अरविन्द कुमार सिंह
1857 की महान क्रांति का ज्वालामुखी ऐतिहासिक नगर इलाहाबाद तथा आसपास के गांवों में भी फूटा, पर यह अल्पकालीन रही। फिर भी जिस तरह से लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी और बलिदान दिया, वह इतिहास में स्वर्णाच्छरों में दर्ज है। इलाहाबाद में क्रांति की चिंगारी को प्रयाग के पंडों ने हवा दी थी लेकिन जनता ने अपना नेतृत्व महान सेनानी मौलाना लियाक़त अली को सौंपा। लियाक़त अली ने ऐतिहासिक ख़ुसरोबाग को स्वतंत्र इलाहाबाद का मुख्यालय बनाया।
ख़ुसरोबाग मुगल सम्राट जहांगीर के पुत्र शहज़ादा ख़ुसरो द्वारा बनवाया गया था। इस विशाल शाही बाग के अमरूदों का दुनिया में कोई जोड़ नही है। मौलाना लियाकत अली को चायल इलाके के जागीरदारों तथा आम जनता ने खूब मदद पहुंचायी। सम्राट बादशाह बहादुर शाह जफर तथा बिरजिस कद्र ने उनको इलाहाबाद का गवर्नर घोषित किया था। बिरजिस क़द्र की मुहरवाली घोषणा को शहर में जारी कर मौलाना ने लोगों से अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने की अपील थी उन्होने अपने भरोसेमंद तेज हरकारों की सहायता से इलाहाबाद के क्रांति की सारी सूचनाएं तेज हरकारों के द्वारा कई बार दिल्ली दरबार भिजवायी; बेगम हज़रत महल समेत अन्य बड़े क्रन्तिनायकों के वह संपर्क में थे। मौलाना ने शासन थामते ही तहसीलदार, कोतवाल और अन्य अफसरों की नियुक्ति कर नगर में शांति स्थापना का प्रयास किया।
मेरठ की क्रांति की खबर 12 मई को ही इलाहाबाद पहुंच गयी थी। उस समय इलाहाबाद किले में यूरोपीय सिपाही या अधिकारी नहीं थे। कुल 200 सिख सैनिक ही किले की रक्षा मे लगे थे। उत्तर- पश्चिम प्रांतो की सुरक्षा के लिए इलाहाबाद किला अंग्रेजों की शक्ति का मुख्य केन्द्र था और वहां बड़ी मात्रा में गोलाबारूद का भंडार भी था। अगर आजादी के सिपाही इस किले पर अधिकार कर लेते तो शायद संघर्ष की तस्वीर ही बदल जाती।
इलाहाबाद में तमाम खबरें जनमानस को झंकृत करती रही और यहां असली क्रांति का सूत्रपात 6 जून 1857 को हुआ, तब तक कई अंग्रेज अधिकारी यहां पहुंच गए थे। उस दिन बागी सैनिको ने अंग्रेज अफसरों पर हमला बोल कइयों को मौत के घाट उतार दिया। लेकिन 107 अंग्रेज सैनिक जान बचा कर किले में छिपने में सफल रहे। उस समय इलाहाबाद में छठी रेजीमेंट देशी पलटन और फिरोजपुर रेजीमेंट सिख दस्तों का पड़ाव था। इलाहाबाद में क्रांति दबाने के लिए अंग्रेजो ने प्रतापगढ़ से सेना भेजी पर 5 जून 1857 को बनारस के क्रांतिकारी भी यहां पहुंच गए और शमसाबाद में शफ़ी ख़ान मेवाती के घर पर एक पंचायत जुटी। इसमें तय किया गया कि सैनिक और जनता एक ही दिन क्रांति की ज्वाला जलाऐं। लेकिन इस बीच में अंग्रेज सेनाधिकारी सतर्क हो गए और उन्होने किले की हर हाल में रक्षा करने की रणनीति बना ली। यूरोपीय अफसरों तथा महिलाओं को किले में ही रखा गया। अंग्रेज़ों ने बाग़ी हवाओं के आधार पर खतरे की आशंका भांप बनारस से आनेवाले क्रांतिकारिओं को रोकने के लिए देशी पलटन की दो टुकडिय़ां और दो तोपें दारागंज के करीब नाव के पुल पर तैनात कर दी गयी थीं। किले की तोपों को बनारस से आनेवाली सड़क की ओर मोड़ दिया गया था। नगर रक्षा में अलोपीबाग में देशी सवारो की दो टुकडिय़ां तैनात थीं,जबकि किले में 65 तोपची, 400 सिख सवार, और पैदल तैनात कर दिए गए थे।
उसी दौरान दारागंज के पंडों ने इन सैनिको को बगावत के लिए ललकारा। अंग्रेजों को इसकी आहट मिल गयी तो उन्होने सैनिको को प्रलोभन देकर 6 जून की रात 9 बजे तोपों को किले में ले जाने का आदेश दे दिया। लेकिन सैनिको ने बगावत का फैसला ले लिया था। वे तोपों को छावनी में ले गए, जहां से अंग्रेज़ों पर गोले दागने शुरू कर दिए गए। इस घटना ने इलाहाबाद में बगावत का रूप ले लिया।हालत काबू में लाने को दो सेनाधिकारी और सहायता को देशी पलटन को हुक्म मिला। पर सैनिको ने क्रांतिकारिओं के खिलाफ हथियार उठाने से मना कर दिया और वे उनके साथ हो लिए।
अलोपीबाग के सैनिको ने लेफ्टीनेंट अलेक्जेंडर को गोली मार दी पर लेफ्टीनेंट हावर्ड जान बचाकर किले की ओर भागा। इसके बाद दोनो पलटनों के अधिकतर यूरोपीय अधिकारी मार दिए गए व अफसरों के बंगले आग का शिकार बन गए। पर इस घटना से अधिकारियों को और चौकन्ना कर दिया। ऐसा माना जाता है कि अगर उस समय सिख सैनिक भी आंदोलन की धारा में शामिल हो जाते तो इलाहाबाद किला भी क्रांतिवीरों के कब्जे में आ जाता।
वैसे तो अंग्रेजों की रणनीति को देखते हुए बागी भी सजग थे और उन्होंने दारागंज और किले के नजदीक की सुरक्षा चौकी पर कब्जा कर लिया। यही नहीं पूरा नगर बगावत की चपेट में आ गया व तीस लाख रूपए का भारी भरकम ख़जाना भी उनके अधिकार मे आ गया। बागी नेताओं ने जेल से बंदियों को मुक्त करा दिया और तार की लाइन भी काट दी। 7 जून 1857 को शहर की कोतवाली पर क्रांति का हरा झंडा फहराने लगा। नगर में जुलूस निकाला जाने लगा और आसपास के गांवो समेत हर जगह बगावत का बिगुल बज गया। उस समय की हालत को सर जॉन कुछ इस तरह से लिखते हैं :- “इलाहाबाद में न केवल गंगापार बल्कि द्वाबा क्षेत्र की ग्रामीण जनता ने विद्रोह कर दिया। कोई मनुष्य नहीं बचा था जो हमारे ख़िलाफ़ न हो।” इलाहाबाद में क्रांति की खबर पाने के बाद अंग्रेजों ने 11 जून को कर्नल नील जैसे क्रूर अधिकारी को दमन के लिए इलाहाबाद रवाना किया। नील ने इलाहाबाद किले से मोर्चा संभाला। उसकी सेना काफी बड़ी थी जिसमें अधिकतर गोरे, सिख तथा मद्रासी सिपाही थे। 12 जून को नील ने दारागंज के नाव के पुल पर कब्जा किया जबकि 13 जून को झूसी में भी क्रांति दबा दी गयी। 15 जून को मुट्ठीगंज और कीटगंज पर अधिकार करने के बाद 17 जून को ख़ुसरोबाग भी अंग्रेजों के हाथ लग गया।17 जून को ही माजिस्ट्रेट एम.एच.कोर्ट ने कोतवाली पर फिर से कब्जा जमा लिया। 18 जून का दिन इलाहाबाद ही नहीं भारतीय क्रांतिकारिओं के लिए काले दिन सा रहा। इस रोज छावनी, दरियाबाद, सैदाबाद, तथा रसूलपुर में क्रांतिकरिओं को भारी यातनाएं दी गयीं। 18 जून को इलाहाबाद पर अंग्रेजो का दोबारा अधिकार हो गया। चौक जीटी रोड पर नीम के पेड़ पर नील ने 800 निरीह लोगों को फांसी पर लटका दिया। जो लोग शहर छोड़ कर नावो से भाग रहे थे उनको भी गोली मार दी गयी। आसपास के गांवो में विकराल अग्निकांड हुए।
ख़ुद जार्ज केम्पवेल ने नील के कारनामों की निंदा करते हुए कहा :- इलाहाबाद में नील ने जो कुछ किया वह कत्लेआम से बढ़ कर था। ऐसी यातनाएं भारतवासियों ने कभी किसी को नहीं दी।
इलाहाबाद के ही निवासी और जानेमाने इतिहासकार व राजनेता स्व: विश्वंभरनाथ पांडेय लिखते हैं :- “हर संदिग्ध को गिरफ़्तार कर उसे कठोर दंड दिया गया। नील ने जो नरसंहार किया, उसके आगे जालियांवाला बाग भी कम था। केवल तीन घंटे चालीस मिनट में कोतवाली के पास नीम के पेड़ पर ही 634 लोगों को फांसी दी गयी। सैनिको ने जिस पर शक किया, उसे गोली से उड़ा दिया गया। चारों तरफ भारी तबाही मची थी। नील क्रांतिकारिओं को एक गाड़ी में बिठा कर किसी पेड़ के नीचे ले जाया जाता था और उनकी गर्दन में फांसी का फंदा डाल दिया जाता था फिर गाड़ी हटा ली जाती थी।” इलाहाबाद के नरसंहार में औरतों, बूढे लोगों और बच्चों तक को मारा गया। जिन्हे फांसी दी गयी उनकी लाशें कई रोज पेड़ पर लटकी रहीं। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को समर्पित बाग (कंपनी बाग) का कुँआ लाशों से पट गया था।
समय के थपेड़े ने दुनिया बदल दी है पर नील के अत्याचारों के गवाह के रूप में चौक में एक नीम का पेड़ बचा हुआ है। इस पर 1 जनवरी 1957 को स्थानीय विधायक और महान सेनानी स्व।कल्याण चंद मोहिले (छुन्नन गुरू) ने शहीदो का एक स्मारक जन सहयोग से ही बनवाया। इस स्मारक का स्वाधीनता की स्वर्णजयंती के मौके पर नगर पालिका इलाहाबाद ने 15 अगस्त 1997 को जीर्णोद्दार किया।
लेकिन क्रांति के नायक मौलाना लियाकत अली की याद में कुछ खास किया नहीं गया है। इलाहाबाद शहर उत्तरी के विधायक अनुग्रह नारायण सिह ने कुछ समय पहले केंद्रीय संचार राज्यमंत्री से मुलाकात कर इस महान क्रांतिवीर की याद में एक स्मारक डाक टिकट जारी करने का अनुरोध किया है।
लेकिन इलाहाबाद में क्रांति की ज्वाला अल्पजीवी होने के बाद भी मौलाना लियाक त अली के नेतृत्व में इलाहाबाद के वीरों ने एक – एक इंच जमीन पर डटकर लोहा लिया। मौलाना को जब अंग्रेज़ी ख़ैमे की तैयारियों की पुख़्ता ख़बर मिली तो उन्होने अपने साथियों से विचार विमर्श कर आगे की लड़ाई की तैयारी को परिजनो व करीबी सहयोगियों के साथ कानपुर में नाना साहेब के पास चले गए। अंग्रेज़ों ने उनकी गिरफ़्तारी पर पांच हजार रूपए ईनाम रखा। लेकिन मौलाना दक्षिण होते हुए मुंबई पहुंच गए जहां उनको गिरफ्तार कर अंडमान की जेल में भेज दिया। उनको आजीवन कारावास की सजा मिली थी और जीवन के आखिरी दिन उन्होने वहीं बिताए और उनकी मौत भी वहीं हुई। उनकी मजार भी कालापानी में बनी है।
मौलाना लियाकत अली इलाहाबाद से 21 किलोमीटर दूर जीटी रोड पर ही बसे महगांव के निवासी है। उनके परिजनो में कुछ लोग आज भी इसी गांव में रहते हैं। गांव के कुछ लोगों ने 1985-86 में अंडमान का दौरा किया था और उनके मजार पर फूल चढ़ाया था। 1957 में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी महगांव एक कार्यक्रम में गए थे ।
आज लियाकत अली का घर ढ़हने के कगार पर है। इसके संरक्षण की दिशा मे राज्य सरकार का ध्यान नहीं है। एक बार जनसत्ता संवाददाता रहने के दौरान मैने जानेमाने समाजसेवी पं. सूर्यनारायण त्रिपाठी के साथ जाकर वहां की दुर्दशा पर एक रिपोर्ट भी लिखी थी। उसी दौरान तत्कालीन केंद्रीय मंत्री धर्मवीर के प्रयास से महगांव -चरवा राजमार्ग को लियाकत अली मार्ग का नाम मिला। मौलाना लियाकत अली को आज भी इलाहाबाद की क्रन्तिकारी पंरपरा में बहुत सम्मानजनक स्थान मिला है पर उनकी याद में एक सम्मानजनक स्मारक बनना अभी भी शेष है। यही नहीं इतिहास की किताबों में भी उनको अपेक्षित जगह मिलनी बाकी है।
मौलवी लियाकत अली असाधारण योग्यता व क्षमतावाले व्यक्ति थे। उन्होने मजबूत व्यूहरचना के साथ इलाहाबाद किले पर कब्ज़ा करने का प्रयास भी किया था पर सफ़ल नहीं हुए। महान मुगल सम्राट अकबर ने 1583 में संगम तट पर जो किला बनवाया था, संयोग देखिए, वह 1857 में अंग्रेजों का सबसे मजबूत ठिकाना साबित हुआ। यह किला 1798 में अवध के नवाब ने अंग्रेजों को सौंपा था। अंग्रेजों ने किले को अपना शस्त्रागार और सैनिक केन्द्र बनाया। अगर यह किला बागियों के हाथ आ गया होता तो शायद इलाहाबाद ही नहीं अवध की क्रांति का एक नया इतिहास लिखा जाता। पर होना कुछ और ही था।
लेखक देश के कई हिस्सों के भूले बिसरे बलिदानियो की तलाश कर उनकी कहानिओं को उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं, और ये लेख रविवार, 24 अगस्त 2008 को 1857जनक्रांति ब्लाग पर लिखा था।