भारत में यूनानी चिकित्सा पद्धति को ज़िन्दा करने वाले हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन

Md Umar Ashraf

13 अप्रील 1894 को बिहार के शेख़पुरा में पैदा हुए हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब का शुमार हिन्दुस्तान के उन चुनिंदा हकीमों में होता है जिन्होने हिन्दुस्तान में ना सिर्फ़ यूनानी चिकित्सा पद्धति को ज़िन्दा किया बल्के उसे एक नया रुप दे कर स्थाप्ति किया।

हकीम कबीरउद्दीन साहेब के वालिद का नाम शेख़ जमीलउद्दीन था, इब्तदाई तालीम शेख़पुरा में ही हासिल करने के बाद 1905 में हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन अपने भाई हकीम ज़हुरउद्दीन के साथ 11 साल की उम्र में कानपुर आ गए, यहीं मौलाना अब्दुल्लाह कानपुरी और मौलाना अहमद हसन कानपुरी से दो साल तक अरबी और फ़ारसी की तालीम हासिल की।

1907 में हकीम कबीरउद्दीन लखनऊ आ गए, यहां केनिंग कालेज में मौलाना अब्दुल मजीद फ़िरंगीमहली से तालीम हासिल की और थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी दुरुस्त की।

फिर अपने भाई हकीम ज़हुरउद्दीन के साथ हकीम कबीरउद्दीन तकमील उल तिब लखनऊ में दाख़िला ले लिया, लेकिन यहां दिल नही लगा।

फिर 1909 में मदरसा तिबिया देहली में दाख़िला लिया, यहां उन्होने हकीम अब्दुल रशीद रामपुरी, हकीम अब्दुल रहमान पंजाबी, हकीम अब्दुल रज़्ज़ाक़ पीरजी, डॉ अमीर चंद, हकीम मुहम्मद अहमद ख़ान, हकीम ग़ुलाम किबरिया ख़ां से तालीम हासिल की, इनके इलावा मसीह उल मुल्क हकीम अजमल ख़ान के निगरानी मैं प्रैकटिकल भी किया।

हकीम अजमल ख़ान के ज़ेर ए असर रहने से बहुत सारी उनकी ख़ुबी हकीम कबीरउद्दीन साहेब के अंदर भी आने लगी, चुंके हिन्दुस्तान में ब्रिटिश शासन के दौरान यूनानी चिकित्सा प्रणाली को गंभीर झटका लगा था, और उस दौर में हकीम अजमल ख़ान लगातार इस चिकित्सा प्रणाली को बचाने की कोशिश कर रहे थे, और इसी सिलसिले मे उन्होने एक तहरीक शुरु की थी जिसके तहत अऱबी और फ़ारसी ज़ुबान में मौजुद तमाम यूनानी किताबों का अनुवाद उर्दु में करना था।

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हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन चुंके पढ़ने में बहुत ही ज़हीन थे इस वजह कर उन्होने युनानी और जदीद मज़मीन में पहली पोज़ीशन हासिल की जिसके लिए उन्हे शिव प्रासाद बहादुर और शम्स उल उत्बा मेडल से नवाज़ा गया।

मदरसा तिबिया देहली से फ़ारिग़ हो कर हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन लाहौर चले गए और आगे की पढाई के लिए वहीं दाख़िला लिया और ‘ज़िब्दा तह अल हिकमा’ की सनद हासिल की।

हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन को उर्दु, फ़ारसी, अरबी और अंग्रेज़ी में उबूर हासिल था, हिकमत और फ़लसफ़ा में महारत रखते थे इस लिए जिस साल लाहौर के ‘ज़िब्दा तह अल हिकमा’ के इम्तेहान में शरीक हुए थे, उस साल इस इम्तेहान में कामयाब होने वाले एकलौते छात्र थे।

लाहौर में रहने के दौरान ही हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब ने मदरसा नोमानिया लाहौर में दाख़िला ले कर अरबी अदब की बहुत सी किताबें पढ़ी, साथ ही इसी दौरान उनका लाहौर मेडिकल कॉलेज आना जाना भी लगा रहा और यहीं से उन्होने तशरीह और अनुवाद की प्रैकटिस शुरु की।

लाहौर में रहने के दौरान ही हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब ने पंडित ठाकुर दत्त शर्मा के यहां अनुवाद करने की मुलाज़मत करने लगे इसके इलावा हकीम डॉक्टर ग़ुलाम जिलानी के यहां भी मुलाज़मत की, फिर मुलाज़मत से छुटकारा पा कर “फ़ैज़ ए कबीर” नाम से एक शिफ़ाख़ाना खोला, जहां ईलाज के इलावा बच्चों को हिकमत की दर्स भी देने लगे।

लाहौर में रहने के दौरान ही हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब को ये एहसास हुआ के हकीम अजमल ख़ान ने एक तहरीक शुरु की थी जिसके तहत अऱबी और फ़ारसी ज़ुबान में मौजुद तमाम यूनानी किताबों का अनुवाद उर्दु में करना था, और इससे जुड़ने और ख़ुद को इस तहरीक के क़ाबिल साबित करने के लिए हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने कुछ चीज़ों का तर्जुमा कर हकीम अजमल ख़ान साहेब के पास भेजा, जिसे पढ़ने के बाद हकीम अजमल ख़ान का इरशाद हुआ “जदीद तालीम के लिए तर्जुमा व अनुवाद के लिए एक अलग डिपार्टमेंट खुल रहा है, और मै चाहता हुं के तुम इसके HoD यानी हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट की हैसियत से काम करो”

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हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन तिबिया कॉलेज देहली के इस नए डिपार्टमेंट (तर्जुमा व अनुवाद) से जुड़े और उन्हे अपने काम को अंजाम देने को कहा गया, जिसे उन्होने बख़ुबी अंजाम दिया, और ख़ुब तशरीह और तर्जुमा किया।

16 मई 1917 को पीरजी हकीम अब्दुल रज़्ज़ाक़ के इंतक़ाल के बाद हकीम कबीरउद्दीन आयुर्वेदिक एंड युनानी तिब्बी कालेज देहली में तशरीह के उस्ताद मुऱक़रर्र हुए, उस ज़माने में क़दीम (एैनशिएंट) तशरीह अरबी ज़बान और जदीद (लेटेस्ट) तशरीह अंग्रेज़ी ज़बान के साथ उर्दु ज़बान में पढ़ाई जाती थी, और तशरीह की ये दो रंगी तालीम छात्रों के लिए दर्द ए सर था, चुंके हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन को उर्दु, फ़ारसी, अरबी और अंग्रेज़ी ज़बान में उबूर हासिल था इसलिए उन्होने “तशरीह ए कबीर” करके क़दीम और जदीद तशरीही मालुमात को एक नए शकल में एक जगह कर दिया जिसने तशरीह की तालीम क लिए बड़ी आसानी पैदा कर दिया, यह हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब का एक बहुत ही बड़ा कारनामा है।

1921 में तिबिया कॉलेज देहली से जुड़े रहने के दौरान ही हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने दफ़्तरुल मसीह क़ायम किया और साथ ही रिसाला उल मसीह भी जारी किया जो 1921 में जारी होने के आठ साल बाद 1928 में बंद हुआ।

दफ़्तरुल मसीह का हिकमत की दुनिया में काफ़ी नाम था और हकीम कबीरउद्दीन साहेब इस इदारे के नाज़िम थे और हकीम अब्दुल वाहिद नाएब नाज़िम थे, इनके इलावा कई लोग इस इदारे से जुड़े थे, जिनमें हकीम सैयद मुहम्मद युसुफ़, हकीम मुहम्मद सादिक़, हकीम हबीब वग़ैरा, इनके इलावा मुहम्मद यहया ख़ान(पटना), हकीम ख़्वाजा रिज़वान अहमद, डॉक्टर उस्माम का भी क़लमी ताऊवुन इस इदारे को रहा।

इस इदारे से शाय होने वाली अधिकतर किताब का इस्लाह, इडिटिंग का काम हकीम कबीरउद्दीन साहेब द्वारा होता था, इस इदारे के क़्याम से उर्दु ज़बान में युनानी सलेबस और किताबों को तैयार करने मैं काफ़ी मदद मिली।

उर्दु ज़बान में युनानी पढ़ाई का मंसुबा हकीम अजमल ख़ान का था पर उस उसे अमली जामा पहनाने वाले शख़्स का नाम है हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन, उस समय अयुर्वेद एंज युनानी तिब्बीया कालेज के सलेबस में जो किताबें थी उसकी इडिटिंग का काम या तो हकीम कबीरउद्दीन साहेब द्वारा होता था या फिर उनकी निगरानी में, चुंके मुल्क भर ते कई कालेज यहीं के सलेबस पर अमल करते थे, इसलिए उन इदारों में भी हकीम कबीरउद्दीन द्वारा इडिट की हुई किताब को उपयोग हुआ।

2 जुलाई 1926 को हकीम अजमल ख़ान ने तिब्बीया कालेज में एक रिसर्च सेंटर खोला जिसमें लिटरेरी रिसर्च और क़दीमी मुबहसात पर रौशनी डालना था, जिसके तहत नए और पुराने रिसर्च को मिला कर एक बेहतर सलेबस तैयार किया जा सके और इस काम के लिए हकीम अजमल ख़ान ने जिन लोगों को चुना उसमें हकीम कबीरउद्दीन साहेब भी थे।

इस काम को शुरु हुए दो साल भी नही हुआ था के 29 दिसम्बर 1927 को हकीम अजमल ख़ान इंतक़ाल कर गए और ये काम रुक सा गया पर हकीम कबीरउद्दीन साहेब अपने उस्ताद के ख़्वाब को पुरा करने में लगे रहे।

29 जुलाई 1926 को ना सिर्फ़ बिहार का बल्की पुरे बर्रे सग़ीर का पहला सरकारी तिब्बी स्कुल पटना में वजुद में आया, हुकुमत ने इस इदारे के लिए तीन मेम्बर की एक कमिटी बनाई जिसका काम स्टाफ़ का स्लेकशन करना था, हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब इस टीम के हिस्सा थे।

हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने युनानी तिब को ना सिर्फ़ उर्दु ज़बान में पेश किया बल्के क़दीम क़दीम तिब्बी मुबाहिस को लेटेस्ट रुप दिया और उन्हे किताबों और सलेबस में शामिल भी किया, ये काम बड़ा ही मुशकिल था पर हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने इसे बख़ुबी अंजाम दिया।

हकीम अजमल ख़ान के इंतक़ाल के बाद उनके बेटे हकीम मुहम्मद जमील ख़ान सिक्रेट्री मुंतख़िब हुए और इक़तेदार की रस्सा कशी शुरु हो गई और इन सबसे परेशान कॉलेज के छात्रों ने 1932 में स्ट्राईक कर दी जिसका इलज़ाम हकीम कबीरउद्दीन साहेब और दो लोगों पर लगा और उन्हे कॉलेज से निकाल दिया गया।

हकीम कबीरउद्दीन साहेब, हकीम मुहम्मद इलियास ख़ान और हकीम फ़जलुलरहमान को तिबिया कॉलेज देहली से निकाला हिन्दुस्तान के युननी तिब को एक बड़ा झटका था पर इसका एक फ़ायद ये हुआ के इन तीन ने मिल कर 1935 में करोलबाग़ में ही जामिया तिबिया के नाम से एक दर्सगाह क़ायम किया जिसे आज दुनिया जमिया हमदर्द के फ़ैकेल्टी आफ़ मेडिसीन (युनानी) के नाम से जानती है।

1937 में हैदराबद के नेज़ाम ने 1891 में क़ायम हुए तिब्बी मदरसे को कॉलेज का शकल देने का मंसुबा बनाया, निज़ाम की दावत पर हकीम कबीरउद्दीन साहेब, हकीम फ़जलुलरहमान देहली से हैदराबद गए. हकीम मक़सुद अली ख़ान नेज़ामिया तिबिया कालेज के सदर तो हकीम कबीरउद्दीन साहेब नाएब-सदर चुने गए।

हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने कॉलेज में तालीम के मेयार को सुधारने में अहम किरदार अदा किया, हकीम अजमल ख़ान की फ़िक्र को यहां भी लागु किया, अब आप देहली में पढ़ीये या फिर हैदराबद में, सेलेबस एक ही मिलेगा और और उनकी तहरीक तो शुमाली हिन्दुस्तान से जुनुबी हिन्दुस्तान तक पहुंचा दिया।

हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने हैदराबद में रहते हुए दफ़्तरुल मसीह के कामों को जारी ऱखा और उस समय बाज़ार ऩुरउल अमरा में हैदराबद में दफ़्तरुल मसीह का दफ़्तर था।

1939 से 1947 तक हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने नेज़ामिया तिबिया कालेज हैदराबद को अपनी सेवाएं दीं, लेकिन यहां भी उनके ख़िलाफ़ साज़िश शुरु हो गई जिससे तंग आ कर वो इस कॉलेज से अलग हो गए और लिखने, तरजुमा और तशरीह करने में वो अपना अधिक से अधिक समय देने लगे और उनकी तिब्बी और इल्मी ख़िदमत से मुतास्सिर हो कर निज़ाम हैदराबद ने उन्हे “शहंशाह ओ तसनिफ़ात” के ख़िताब से नवाज़ा था।

राजकीय तिब्बी कालेज पटना एक प्रोग्राम में 25 मार्च 1952 को हकीम मुहम्मद कबीरुद्दीम साहेब मेहमान ए ख़ुसुसी की हैसियत से शरीक हुए और उनके द्वारा बच्चो में सनद तक़सीम किया गया।

1957 हकीम कबीरउद्दीन साहेब रीडर की हैसियत से अलीगढ़ मुस्लिम युनीवर्स्टी के हकीम अजमल ख़ान तिबिया कालेज से जुड़े और हमेशा की तरह जिस काम महारत हासिल था उसे पुरी ज़िम्मेदारी के साथ ऩिभाया।

हकीम कबीरउद्दीन साहेब लिखने और पढ़ने में यक़ीन रखने वाले शख़्स थे मगर वो तिब्बी तहरीक से जुड़े रहे, 1939 से 1955 के दौरान उन्होने कई बार ऑल इंडिया युनानी तिब्बी कांफ़्रेंस की सदारत की और युनानी चिकित्सा के फ़रोग़ के लिए मज़बुत आवाज़ उठाई।

हकीम कबीरउद्दीन साहेब की शख़्सियत का असल जौहर वहां नज़र आता है जहां सख़्त अंग्रेज़ी के मुक़ाबले आसान ज़ुबान मैं अपनी बात रखी, जामिया हमदर्द के बानी हकीम अब्दुलहमीद साहेब लिखते हैं :- “मौजुदा सदी में तिब ए युनानी की जो ख़िदमत हकीम कबीरउद्दीन साहेब ने की है, उसकी कोई मिसाल नही है, उन्होने आधी सदी तक अपने इल्म से तिब ए युनानी को रौशन किया”

वैसे हकीम कबीरउद्दीन साहेब के असली कारनामों का ज़माना 1947 तक ही है, तक़सीम ए हिन्द के बाद उनकी क़लम सुस्त सी हो गई थी, इसकी कई वजुहात हैं, तक़सीम ए हिन्द के दौरान एदारा अलमसीह को फ़सादियों ने बड़ा नुक़सान पहुंचाया, इस हंगामे में उनके बहुत से रिसर्च बरबाद हो गए, बटवारे के बाद एदारा अलमसीह की पुरी टीम बिखर सी गई और अब पैसे की भी कमी रहने लगी।

अपने आख़री दौर में दम्मा जैसी बिमारी का शिकार हो गए औऱ आख़िर 9 जनवरी 1976 को बरोज़ जुमा हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब देहली में इंतक़ाल फ़रमा गए और उन्हे वहीं दफ़न कर दिया गया।

और इस तरह बिहार के एक छोटे से गांव से 11 साल की उमर में बाहर निकल हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब ने अपनी पुरी ज़िन्दगी तिब ए युनानी की ख़िदमत की और 82 साल की उम्र मे वफ़ात पाई।

हकीम फ़ख़्र ए आलाम ने अपनी किताब “उर्दु तिब्बी मुतर्जीमीन” में हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब द्वारा किये गए कारनामो का ज़िक्र करते हुए उन किताबों की पुरी लिस्ट जारी की है जिस पर हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब ने काम किया है, ये तक़रीबन 80 किताबे हैं।

आज आधुनिक युग में भी यूनानी चिकित्सा पद्धति का महत्व भारत में बरकरार है तो इसका श्रेय जाता है हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब को क्युंके अगर वो अरबी और फ़ारसी ज़ुबान में मौजुद यूनानी चिकित्सा पद्धति की किताबों को उर्दु ज़बान में तर्जुमा(अनुवाद) करते तो अरबी और फ़ारसी ज़ुबान की तरह विश्व की ये सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति भी भारत से विलुप्त हो जाती।

असल में 13वीं सदी में यूनानी पद्धति अरब, ईरान से होते हुए हिन्दुस्तान आई और जल्द ही हिन्दुस्तान में रच-बस गई। चुंके ये पद्धति अरब और ईरान से हिन्दुस्तान आई, इस लिए इसकी पढ़ाई अरबी और फ़ारसी ज़ुबान में होती थी, पर अब एैसा नही है, अब इसकी पढ़ाई उर्दु ज़ुबान में होती है।

असल में ये हकीम मुहम्मद अजमल ख़ान साहेब का ख़्वाब था, वही चाहते थे के अरबी और फ़ारसी ज़ुबान में मौजुद किताबों को उर्दु ज़बान में तर्जुमा(अनुवाद) किया जाए, पर उनके इस ख़्वाब को अमली जामा पहनाया है हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब ने।

1990 में क़मरुज़्ज़मां क़मर साहेब की सदारत में अल्लामा हकीम कबीरउद्दीन अकेडमी नाम का एक एदारा पटना में क़ायम किया गया, जिसके उस समय सदर क़मरुज़्ज़मां क़मर साहेब बने, और उसके सिक्रेट्री राजकीय तिब्बी कॉलेज पटना के प्रींसपल प्रो मुहम्मद ज़ियाउद्दीन साहेब थे, क़मरुज़्ज़मां क़मर साहेब के बाद सारी ज़िम्मेदारी प्रो मुहम्मद ज़ियाउद्दीन साहेब के उपर आ चुकी है और वही इस अकेडमी के कर्ता धर्ता हैं, उनके पास अल मसीह (8 साल) का पुरा कलेकशन है, साथ ही बहुत सी नायाब चीज़ें हैं, हकीम कबीरउद्दीन साहेब के लिखे तक़रीबन सभी किताबों का कलेकशन प्रो मुहम्मद ज़ियाउद्दीन साहेब के मिल्लत कोलोनी फुलवारी शरीफ़ स्थित अकेडमी में मौजुद है।

अब ज़रुरत इस बात की है के हम हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब की क़ुर्बानीयों का हक़ अदा करें, तिब ए युनानी और उर्दु के तईं वफ़ादारी दिखाए बग़ैर हम हकीम मुहम्मद कबीरउद्दीन साहेब की क़ुर्बानीयों का हक़ अदा नही कर सकते हैं, तो उर्दु पढ़ीये और लोगों को पढ़ाईये और हकीम साहेब से ईलाज करवाईये।

Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.