पर डॉ राजेंद्र प्रासाद के सामने दसख़त (हस्ताक्षर) किया। इस समय वो भारत के सबसे बुज़ुर्ग लीडर थे। 6 मार्च 1950 को 79 साल की उम्र मे डॉ सच्चिदानंद सिन्हा साहेब का इंतक़ाल हो गया. डॉ सच्चिदानंद सिन्हा साहेब को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करने के लिए उनके हयात मे ही औरंगाबाद मे सच्चिदानंद सिन्हा कॉलेज की बुनियाद 1943 मे डाल दी गई थी. 1924 में उन्होंने अपना आवास बनवाया था, जिसमे आज बिहार स्कूल शिक्षा बोर्ड का दफ़्तर है. उसी के प्रागण में सिन्हा लाइब्रेरी है।