मौलाना आज़ाद और चाय की चुसकियाँ

Shubhneet Kaushik

आज मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (1888-1958) की 130वीं जयंती है। आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री रहे मौलाना आज़ाद के जन्मदिन (11 नवंबर) को ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। जमालुद्दीन अफ़गानी और शिबली नोमानी से गहरे प्रभावित रहे मौलाना आज़ाद हिंदू-मुस्लिम एकता, सर्वधर्म समभाव और सेकुलर राष्ट्रवाद के पैरोकार रहे। उन्होंने ‘अल हिलाल’ (1912) और “अल बलग़” (1915) सरीखे पत्रों का सम्पादन करने के साथ-साथ “इंडिया विन्स फ़्रीडम” और क़ुरान पर “तर्जुमान अल क़ुरान” सरीखी महत्त्वपूर्ण किताबें भी लिखीं।

मौलाना आज़ाद चाय के रसिक थे। उनकी इस रसिकता का अंदाज़ा होता है उनके ख़तों से, जो उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ़्तारी के बाद जेल से लिखे थे। ये खत उन्होंने अपने दोस्त नवाब सद्र यार ज़ंग को अहमदनगर जेल से लिखे थे। 1946 में ये ख़त किताब के शक्ल में ‘गुबार-ए-ख़ातिर’ में प्रकाशित हुए। लगभग एक साल के दरमियान, अगस्त 1942-सितंबर 1943, लिखे गए ये ख़त एक राष्ट्रवादी नेता की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से भी हमें वाबस्ता कराते हैं।

ये ख़त अकसरहा सुबह-सुबह चाय की चुसकियाँ लेते हुए लिखे गए, लिहाजा इनमें चाय की भी चर्चा होती ही थी। अपनी पसंदीदा चाय के बारे में बताते हुए आज़ाद 17 दिसंबर 1942 को लिखते हैं : ‘एक मुद्दत से जिस चीनी चाय का आदी हूँ वो व्हाइट जेस्मिन कहलाती है यानी ‘यास्मने -सफ़ेद’ या ठेठ उर्दू में यूँ कहिए कि ‘गोरी चंबेली’… इसकी खुशबू जिस कदर लतीफ़ है, उतना ही क़ैफ़ (नशा) तुंद-व-तेज़ है’। वे ‘अफ़सुर्दगियों का चाय के गरम जामों से इलाज’ किया करते हैं और स्याही ख़त्म होने पर कलम को चाय के फ़िंजान में भी डुबो देते हैं और कहते हैं कि ‘आज कलम को भी एक घूँट पिला दिया’।

आज़ाद एक ख़त में लिखते हैं कि वे चाय के लिए रूसी फ़िंजान काम में लाते हैं। रूसी फ़िंजान की खूबियाँ गिनाते हुए वे आगे जोड़ते हैं कि ‘ये चाय की मामूली प्यालियों से बहुत छोटे होते हैं। अगर बेज़ौकी के साथ पीजिए तो दो घूँट में खत्म हो जायें। मगर ख़ुदा न ख़ास्ता मैं ऐसी बेज़ौकी का मुर्तकिब क्यों होने लगा ? मैं पुराने पीने वाले की तरह ठहर-ठहरकर पीऊँगा और छोटे-छोटे घूँट लूँगा’। अपने चाय के प्रयोगों के बारे में विस्तार से लिखते हुए, 3 अगस्त 1942 को लिखे गए एक ख़त में आज़ाद लिखते हैं :

“मैंने चाय की लताफ़त व शीरीनी को तंबाकू की तुंदी व तलख़ी से तरकीब देकर एक कैफ़े-मुरक्कब पैदा करने की कोशिश की है। मैं चाय के पहले घूंट के साथ ही मुत्तसिलन एक सिगरेट भी सुलगा लिया करता हूँ फिर इस तरकीबे-खास का नक़्शे-अमल यूँ जमाता हूँ कि थोड़े-थोड़े वक़्फे के बाद चाय का एक घूँट लूँगा और मुत्तसिलन सिगरेट का भी एक कश लेता रहूँगा…मिक़दार के हुस्ने-तनासुब का इंज़्बात (सुमेल का ढंग) मुलाहिजा हो कि इधर फ़िंजान आखिरी जुरए (घूँट) से खाली हुआ, उधर तंबाकूये आतिशज़दा ने सिगरेट के आख़िरी खत्ते-कशीद (हद) तक पहुँचकर दम लिया।”

मौलाना आज़ाद तफ़सील से बताते हैं कि कैसे चाय चीन से रूस, तुर्किस्तान और ईरान में पहुंची और फिर इंग्लैण्ड तक। वे हिंदुस्तान में चाय में दूध मिलाने को हरगिज़ पसंद नहीं करते थे। और इस बुराई के लिए भी कसूरवार अंग्रेज़ों को ही ठहराते थे। बक़ौल मौलाना आज़ाद:

“सत्रहवीं सदी में जब अंग्रेज़ चाय से आशना हुए तो नहीं मालूम उन लोगों को क्या सूझी, उन्होंने दूध मिलाने की बिदाअत (नई बात) ईजाद की। और चूंकि हिंदुस्तान में चाय का रिवाज़ उन्हीं के जरिये हुआ इसलिए यह बिदअते-सैयअ यहाँ भी फैल गयी। रफ़्ता-रफ़्ता मुआमला यहाँ तक पहुंच गया कि लोग चाय में दूध डालने की जगह दूध में चाय डालने लगे…लोग चाय का एक तरह का सय्याल (तरल) हलवा बनाते हैं, खाने की जगह पीते हैं और खुश होते हैं की हमने चाय पी ली। इन नादानों से कौन कहे कि : हाय कमबख़्त तूने पी ही नहीं!”