1857 की कहानी, ग़ालिब की ज़बानी 

 

मिर्ज़ा ए.बी बेग

1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन को सिपाही विद्रोह, ग़दर या फ़िर पहला स्वतंत्रता आंदोलन कहा जाए यह कभी न ख़त्म होने वाली बहस है. ऊर्दू भाषा के महान कवि असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब उस समय 60 वर्ष के थे और उन्होंने मई 1857 से जुलाई 1858 तक के दिल्ली के हालात को फ़ारसी भाषा में ‘दस्तंबो’ के नाम से लिखा.

ग़ालिब ने यह किताब चाहे अपनी जान बचाने, पेंशन और पुरस्कार पाने के लिए क्यों न लिखी हो लेकिन इससे दिल्ली और दिल्लीवासियों पर होने वाले अत्याचार का बख़ूबी अंदाज़ा हो जाता है.

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पेश हैं ग़ालिब की किताब के कुछ पन्ने.

11 मई, 1857

इस साल को अंकों के हिसाब से देखें तो इसका अर्थ है ‘रुस्तख़ीज़े बेजा’ यानी बेकार की क़यामत और अगर साफ़ साफ़ पूछो तो 16 रमज़ान 1273 हिज़री को सोमवार के दिन दोपहर के वक़्त यानी 11 मई 1857 को अचानक दिल्ली के क़िले और दीवारें लरज़ उठी, जिसका असर चारों तरफ़ फैल गया.

मैं भूकंप की बात नहीं कर रहा हूँ. इस दिन जो बहुत मनहूस था, मेरठ की फ़ौज के कुछ बदनसीब जांबाज़ सिपाही शहर में आए. निहायत ज़ालिम, उग्रवादी और अंग्रेज़ों के ख़ून के प्यासे.

शहर के विभिन्न दरवाज़ों के चौकीदार जो उन फ़सादियों के पेशे वाले और भाई बंद थे, इसमें कोई हैरत नहीं कि पहले से ही उन फ़सादियों में साठगांठ हो गई हो शहर की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी और नमक के हक़ सब को भूल गए, इन बिन बुलाए मेहमान या आमंत्रित लोगों का स्वागत किया.

उन मदहोश सवारों और अखड़ पैदल सिपाहियों ने जब देखा कि शहर के दरवाज़े खुले हुए हैं और चौकीदार मेहमान नवाज़ हैं तो वे दीवानों की तरह इधर-उधर दौड़ पड़े. जिधर किसी अफ़सर को पाया और जहां आदरणीय लोगों (अंग्रेज़ों) के मकान देखे जब तक उन अफ़सरों को मार नहीं डाला और उनके मकानों को बिल्कुल तबाह नहीं कर दिया उधर से कहीं और नहीं गए.

कुछ मिसकीन गोशानशीन जिनको अंग्रेज़ी सरकार की मेहरबानी से कुछ नमक रोटी मिल जाती थी वे शहर के विभिन्न क्षेत्रों में एक-दूसरे से दूर ज़िंदगी के दिन गुज़ार रहे थे.

ऐसे शांतिप्रिय लोग जो तीर और भाले के फ़र्क़ से अनजान थे और अंधेरी रातों में चोरों के शोर से डर जाते थे, जिनके हाथ तीर और तलवार से ख़ाली थे, सच पूछो तो ऐसे लोग हर गली, हर मुहल्ले और शहर के हर भाग में थे.

ये ऐसे नहीं थे कि लड़ाई कर सकें… वे अपने आप को मजबूर समझ कर सोग और मातम करते हुए अपने घर में बैठ रहे.

ऐसे ही सोग करने वालों में से एक मैं भी हूं. मैं अपने घर में बैठा हुआ था कि हल्ला-गुल्ला सुना. चाहता था कि मालूम करूं कि इतने में शोर मचा कि क़िले के अंदर साहब एजेंट बहादुर और क़िलादार क़त्ल कर दिए गए.

हर तरफ़ से प्यादों और सवारों के दौड़ने की आवाज़ें उठनी शुरू हुईं ज़मीन हर तरफ़ गुलअंदामों (यानी अंग्रेज़ों) के ख़ून से रंगीन हो गई. बाग़ का हर कोना वीरानी और बरबादी के कारण बहारों का क़ब्रिस्तान बन गया.

शरीफ़ों की तबाही

बड़े-बड़े ऊंचे ख़ानदान वालों के घरों में चिराग़ जलाने के लिए तेल नहीं. अंधेरी रात में जब प्यास की शिद्दत बढ़ती है तो बिजली के चमकने का इंतज़ार करते हैं कि देखें घड़ा कहाँ है और प्याला कहाँ रखा है.

ज़माने की ऊँच-नीच का क्या कहूँ कि नीचे स्तर के लोग जो दिन भर मिट्टी बेचने के लिए ज़मीन खोदते थे उनको मिट्टी में सोने के टुकड़े मिल गए और जिन लोगों की महफ़िल में फूलों की आग से चिराग़ जगमगाते रहते थे, अंधेरे घरों में नाकामी और मायूसी के ग़म में डूबे हुए हैं.

शहर के कोतवाल की पत्नी और बेटी के अलावा शहर की सारी नाज़नीनों का ज़ेवर बुज़दिल और काले चोरों के क़ब्ज़े में था.

उन नाज़नीनों में जो ज़रा सा अंदाज़े-नाज़ बाक़ी रहा था, उसे नौ दौलतियों ने छीन लिया, जो मोहब्बत करने वाले पहले फूल जैसे पांव वालों के नाज़ नख़रे उठाते थे वे अब उन बुरे लोगों के नाज़ उठाने पर मजबूर थे. जिसका बाप गलियों की धूल छानता फिरता था वह हवा को भी अपना ग़ुलाम समझ रहा था.

जिसकी माँ पड़ोसी के घर से आग माँग कर लाती थी वह आग पर हुकुम चलाने का दावा कर रही है. कमीन आग और हवा पर राज करना चाहते हैं और हम परेशान लोगों में से हैं जो सिर्फ़ सकून और आराम के कुछ लम्हे और इंसाफ़ चाहने वाले हैं.

डाक की व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई है जिसके कारण बहुत से काम रुक गए हैं. हरकारों ने आना बंद कर दिया है.

क़ैदियों कि रिहाई

मैंने इस बात का ज़िक्र नहीं किया हांलांकि यह बात बयान करने के क़ाबिल थी कि यह ख्याति के भूखे लड़ाका जिस जगह से गुज़रे वहाँ की कारागार का दरवाज़ा खोल दिया और क़ैदियों को आज़ाद कर दिया.

वे पुराने क़ैदी जिन्होंने नई-नई आज़ादी पाई थी शाही दरबार में आकर सजदा (नतमस्तक) किया और किसी इलाक़े की सुबेदारी चाही. मालिकों से भागे ग़ैर-वफ़ादार ग़ुलामों ने बादशाह की चौखट को चूमा और किसी हरे भरे क्षेत्र के राज की मांग की.

कोई भी नहीं बताता है और मुझे भी समझ में नहीं आता कि हर ख़्वाहिशमंद को हाज़री की इजाज़त और हर पनाह मिलने वाले के पनाह क्यों दी जा रही है.

खाने-पानी का अकाल

सारे शहर में 15 सितंबर से हर घर का दरवाज़ा बंद है. दुकानदार ख़रीदार दोनों ग़ायब हैं. न गेहूं बेचने वाला है कि गेहूं ख़रीदें. न धोबी है कि कपड़े धुलने को दें. हज्जाम को कहां ढ़ूंढ़ें कि सर के बाल तराशे और मेहतर को कहां से ढ़ूंढ़ के लाएं कि सफ़ाई करे.

घरों में खाने का जितना सामान था, धीरे-धीरे ख़त्म हो गया. पानी हालांकि बहुत सावधानी के साथ पिया गया लेकिन कूज़े या घड़े में एक क़तरा पानी नहीं बचा.

स्त्री-पुरूष में से किसी में भी बर्दाश्त की ताक़त नहीं रही. सब्र के साथ दिन गुज़ारने और खाने-पीने का सामान हासिल करने का ढोंग देने का भी वक़्त निकल गया.

दो दिन और रात सब भूखे प्यासे रहे. तीसरे दिन महाराजा पटियाला की फ़ौज के सिपाही पहरा देने आ गए और गली वालों ने लूट-मार करने वालों से छुटकारा पाया.

एक दिन अचानक बादल आ गया, पानी बरसा, हमने सेहन में एक चादर बांध ली और एक मटका उसके निचे रख दिया और इस प्रकार पानी हासिल किया.

कहा जाता है कि बादल दरिया से पानी लाता है और ज़मीन पर बरसाता है, इस बार ये बादल जानवरों के तालाब से पानी लाया था यानी जो चीज़ सिकंदर ने अपने राज में ढ़ूंढ़ी थी वह दौलत (यानी पानी) हम परेशान हाल ने इस तबाही और बर्बादी की स्थिति में पा ली.

ग़ालिब ने उस ज़माने की दिल्ली का हाल अपने पत्रों में भी किया है.

ये लेख रविवार, 20 मई, 2007 को बीबीसी हिन्दी पर छपा है।