सैयद अब्दुल अज़ीज़ :- नेत्रहीनो की आँख – बेसहारों का सहारा

सैयद अब्दुल अज़ीज़ का जन्म 1885 में पटना में नज़दीक प्रसिद्ध नेओरा गाँव में हुआ था, जो उनका ननिहाल था। उनका ननिहाल राजनीतिज्ञ , कानूनविद और विद्वानों का अनोखा संगम था। उनके पिता सैयद हिफ़ाज़त हुसैन जयपुर स्टेट के राजकीय हकीम थे। कम ही उम्र में उनके माता पिता का देहांत हो गया। उनकी आगे की शिक्षा के लिए जयपुर स्टेट ने अनुदान देना चाहा जिसे उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया और अपनी पढाई पहले जस्टिस शरफ़ुद्दीन के और फिर सर अली इमाम के देख रेख में जारी रखी।
 

आपने पटना कॉलेज में दाख़िला लिया लेकिन बाद में संत कोलंबस कॉलेज हजारीबाग़ पढ़ने गये। 1907 में इंग्लैंड गये और वहां के मिडिल टैंपल कॉलेज से 1913 में बैरिस्टर बनकर लौटे.. 1913 में कलकत्ता हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरु की और 1916 में पटना हाई कोर्ट आ गए। वो मज़बूत इरादे और भरपूर आत्मविश्वास वाले व्यक्ति थे, जो कड़ी मेहनत और समर्पण में विश्वास रखते थे। इसलिए वकालत शुरू करने के एक दशक से भी कम समय में ही वो पटना के सबसे अच्छे और कामयाब वकीलों में गिने जाने लगे। अदालत में उनकी मज़बूत और असरदार बहस ने लोगों को खूब आकर्षित किया।

Syed Abdul Aziz in the Public Life of Patna, From 1885 to 1948

 

उन्होने टेकारी राज टाईटील सूट, सोग़रा वक़्फ़ इस्टेट ट्रस्ट केस और दिल्ली कांस्पीरेसी केस में महत्वपूर्ण वकील के रुप में काम किया। वो वचन के पक्के और अपने पेशे में बेहद ईमानदार थे. 1929 के मेरठ कांस्पीरेसी केस में वो सरकारी वकील थे; जल्द ही उन्हें लगा कि सरकार का दावा कमज़ोर है तो ये जानते हुए कि केस लड़ते हुए ख़ूब पैसा कमा सकते हैं, उन्होंने सरकार को केस वापस लेने का सुझाव दे दिया।

 
शुरूआती दिनों में उन्हें राजनीती में कोई विशेष रूचि नही थी जबकि वो सामाजिक कल्याण में काफी सक्रिय थे. 1926 में सर अली इमाम ने उन्हें सियासत में दाख़िल कराया। और 1926 में बिहार विधान परिषद् के पटना चुनाव क्षेत्र से उन्हें बैरिस्टर मोहम्मद युनुस के ख़िलाफ़ खड़ा किया गया, जिसे सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने आसानी से जीत लिया।
 
सैयद अब्दुल अज़ीज़ विधान परिषद् में मुसलमानो के जाएज़ हक़ के लिए हमेशा आवाज़ उठाते रहे; 18-19 मार्च 1930 को विधान परिषद् में उन्होने धीरमपुर और अन्य इलाक़ो में मुसलमानो पर हो रहे ज़ुल्म पर सवाल उठाया तब दो दिन तक चले गर्मा गर्म बहस के बाद बिहार सरकार मुसलमानो के मदद के लिए तैयार हुई।
 
19 जनवरी 1931 को सैयद अब्दुल अज़ीज़ अहरार पार्टी से दुबारा विधान परिषद् के सदस्य चुने गए। जनवरी 1934 में उन्हें शिक्षा और विकास मंत्री बनाया गया; इस पद पर वो 1937 तक रहे और 15 जनवरी 1934 को बिहार में आये भयावह भूकंप के बाद पैदा हुई त्रासदी से उबरने के लिए सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने बहुत मेहनत की; आपने शहरी और ग्रामीण बिहार का लम्बा दौरा किया और खाना-पानी, कपड़े, दवाई, शेल्टर इत्यादि ज़रूरी चीज़ों का वितरण किया, साथ ही सरकारी और ग़ैर सरकारी दोनों तरह की संस्थाएं इन राहत कार्यों में लगी हुई थी, लोगों के पुनर्वास के लिए घर बनाये जा रहे थे।
 
सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने अपने माकान ‘दिलकुशा’ का एक हिस्सा डॉ राजेंद्र प्रासाद को दिया जिसमे भूकम्प प्रभावित लोगों के लिए सेंट्रल रिलिफ़ कमिटी का मुख्यालय खोला गया, जहां से भूकम्प राहत कार्य किया जाता था। उनके अटूट निश्चय और समर्पण को देखते हुए कांग्रेस में उनके नेतृत्व में एक भ्रष्टाचार जांच कमिटी बनाई, तब एक कांग्रेस समर्थक पत्रिका ‘The Searchlight’ ने उन्हें बिरादरीवाद से दूर और हिन्दू-मुस्लिम एकता का दूत बताया, जो असहयोग आन्दोलन से जुड़े हुए थे, 1934 की त्रासदी में राहत कार्यों में भरपूर मदद और नेत्रहीनो के लिए विशेष पहल की।
 
वो प्रांतीय नेत्रहीन राहत संघ के संस्थापक भी थे। मंत्री रहते हुए उन्होंने खादी उद्योग पर विशेष ध्यान दिया जिसके परिणामस्वरूप बिहार उद्योग एक लोकप्रिय ब्रांड बनकर उभरा तथा कपड़े और इसके द्वारा निर्मित पर्दे के डिज़ईन विदेशों में भी विशेष रूप से अधिक लोकप्रिय हुए। चुनाव लड़ने के लिए 1936 में सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने मुस्लिम यूनाइटेड पार्टी बनाई और ख़ुद 1937 का चुनाव पटना से सैयद अब्दुल हफ़ीज़ के विरूद्ध लड़ा और एक कड़े मुक़ाबले में थोड़े से बढ़त के साथ चुनाव जीतने में कामयाब हुए। 1937-39 में मुस्लिम यूनाइटेड पार्टी का मुस्लिम लीग में विलय हो गया।
 
बिहार में उर्दू को स्थापित करने में अहम् योगदान दिया, साथ ही बिहार उर्दू लाइब्रेरी की बुनियाद भी डाली, और अंजुमन इस्लामिया हॉल पटना का भी पुनः निर्माण करवाया।
 
सैयद अब्दुल अज़ीज़ को अनोखे वास्तुकला से इमारत बनाने में महारत हासिल थी। गांधी मैदान के सामने ‘दिलकुशा’ लम्बे समय तक उनका निवासस्थान रहा बाद में ये बेतिया महाराज द्वारा खरीद लिया गया। सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने कभी शादी नही की और अपनी सारी आमदनी लोगों की भलाई में ख़र्च किये। वो अपने दोस्तों को ख़ास तौर पर अपने पास रखते थे लेकिन किसी मनभेद की सूरत में फिर ऐसे दोस्तों के लिए दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हो जाते थे। उनकी मेहमान नवाज़ी शानदार होती थी और उनके दस्तरख़ान पर भिन्न भिन्न क़िस्म के बहुत से व्यंजन परोसे जाते थे; जिसमे मुग़लई व्यंजन ख़ास होते थे।
 
एैसे तो सैयद अब्दुल अज़ीज़ लोगों की भलाई के कामों से जुड़े रहते थे लेकिन नेत्रहीनो के लिए किया गया उनका प्रयास काफी सफ़ल और सराहनीय है। उनके प्रयासों से हज़ारों लोगों की आँखों की रौशनी वापस आ सकी। गरीबो को घर दिए गये, खाना दिया गया और आँखों के इलाज के लिए मुफ्त दवाइयां दी गयी। गाँधी मैदान में विशेष पंडालों में मरीज़ों के रहने की व्यवस्था होती थी जहाँ वो सारी सुविधाएं मुफ़्त पाते थे, ये सब कई वर्षो तक चला।
 
28-29 दिसम्बर 1938 को मुहम्मद अली जिन्नाह की अध्यक्षता में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का वार्षिक अधिवेशन पटना मे हुआ। सैयद अब्दुल अज़ीज़ इस अधिवेशन में स्वागत कमिटी के अध्यक्ष बनाए गए, मुस्लिम लीग का ये अधिवेशन कामयाब रहा, जिकसा क्रेडिट सैयद अब्दुल अज़ीज़ को मिला और वो एक बड़े नेता के तौर पर बड़ी तेज़ी से उभरे; और इस तरह वो मुस्लिम लीग की सियासत में लिप्त हो गये; जिसके बाद उन्हे मुस्लिम लीग बिहार इकाई का अध्यक्ष बनाया गया; लेकिन ये सब ज्यादा दिनों तक नही चला।
 
1941 में वो निज़ाम के वज़ीर बनने हैदराबाद चले जहाँ 1944 में ग़ुसुलख़ाना (स्नानागार) में गिरने से जख़्मी हो गये और शारीरिक रुक से अपंग हो गये। निज़ाम के न चाहने के बावजूद पटना लौट आये। 1946 में बिहार को भीषण सांप्रदायिक दंगों से दो चार होना पड़ा और इस मौज़ु पर सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने उर्दू में एक किताब ‘हादसात ए बिहार पर एक नजर , 25 जनवरी 1946 – 20 अक्टूबर 1947’ दो हिस्सों में लिखा।
 
मुस्लिम लीग के साथ उनके संबंध, 1946 के सांप्रदायिक दंगों से घृणा, और कांग्रेस की अगुवाई वाली प्रांतीय प्रशासन के ख़िलाफ़ उनकी शिकायतों और इस संबंध में उनकी भूमिका के बावजूद उन्होंने ‘पाकिस्तान’ की ओर पलायन करने से मुसलमानों को रोकने का भरपुर प्रयास किया। अपने मजमून में उन्होंने मुस्लिम लीग के बंगाल विंग पर भी आरोप लगाया की वो बिहार के मुस्लिमों को डराकर और रेल किराए की पेशकश के ज़रिए पलायन करने पर मजबुर कर रही है।
 
ज्ञात रहे के जानलेवा बिमारी मे मुबतला होने को बावजुद भी सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने दंगाग्रसित इलाक़ो के मुसलमानो को बसाने के लिए एक एैसी स्कीम पेश की जिसे मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनो हलक़ो के मुसलमानो ने पसंद किया और इसपर हुकुमत से बाते भी कीं, मगर अभी ये बात चल ही रही थी के बंगाल के वज़ीर ए आज़म ‘सैयद शहीद सहरवर्दी’ ने बिहार आकर ये एलान कर दिया के हम बंगाल मे मुससमानो को बसाने के लिए तैयार हैं, जिसके लिए उन्होने आसंनसोल मे रिलीफ़ कैंप खोला जिसके बाद दंगे मे तबाह हुए मुसलमानो का रुख़ उस जानिब हो गया और आज भी वहां बड़ी तादाद मे बिहारी मुसलमान रहते हैं।
 

7 जनवरी 1948 में सैयद अब्दुल अज़ीज़ का निधन हो गया, उनके जनाज़े की नमाज़ में पटना के लॉन (गांधी मैदान) में अदा की गई, जहां भारी भीड़ मौजुद थी, और उसके बाद उन्हें नेओरा के क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया।

 
जानकारी :- प्रो मुहम्मद सज्जाद साहेब की अंग्रेज़ी लेख; तक़ी रहीम की ‘तहरीक ए आज़ादी मे बिहार के मुसलमानो का हिस्सा’ और बिहार आर्काईव द्वारा मिले लेख का अनुवाद Heritage Times के लिए मुहम्मद सैफ़ुल्लाह ने किया है।