हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी के अज़ीम सिपाही अमर क्रांतिकारी मास्टर अमीरचंद का जन्म 1869 में देहली के वैश्य परिवार में अध्यापक हुकुमचंद के यहाँ हुआ था। एक अध्यापक का पुत्र होने के वजह कर अमीरचंद बचपन से ही मेधावी छात्र रहे। अमीरचंद ने अपने परिश्रम से हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेज़ी सभी भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त किया और वो अपने साथियों एवं अध्यापकों के बीच बहुत ही योग्य एवं मेधावी छात्र के रूप में देखे गए। वीरता और रहस्यों को अपने तक रखने की कला उन्हें ईश्वरप्रदत्त थी, जिसने बाद में उनके क्रांतिकारी जीवन में उनका बहुत साथ दिया।
स्वामी रामतीर्थ की शिक्षाओं से वे अत्यंत प्रभावित थे और उन्हीं के उपदेशों के अनुरूप आचरण करने का हर संभव प्रयास करते थे। स्वामी जी के साथ उनका व्यक्तिगत परिचय भी था और उनके उपदेशों के प्रचार प्रसार में भी वे सक्रिय भूमिका निभाते थे। स्वामी जी के प्रति उनकी भक्ति इस श्रेणी की थी कि उनके उपदेशों की पहली पुस्तक मास्टर साहब ने ही अपने सीमित साधनों के बाबजूद प्रकाशित करवाई थी। अपनी शिक्षा समाप्त करने के पश्चात अपनी रूचि के अनुरूप उन्होंने शिक्षण व्यवसाय को ही अपनाया और साथ ही स्वयं को शैक्षणिक गतिविधियों और विधवा विवाह, स्त्रियों की शिक्षा जैसे सामाजिक कार्यों में संलग्न कर दिया। पहले दिल्ली के कैम्ब्रिज मिशन हाई स्कूल के एक समर्पित, ईमानदार शिक्षक के रूप में और बाद में एंग्लो-वैदिक संस्कृत विक्टोरिया जुबली सीनियर सैकेंडरी स्कूल के कुशल, दूरदर्शी और मिलनसार प्रधानाध्यापक के रूप में उन्होंने बहुत जल्द ही ख्याति अर्जित कर ली और अपने छात्रों की सदैव सहायता करने के लिए तैयार रहने के कारण वे छात्रों में भी अत्यंत लोकप्रिय थे।
अमीरचंद इस तरह मास्टर अमीरचंद हो गए और वे बहुत ही धार्मिक प्रवृति के समाजसेवी व्यक्ति थे। बचपन से ही उनमें समाज के लिए कुछ करने की प्रबल भावना थी और शोषितों-पीड़ितों के दुःख देखकर वो अत्यंत कष्ट का अनुभव करते थे। जिस आयु में बच्चे अपने बारे में भी ठीक से ज्ञान नहीं रखते, देश और धर्म के बारे में चिंतन मनन अध्ययन करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। और अब तो वो ख़ुद मास्टर हो चुके थे। इसी दौरान अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध चलाये जा रहे स्वदेशी आन्दोलन में भी वो शामिल हो गए। और जल्द ही उसके प्रमुख आधार स्तम्भ बन गए।
अपने सामाजिक कार्यों के चलते एक बार उनकी मुलाकात देहली में ही रह रहे प्रख्यात क्रांतिधर्मा लाला हरदयाल से हुयी, जिन्होंने मास्टर अमीरचंद को स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने और क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न होने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद अमीरचंद अमेरिका में रह रहे भारतीयों द्वारा देश को स्वतंत्र कराने के लिए 1857 जैसी क्रान्ति करने के उद्देश्य से बनायी गयी ग़दर पार्टी में शामिल होकर सक्रिय रूप से कार्य करने लगे। जब लाला जी विदेशों में भारत की आज़ादी की अलख जगाने अमेरिका चले गए तो उत्तर भारत, विशेषकर पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों के व्यवस्थापन का गुरुतर भार मास्टर अमीरचंद के सबल कन्धों पर ही सौंप गए। इसी क्रम में वो जाने माने क्रांतिकारी रासबिहारी बोस के संपर्क में आये जो उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ करने के लिए प्रयासरत थे और उनके साथ मिलकर उत्तर भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों को निर्देशित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मास्टर अमीरचंद ‘लिबर्टी ‘ नाम के पर्चे छपवाकर वे पुरे भारत में उन्हें वितरित करने लगे। इन पर्चे के द्वारा वे अंग्रेजी शासकों के प्रति घृणा का प्रसार करना चाहते थे। उनके मन में देश भक्ति की मान्यता इतनी प्रबल थी कि स्वदेशी आंदोलन के दौरान हैदराबाद के बाजार में उन्होंने स्वदेशी स्टोर खोला जहां वह देशभक्तों की तस्वीरें तथा क्रांतिकारी साहित्य बेचते थे।
क्रांतिकारी गतिविधियों को विस्तार देने के लिए मास्टर अमीरचंद उत्तर भारत के अन्य नगरों के सामान विचार वाले लोगों से सम्बन्ध बनाने के काम में मनोयोग से जुट गए ताकि संगठित रूप से कोई कदम अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध उठाया जा सके। सन 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के मजिस्ट्रेट किंग्स्फोर्ड पर बम फेंका। इस घटना से ब्रिटिश साम्राज्य थर्रा गया और पूरे देश में धर पकड़ शुरू हो गयी। ऐसे में लाहौर में सक्रिय भाई बालमुकुन्द पुलिस से बचने के लिए लाहौर छोड़ दिल्ली आ गए दिया और यहाँ मास्टर अमीरचंद के पास ही रहे, जो परिचय बाद में प्रगाढ़ संबंधों में बदल गया। भाई बालमुकुन्द के ही जरिये मास्टर साहब का परिचय भाई जी के लाहौर के साथी अवध बिहारी से हुआ। बाद में स्थिति ठीक होने पर भाई जी लाहौर लौट गए पर विचारक और प्रकांड विद्वान् माने जाने वाले मास्टर अमीरचंद के साथ हुए उनके इस संपर्क ने लक्ष्य के प्रति उनकी सोच को और अधिक स्पष्ट कर दिया। क्रान्तिकारी गतिविधियों के बारे में स्पष्ट दृष्टिकोण होने के कारण क्रांतिकारी साहित्य के लेखन, प्रकाशन और प्रचार का पूरा भार मास्टर अमीरचंद ही निभाते थे जो बाद में उनके संपर्क में मंझने के बाद कुछ हद तक भाई बालमुकुन्द के कन्धों पर भी आ गया था।
इसी दौरान बंगाल में क्रान्तिकारियों के बढ़ते दबाव के कारण अंग्रेज़ों ने भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली में स्थानांतरित कर दी। प्रख्यात क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने अंग्रेज़ों के मन में भय उत्पन्न करने के लिए तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाई। इस योजना के अंजाम देने में मास्टर अमीरचंद ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। योजना को अंजाम देने के लिए 21 सितम्बर 1912 को क्रांतिकारी अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसंत कुमार विश्वास दिल्ली के उनके घर आ गये। दूसरे दिन 22 सितम्बर को रास बिहारी बोस भी दिल्ली आ गये। बाद में भाई बालमुकुन्द ने बसंत कुमार को लाहौर में एक डाक्टर के यहाँ कंपाउंडर की नौकरी दिलवा दी जिससे किसी को को भी बसंत कुमार पर शक ना हो। राजधानी स्थानान्तरण को यादगार बनाने के लिए निकलने वाली शोभायात्रा के तय समय से कुछ दिन पहले बसंत कुमार फिर से दिल्ली आ गए और इस बार भी मास्टर साहब के यहाँ ही रुके। 23 दिसंबर को सुबह मास्टर साहब बसंत कुमार को लेकर चांदनी चौक पहुंचे और पंजाब नेशनल बैंक के भवन में उनके बैठने का इंतजाम किया। तय समय पर शाही शोभायात्रा निकलना शुरू हुयी जिसमें हाथी पर वायसराय हार्डिंग्स अपनी पत्नी के सवार था। साथ ही अंगरक्षक मैक्सवेल महावत के पीछे और हौदे के बाहर छत्रधारी महावीर सिंह था। लोग सड़क किनारे खड़े होकर, घरों की छतों-खिड़कियों से इस विशाल शोभा यात्रा को देख रहे थे। शोभा यात्रा चांदनी चौक के बीच स्थित पंजाब नेशनल बैंक के सामने पहुंची ही थी कि एकाएक भंयकर धमाका हुआ। बसन्त कुमार विश्वास ने उन पर बम फेंका लेकिन निशाना चूक गया। पुलिस को दिल्ली, में हुए विस्फ़ोटों में से किसी में भी कोई सुराग नहीं मिल रहा था और अंग्रेज़ी सरकार इसे अपनी पराजय के तौर पर देख रही थी। ऐसे में पुलिस ने बम धमाकों से ध्यान हटाते हुए राजद्रोह की भावना फैलाने वाले पत्रकों और अन्य साहित्य से सम्बंधित जांच करना इस सोच के साथ शुरू किया कि शायद आगे चलकर यही जांच बम धमाकों के बारे में भी कोई सुराग दे दे।
इस जांच के दौरान पुलिस को ये पता लगा कि दीनानाथ नामक कोई व्यक्ति लिबर्टी नामक पत्रक से किसी ना किसी रूप में जुड़ा हुआ है। जब दीनानाथ से कड़क आवाज में ये पूछा गया कि तुम इस सबके बारे में क्या जानते हो, वो दीनानाथ हडबडा कर बोला, नहीं साहब, मैं लिबर्टी (क्रांति के प्रचार के लिए भाई बालमुकुन्द एवं मास्टर अमीरचंद द्वारा लिखा गया पत्रक) या और किसी कागज के बारे में कुछ भी नहीं जानता। पुलिस के लिए ये समझने के लिए इतना तो बहुत था कि ये शख्स क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में कुछ न कुछ तो जानता ही है। दीनानाथ को माफ़ी का लालच देकर पुलिस ने उसे सरकारी गवाह बना लिया और उसने अपने प्राणों की रक्षा के लिए उपरोक्त बम विस्फ़ोट की घटनाओं में शामिल सभी व्यक्तियों के नाम और पते पुलिस को दे दिए। इन सूचनाओं के आधार पर पुलिस ने 19 फ़रवरी 1914 को मास्टर अमीरचंद को उनके घर से गिरफ़्तार कर लिया।
गिरफ़्तारी के समय उनके घर से इस्तेमाल किये हुए बमों के अवशेष, बम बनाने की सामग्री और क्रांतिकारी साहित्य बरामद हुआ। इसके बाद भाई बालमुकुन्द, अवध बिहारी, बसंत कुमार एवं अन्य साथी भी धीरे धीरे गिरफ़्तार कर लिए गए। उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसे दिल्ली-लाहौर षड़यंत्र मामला कहा जाता है। 16 मार्च 1914 को सभी को कोर्ट में पेश किया गया। न्ययालय ने उन्हें कसूरवार ठहराते हुए 5 अक्टूबर 1914 को उन्हें उनके साथियों भाई बालमुकुन्द, अवधबिहारी और बंसत कुमार बिश्वास के साथ फाँसी की सजा सुना दी। स्वयं को फांसी की सजा सुनाये जाने पर प्रसन्नता का अनुभव करते हुए उन्होंने कहा कि वह फांसी के फंदे को भी उसी चाव से पहनेंगे, जैसे कभी उन्होंने वरमाला पहनी थी। 8 मई 1915 को दिल्ली सेन्ट्रल जेल में उन्हें अवध बिहारी के साथ फाँसी दे दी गयी। दिल्ली-लाहौर षड़यंत्र केस के इन सभी क्रांतिवीरों की स्मृति में दिल्ली की तत्कालीन जेल के फाँसीघर, जो आज का मौलाना आज़ाद मेडिकल कालेज है, के एक कोने में शहीद स्मारक नाम से पार्क बनाया गया है।