बुलंदशहर में काला आम नाम का चौराहा जंग ए आज़ादी का मुख्य गवाह है, शहर के इस चौराहे ने अंग्रेज़ो के बहुत ज़ुल्म झेले हैं। कालाआम चौराहे पर ब्रिटिश हूकूमत काल में आम का बाग हुआ करता था। इसके बीच से शहर के लिए रास्ता जाता था। अंग्रेज हुक्मरान भारतीय क्रांतिकारियों का कत्ल कर उनके शव सार्वजनिक रूप से इस आम के बाग़ में सड़क के किनारे टांग दिया करते थे। उनका मक़सद हिंदुस्तानी अवाम में ख़ौफ़ पैदा करना था। इसलिए इस बाग़ को कत्ल-ए-आम कहा जाने लगा। कालांतर में यह कालाआम नाम से प्रसिद्ध हो गया।
1857 में बुलंदशहर के आस पास अंग्रेज़ो और हिंदुस्तान की आज़ादी के मतवाले के बीच एक ज़बरदस्त जंग हुई थी, इस जंग में अंग्रेज़ी फ़ौज की तादाद जहाँ एक तरफ़ बहुत थी तो उनके पास जदीद असलहे भी थे। लेकिन फिर भी जिस हिम्मत और बहादुरी से मुजाहिदों ने जंग लड़ी वैसी मिसाल बहुत ही कम मिलती है, बाग़ियों के पास पुरानी बंदूक़ भाले तलवार के इलवा कुछ था तो वो बहादुरी और हिम्मत था, क्यूंके ख़ाने पीने का समान भी मुहैया ना था फिर भी दीवाने जंग लड़ें जा रहे थे।
इस जंग को लीड कर रहे थे नवाब वलीदाद ख़ान, नवाब वलीदाद ख़ान को आसपास के इलाक़े से ज़बरदस्त मदद मिल रही थी, सैंकड़ों नौजवान इस जंग में हिस्सा लेने आ रहे थे, ऐसे में ही एक थे अब्दुल लतीफ़ ख़ान वो जंग में ख़ुद तो हिस्सा ना ले सके लेकिन रुपैय पैसे और बाग़ियों को पनाह देने का काम अपने ज़िम्मे ले लिया, अब्दुल लतीफ़ ख़ान अंग्रेज़ो को माल गुज़ारी देने से पहले ही इंकार कर चुके थे, लेकिन बुलंदशहर(काले आम) की लड़ाई के बाद वो अंग्रेज़ के खुले दुश्मन थे, इस लड़ाई में शिकस्त के बाद अब्दुल लतीफ़ की तमाम जायदाद ज़ब्त कर ली गयी और उन्हें काले पानी की सज़ा दी गयी।
नवाब वलीदाद ख़ान का ख़ानदान शाह आलम के ज़माने से हाकिम था, अपने लिए एक क़िला माला गढ़ भी बनवाया था, नवाब वलीदाद ख़ान की एक शहज़ादी का रिश्ता बहादुर शाह ज़फ़र के बेटे से तय हुआ था, इस वजह से दिल्ली हुकूमत से इनके रिश्ते बहुत अच्छे थे, जब सिपाहीयों ने बग़ावत की तब बहादुर शाह ज़फ़र नाम के बादशाह से काम के बादशाह बने तो नवाब वली दाद दिल्ली गए, और वहाँ से सिपाहियों को लेकर माला गढ़ आ गए और अपनी आज़ाद रियासत का ऐलान कर दिया।
मोहम्मद इस्माइल खान ने बुलंदशहर पर क़ब्ज़ा कर लिया, नवाब वलीदाद ख़ान के परचम के नीचे ग़ुलाम हैदर ख़ान, मेहंदी ख़ान, वज़ीर अली, नवाब मुस्तफ़ा ख़ान, इस्माइल खान सब आ गए और बुलन्दशहर पर नवाब वली दाद ख़ान की हुकूमत आ गयी।
नवाब वलीदाद ख़ान से एक तरफ़ जहाँ बुलन्दशहर के जाट जलते थे तो दूसरी तरफ़ नवाब के मामू को नवाबियत के ख़्वाब आ रहे थे, जाट खुले आम अंग्रेज़ो के साथ चले गए तो मामू अंग्रेज़ो में चुपके से मिल गए, तोपख़ाने की सारी ज़िम्मेदारी मामू के पास थी उन्होंने अंग्रेज़ो का क़ब्ज़ा बारूद और तोप ख़ाने पर करा दिया।
नवाब वली दाद ख़ान के दो बहादुर साथी इस्माइल ख़ान और ऐमन गुज़र ज़ख़्मी हो गए, जिससे मुजाहिदों को ज़बरदस्त झटका लगा, लेकिन नवाब वलीदाद जंग से पीछे नही हटे, कई महीने तक जंग होती रही, दिल्ली पर दोबारा अंग्रेज़ो का क़ब्ज़ा हो चुका था लेकिन बुलन्दशहर में जंग जारी थी, मुखबिरों और ग़द्दारों ने लगातार नवाब साहब की जानकारी कम्पनी की फ़ौज तक पहुँचाने का काम किया।
फिर एक रात जब नवाब साहब की फ़ौज आराम कर रही थी तब हमला किया गया … जिससे शदीद नुक़सान हुआ और नवाब साहब को वापस अपने क़िले में आना पड़ा, फिर एक दिन क़िले की बारी आयी अंग्रेज़ो ने उसे तबाह कर दिया … फिर बुलंदशहर पर हर रोज़ लाशें मिलने लगी … अंग्रेज़ जिसे चाहते उसे फाँसी दे देते। वो एक आम का पेड़ था जिस पर लोगों को फांसी पर लटका कर क़त्ल किया जाता था, इस जगह पर इतने लोगो को क़त्ल किया गया के ये जगह ही क़त्ल ए आम के नाम से जाना जाने लगा, बाद में यही जगह उपचारणदोष के कारण क़त्ल ए आम की जगह काला आम के नाम से जाना जाने लगा. वर्ष 1857 से 1947 के दौरान काला आम कत्लगाह बना रहा। इस दौरान हजारों क्रांतिकारी को यहां फांसी दी गई।
नवाब वलीदाद ख़ान फिर रोहेलखंड की तरफ़ निकल गए … वहाँ अंग्रेज़ो से लड़ते रहे जब वहाँ के नवाब की भी शिकस्त हो गयी तो नवाब वली दाद ख़ान ख़ुद गुमनामी की दुनिया में चले गए, फिर क्या हुआ कोई ना जान सका।