10 मार्च 1884 को सहारनपुर (उत्तर प्रादेश) के एक मोहज़्ज़ब घराने मे मौलाना मोहम्मद मियां मंसुर अंसारी का जन्म हुआ था. उनकी तरबियत अल्लामा अब्दुल्लाह अंसारी के घर पर हुई जो के 11वीं सदी के बहुत बड़े अल्लाह वाले थे। उन्होने अपनी शुरुआती पढाई मदरसा ए मनबा अल उलुम, गुलऔठी से की जहां मोहम्मद मियां मंसुर अंसारी के वालिद एक सिनयर मोदर्रीस की हैसियत रखते थे. इसके बाद घर वालों ने उन्हे पढ़ने के लिए देवबंद भेजा , यहाँ शेख़ उल हिन्द रह.अल. से मुलाक़ात हुई, और कई सालो तक देवबंद मे इल्म हासिल किया।
प्रथम विश्व युद्ध के समय मौलाना , सितम्बर 1915 को शैख़ उल हिन्द र.अ. के कहने पर उनके साथ हेजाज़ (साऊदी अरब) चले गये और वहां से कुछ ग़ालिबनामा (रेशमी रुमाल) ले कर अप्रील 1916 को हिन्दुस्तान वापस आ गए और उसे मुजाहिद ए आज़ादी के बड़े नेताओं को जगह जगह दिखाया और इस तरह वो देवबंद की सियासी तहरीक रेशमी रुमाल मे एक बड़े किरदार के रुप मे शामिल हो गये और फिर अफ़ग़ानिस्तान के लिए निकल पड़े और जुन 1916 को काबुल पहुंच गए… जहां पहले से ही उनके साथी मौलान ओबैदउल्लाह सिंधी मौजुद थे जिनकी अफ़गान सरदार हबीबुल्ला खान से बहुत अच्छी बनती थी और उनकी ही मदद से राजा महेन्द्र प्रताप की प्रवासी सरकार की स्थापना की गई थी जिसे तुर्की और जर्मनी जैसे उस वक़्त के बड़े राष्ट्रो ने मान्यता दी थी। मौलाना ओबैदुल्लाह उस सरकार मे होम मिनिस्टर की हैसियत से थे और मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली प्राधानमंत्री की हैसियत रखते थे।
रेशमी रुमाल तहरीक हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलाया गया पहला आदोलन था। इस आदोलन के तहत फ़िरंगी शासन को ध्वस्त करने के लिए सभी गुप्त योजनाएं रेशमी रुमाल पर लिखकर भेजी जाती थीं। वर्ष 1916 में रेशमी रुमाल आदोलन चरमोत्कर्ष पर था। 1904 में शेखुल हिन्द महमूद हसन ने “रेश्मी रुमाल” तहरीक शुरू की जो 1914 तक इस कदर मुअस्सिर तहरीक बन गयी थी कि अगर कुछ लोग तहरीक से गद्दारी ना करते तो शायद हम 1914-16 में ही आज़ाद हो गये होते मगर तहरीक नाकाम हुई और तहरीक के रहबर मौलाना महमूद उल हसन, मौलाना अज़ीज़ गुल, हकीम नुसरत हुसैन रहीमउल्लाह और दीगर बुज़ुर्गाने दीन हिजाज़ ए मुक़द्दस में गिरफ़्तार किये गये, मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली , मौलाना मुहम्मद मियां अन्सारी, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी, और दीगर बुज़ुरगों को जिला वतन किया गया।
मौलाना मोहम्मद मियां मनसुर अंसारी जंग के ख़त्म होने तक काबुल मे रहे , प्रथम विश्व युद्ध के बाद हालात ख़राब हो चुके थे , जर्मनी बिखर चुका था तो रुस अपने घर मे ही क्रान्ति के दौर से गुज़र रहा था। मौलाना मोहम्मद मियां मंसुर अंसारी रुस को रवाना हो गये अपनी आँखो के सामने रुस के क्रान्ति को देखा, लेनिन से कभी मिल तो नही पाए लेकिन रुस की क्रान्ति ने मौलाना की ज़िन्दगी मे नया इंक़लाब ला चुका था फिर वहां से मौलाना तुर्की चले गये वहाँ भी कमाल पाशा के हाथ तुर्की नई ज़िन्दगी की शुरुआत कर रहा था और दो साल तक मौलाना वहाँ रहे , फिर इस तरह वापस काबुल पहुंच गए और वहीं पढ़ने पढ़ाने का काम जारी रखा !
…. दिल मे एक कसक थी वतन लौटने की , लौटना आसान नही था आख़िर 1946 मे कांग्रेस की मदद से वतन लौटने के लिए अंग्रेज़ो की प्रमिशन मिली , पर तब तक काफ़ी देर हो चुका था। क्योंके मौलाना मोहम्मद मियां मंसुर अंसारी जलालाबाद (अफ़ग़ानिस्तान) मे ही काफ़ी बिमार हो जाते हैं और 11 जनवरी 1946 को 62 साल की उमर मे इस दुनिया को अलविदा कह जाते है और उन्हे लग़मान ज़िला के एक क़ब्रिस्तान मे दफ़ना दिया जाता है। बहादुर शाह ज़फ़र के इस शेर के साथ मौलाना को ख़िराज ए अक़ीदत 🙂
न दबाया ज़ेरे-ज़मीं उन्हें, न दिया किसी ने कफ़न उन्हें
न हुआ नसीब वतन उन्हें, न कहीं निशाने-मज़ार है.