अख़तर पयामी : एक शायर जिसे हिजरत रास ना आई!

अख़तर पयामी का जन्म 1 फ़रवरी, 1930 को नालंदा ज़िले के नोनही गांव में हुआ था। यह दरअसल उनकी मां नजमुन्निसा बेगम का मायका था, जो इलाक़े के एक बड़े काश्तकार शाह तफ़ज़्जुल हुसेन की छोटी बेटी थीं, और जिनकी शादी उर्दू-फ़ारसी के बड़े शायर-अदीब बहार हुसैनाबादी के नवासे सैयद सैफ़ुद्दीन से हुई थी।

पिता शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, जिन्हें थोड़े-थोड़े अर्से पर तबादले का बोझ उठाना पड़ता था। अख़तर ने अपनी स्कूली तालीम गया के हरिदास सेमिनरी से पूरी की। उनकी ज़ेहानत और इम्तेहान में शानदार कामयाबी ने परिवार के बुज़ुर्गों को आमादा किया कि अख़तर को डाक्टरी की पढ़ाई के लिए तैयार किया जाए। इसी इरादे से उन्हें भागलपुर टी एन बी कालेज में दाख़िल कराया गया। लेकिन पयामी को साइंस की पढ़ाई नापसंद थी। उनका ज़ेहन अदब और सहाफ़त की दुनिया में ‘उलझा’ था। आज़ादी की तहरीक और कम्युनिस्ट विचारधारा ने उन्हें अपनी गिरफ़्त में ले रखा था। कम उम्र में ही, अपनी ज़बरदस्त सक्रियता से उन्होंने कम्युनिस्ट नज़रिए के तर्जुमान तमाम बड़े रहनुमाओं, ख़ासकर प्रगतिशील विचारकों का दिल जीत लिया था। अपनी तहरीरी और तक़रीरी सलाहियत के बल पर पयामी ने बहुत जल्द बिहार से बंगाल, और दिल्ली से भोपाल तक अपनी साख बना ली थी। सिर्फ़ 16-17 साल की उम्र में वो कोलकाता से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक पत्रिका ‘नई मंज़िल’ के संपादक बन गए थे। यह पत्रिका कम्युनिस्ट विचारधारा और अवामी अदब की नुमाइंदगी करती थी।

बाद में, पयामी रांची आ गए, जहां उन्होंने विशिष्टता के साथ इकनामिक्स आनर्स की पढ़ाई पूरी की। इस बीच, उनकी राजनीतिक सक्रियता ने इतना सघन रूप ले लिया था कि कुछ अप्रिय हालात में उन्हें पटना विश्वविद्यालय की एम ए परीक्षा के ठीक पहले देश से बाहर जाने की नौबत आ गई। इन हालात के पीछे कुछ नज़दीकी दोस्तों और रिश्तेदारों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) की राजधानी (ढाका) आरंभिक दिनों में उनके लिए एक यातना-पड़ाव की तरह थी। अपने वतन से गहरा लगाव और इससे दूरी का ग़म एक टीस बनकर सारी ज़िंदगी उनका पीछा करता रहा। इस दौर की उनकी नज़्में इस टीस को उजागर करती हैं।

पूर्वी पाकिस्तान में पयामी ने अपनी शायरी का सिलसिला जारी रखा। लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता सहाफ़त (मार्निंग न्यूज़, ढाका) की ज़िम्मेदारियां उनकी अदबी ज़िंदगी पर हावी होने लगीं। पूर्वी पाकिस्तान के तेज़ी से बदलते हालात ने उन्हें किसी क़दर विचलित कर रखा था। पाकिस्तान के सैनिक शासकों की आक्रामक कार्रवाइयों ने उन्हें गहरे झटके दिए थे, और लोकशाही के प्रति उनकी कमिटमेंट ख़तरे में पड़ रही थी।

एक समय आया, जब बांग्लादेश की आज़ादी के बाद पाकिस्तान में दोबारा जम्हूरी निज़ाम क़ायम करने की चुनौती ने उन्हें आवाज़ दी, और ग़ैर जम्हूरी ताक़तों से ज़िंदगी की आख़िरी जंग लड़ने के हौसलों के साथ पयामी ने कराची का रुख़ किया। यहां आकर वो मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार ‘डान‘ के संपादकीय विभाग के प्रमुख सदस्य हो गए।

कराची एक बड़ा शहर था, और दुनिया के तमाम बड़े शहरों की तरह, यहां इंसानी रिश्तों का ताना-बाना बेहद कमज़ोर हो चला था। यहां आकर सहाफ़त की दुनिया में पयामी को शोहरत की ऊंचाइयां ज़रूर मिलीं, मगर उनके ज़ेहनी सुकून का दायरा सिमटता गया। अपने हक़ीक़ी वतन हिंदोस्तान की यादें मुसलसल उनकी आंखों में सुनहरे ख़ाबों की तरह जगमगाती रहीं। वो लम्हा-भर के लिए भी ख़ुद को इनसे आज़ाद नहीं कर सके।

उर्दू मरकज़ अज़ीमाबाद की ओर से, मैंने 1996 में उनकी मोनुमेंटल ड्रामाई नज़्म ‘तारीख़’ (मेरा सफ़र तवील है) प्रकाशित की। इसकी अगली कड़ी के रूप में, 1999 में इसी संस्था से उनकी कविताओं का संग्रह ‘कलस’ प्रकाशित हुआ। इन दोनों पुस्तकों ने उर्दू की नई पीढ़ियों को पहली बार अख़तर पयामी की शायरी से परिचित कराया। आगे चलकर, 2004 में कराची से ‘आईनाख़ाने’ के शीर्षक से उनकी नज़्मों का पाकिस्तानी संस्करण भी प्रकाशित हुआ।

इस तरह, लम्बे अर्से के बाद, मुकम्मल आब-व-ताब के साथ अख़तर पयामी की शायरी अदबी दुनिया के सामने आई, हालांकि अब भी उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा हिन्द-पाक की उस समय की कुछ मशहूर पत्रिकाओं में गुम है, जिसे ‘कलस’ अथवा ‘आईनाख़ाने’ में शामिल नहीं किया जा सका है।

ख्यात कथाकार, सुहैल अज़ीमाबादी, उन लोगों में रहे, जिन्हें अख़तर पयामी के पाकिस्तान जाने का सदमा था। अपने पत्रों तथा निजी बातचीत में, अक्सर, उन्होंने इस ‘सदमे‘ का इज़हार किया। उनके अनुसार, दिनकर जी ने एक बार जवाहरलाल से पयामी की भारत-वापसी की ज़ोरदार पहल की थी। लेकिन पयामी की बामपंथी प्रतिबद्धता ने ही शायद इस पहल को साकार नहीं होने दिया।

पांच साल पूर्व, 8 अप्रैल, 2013 को, कराची में, अख़तर पयामी का निधन हो गया। उन्हें मेरी शोक-भरी यादें!

Professor Jabir Husain http://hindi.heritagetimes.in

प्रोफ़ेसर जाबिर हुसैन पुर्व सांसद हैं, और बिहार विधान परिषद के सभापति भी रह चुके हैं जो हिंदी, उर्दू तथा अंग्रेज़ी जैसी भाषाओं में समान अधिकार के साथ लेखन करते रहे हैं। इन्हे साल 2005 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।