बाबू कुंअर सिंह : सन् सनतावन के अगिया बैताल

कुमार नरेंद्रा सिंह

‘कुंअर सिंह एक ऐसा आदमी है, जिसने हमें 80 साल की अवस्था में एक पूर्ण पराजय का त्रासद घाव दिया, जिसने बेलगाम विद्रोहियों से ऐसी हुक्मबरदारी हासिल की, जिसे उन्होंने किसी अन्य को नहीं दी, जिसने अपनी सेना का लखनऊ तक नेतृत्व किया औऱ ऐसी लड़ाई लड़ी, जिसने अंत में भारत के भाग्य का फैसला किया। हम अंग्रेज काफी भाग्यशाली हैं कि कुंअर सिंह की उम्र 40 साल कम नहीं है।’ यह कथन है उस उस अंग्रेज इतिहासकार का, जिसकी कलम में विद्रोहियों के प्रति सिर्फ नफरत ही भरी हुई थी। जॉर्ज ओ. ट्रिविलियन ‘कानपुरवाला’ का यह उक्त कथन कुंअर सिंह की क्षमता औऱ काबिलियत का सबसे बड़ा प्रमाण है। दुनिया के इतिहास में कुंअर सिंह के अलावा कोई प्रमाण नहीं मिलता जब किसी ने 80 साल की उम्र में इतनी जबर्दस्त लड़ाई लड़ी हो और अपनी औकात तथा सरजाम से कई गुना ज्यादा विजय पताका फहराई हो।

बिहार में गदर के सरताज कुंअर सिंह शाहाबाद जिले (अब भोजपुर) की एक रियासत जगदीशपुर के जमींदार थे। बचपन से ही फक्कड़ औऱ मनमौजी स्वभाव के कुंअर सिंह का ज्यादा समय शिकार खेलने औऱ रासरंग में व्ययतीत होता था। राजकाज से बेपरवाग औऱ मनशोख होने के चलते भाइयों और पिता समेत पत्नी से भी ठनी ही रही। घुड़सवारी, तीरअंदाजी औऱ पहलवानी उनका प्रिय शगल था। शरीर भी तो स्वभाव के अनुकूल ही मिला था। एक ब्रिटिश न्यायिक अफसर के अनुसार कुंअर सिंह दुबले-पतले और काले रंग के थे और उनका कद सात फिट लंबा था। उनके हाथ बबून (बंदर की एक प्रजाति) की तरह घुटने तक आते थे। उनका चेहरा और जबड़े चौड़े थे, जबकि उनकी गाल की हड्डियां उभरी हुई थीं। उनकी नाक गरुड़ जैसी थी और ललाट ऊंचा था। वे एक अव्वल दर्जे के घुड़सवार थे और तलवार चलाने में माहिर थे। जहां तक बंदूक की बात है तो बंदूक चलाने में भी उनका कोई सानी नहीं था। सबसे बड़ी बात तो यह कि इन हथियारों को वे अपनी देखरेख में बनवाया करते थे।

बिहार में गदर का नेतृत्व कुंअर सिंह ने ही किया था। वैसे सच बात तो यह है कि बिहार में सिपाहियों की बगावत में उनकी अच्छी-खासी भूमिका रही थी। अगर कहा जाए तो एक तरह से कुंअऱ सिंह की प्रेरणा से ही दानापुर के सिपाहियों ने विद्रोह किया था तो शायद गलत नहीं होगा। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उतरने से पहले कुंअर सिंह ने लड़ाई की पूरी योजना बनाई थी औऱ देश भर के जमींदारों, राजे-रजवाड़ों को पाती भेजकर युद्ध में शामिल होने का न्योता भी दिया था। इतना ही नहीं, वे गुप्त रूप से हिंदुस्तान भर के विद्रोहियों के संपर्क में भी थे। तत्कालीन अंग्रेजी सरकार के गुप्तचरों की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है। दानापुर में विद्रोह के दिन ही देवघर के रोहिणी में विद्रोह हुआ था और वहां के विद्रोही कुंअर सिंह की अगुआई में लड़ने के लिए आरा की तरफ कूच कर चुके थे। उसी दौरान देवघर में विद्रोहियों का एक गुप्तचर पकड़ा गया था, जिसने पूछताछ में कुबूल किया कि वह जगदीशपुर का रहने वाला है और वहां इसलिए पहुंचा था कि वहां की गतिविधियों के बारे में कुंअर सिंह को जानकारी दे सके।

7 जून, 1857 को बनारस में जिस विश्वासघाती तरीके से देसी सिपाहियों से हथियार जमा कराए गए और कर्नल नील का जो सिपाहियों के प्रति व्यवहार रहा, उससे दानापुर के सिपाही अनिष्ट की आशंका से परेशान हो उठे। इसके बाद पटना में कमीश्नर टेलर की अंधेरगर्दी ने सिपाहियों को अंदर से झकझोर डाला था, लेकिन इसके बावजूद सिपाही शांत रहे। इसी बीच इस बात का पता चला कि कुंअर सिंह के दो एजेंट दानापुर आए थे और वे सिपाहियों के संपर्क में थे। ये दोनों एजेंट कोई और नहीं बल्कि हरेकृष्ण और रणधारी सिंह थे, जिन्होंने गदर शुरू होने के बाद कुंअर सिंह के नेतृत्व में अहम भूमिका निभाई। सिपाहियों को इन्हीं दोनों ने बताया कि विद्रोह की स्थिति में कुंअर सिंह उनका नेतृत्व करने को तैयार हैं। जाहिर है कि इसने सिपाहियों की बगावत के लिए आग में घी का काम किया। क्रांति शुरू होने के पहले 1845 के दौरान ही सोनपुर के मेले में उन्होंने अन्य लोगों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की योजना भी बनाई थी। इसका सत्यापन अंग्रेजों के सरकारी इतिहासकार केयी और माल्लेसन ने भी की है। इतना ही नहीं, कुंअर सिंह ने देश के अन्य क्रांतिकारियों के साथ गंठजोड़ के लिए हरिद्वार तक की यात्रा की और उनके साथ गुप्त बैठकें कीं। हरियाणा सर्व खाप पंचायत के तत्कालीन रिकॉर्ड दर्ज करने वाले मीर मुस्ताक मिरासी, जो उस बैठक में शामिल थे, ने बैठक में हुई बातों का पूरा ब्यौरा दिया है। उस बैठक में हिंदुस्तान के अनेक क्रांतिकारियों ने हिस्सा लिया था। मिरासी लिखते हैं कि उस बैठक में हरियाणा सर्व खाप के तत्कालीन मंत्री मोहनलाल जाट, सैन्य प्रमुख शिवराम जाट, उप सैन्य प्रमुख भागवत गूजर, पंडित शोभा राम, शामली (मुजफ्फरनगर) के चौधरी मोहर सिंह जाट, बिजरौल (मेरठ) के दादा साईमल्ल जाट, ढकौली (मेरठ) के चौधरी दयासिंह जाट के अलावा बहादुरशाह का एक बेटा, नाना साहेब, तांतिया टोपे, जगदीशपुर (बिहार) के राजा कुंअर सिंह, बेगम हजरत महल, मौलवी अजिमुल्ला, बंगाल के रंगो बापू कायस्थ तथा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भी शिरकत की थी। मालूम हो कि मीर मुस्ताक मिरासी का यह आंखों देखा विवरण पंजाब के जालंधर से निकलने वाले उर्दू अखबार मिलाप में 12 अक्टूबर, 1969 के अंक में प्रकाशित हुआ है। इसके अलावा रामनारायण अग्रवाल द्वारा लिखित राजा महेंद्र प्रताप अभिनंदन ग्रंथ में भी इसका जिक्र मिलता है। इसी तरह दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका आर्य मर्यादा में भी यह विवरण छपा है। यह बैठक मई, 1855 में हुई थी। कहने का अर्थ यह कि जो लोग कुंअर सिंह पर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ तब मोर्चा खोला जब उन्हें एहसास हो गया कि उनकी जमींदारी नहीं बचेगी, वह गलत है। इसमें कोई शक नहीं कि कुंअर सिंह ने अपनी जमींदारी बचाने की कोशिश अंतिम दम तक की लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चाबंदी में भी जुटे रहे थे। दूसरी बात यह कि जो इतिहासकार या लेखक कुंअर सिंह पर उक्त आरोप लगाते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि 1857 के सभी क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ तभी खड़े हुए जब उन्हें लगने लगा कि उनकी जमींदारी नहीं बचेगी। यह एक ऐसा आरोप है, जिससे सन सनतावन का कोई भी क्रांतिकारी अछुता नहीं है।

बहरहाल, कुंअर सिंह की पाती पर बिहार के छोटे जमींदारों ने तो युद्ध में शामिल होने की हामी जरूर भरी, किंतु किसी भी बड़े जमींदार ने उनका साथ नहीं दिया। दरभंगा, टेकारी औऱ बेतिया और हथुआ नरेश की बात कौन करे, एक ही खानदान के होने के बावजूद डुमरांव महाराज तक अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा नहीं हुए, वैसे यह कहना ज्यादा सही होगा कि इन राजाओं ने अंग्रेजों का ही साथ दिया। इतना ही नहीं, कुंअर सिंह के सगोत्रीय उज्जैन राजपूतों ने भी उनका साथ नहीं दिया। अपने सगोत्रीयों के इस व्यवहार से कुंअर सिंह इतने आहत हुए थे कि एक बार तो उन्हीं लोगों के खिलाफ लड़ाई की आवश्यकता महसूस करने लगे थे। आज भी भोजपुर के एक उज्जैनिया ऱाजपूतों के गांव लहठान, जिला भोजपुर में एक बहुत बड़ा तालाब है, जिसके बारे में वहां के लोग बताते हैं कि वह पोखरा कुंअर सिंह ने खोदवाया था औऱ इसका उद्देश्य था उस गांव के सभी उज्जैनिया राजपूतों को मार कर उसी तालाब में भसा देना। वास्तव में कुंअर सिंह की असली ताकत शाहाबाद के आमजन थे, जो उनकी ललकार पर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो गए थे। प्रसिद्ध इतिहासकार, अरविंद नारायण दास ने शायद इसीलिए कुंअर सिंह का आकलन प्रथम किसान नेता के रूप में किया है। स्वयं अंग्रेज अधिकारियों का कहना है कि कुंअर सिंह की असली ताकत जनता थी, जो उन्हें दिलोजान से चाहती थी। दानापुर के सिपाहियों सहित अन्य जमींदारों को अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ खड़ा करने में कुंअर सिंह की भूमिका का यह भी एक प्रमाण है कि 17 जूलाई यानी बगावत के एक सप्ताह पूर्व आरा के जज ने अपने टेबल पर एक बेनामी पत्र पड़ा पाया, जिसमें कहा गया था कि गया के एक नामी जमींदार अली करीम, जो कंपनी सरकार के खिलाफ गुप्त पत्राचार के मामले में शामिल थे, हाल ही में जगदीशपुर आए थे। इस पत्र में यह भी लिखा था कि दानापुर के सिपाही 25 जुलाई को बगावत कर सकते हैं। आगे यह भी लिखा था कि यदि आरा में कुंअर सिंह के एजेंट काली प्रसाद के घर की तलाशी ली जाए तो आपत्तिजनक ठोस सुबूत मिल सकते हैं। काली प्रसाद के घर की तलाशी ली गई लेकिन वहां कुंअर सिंह के षड्यंत्र में शामिल होने के मामले में कोई सुबूत नहीं मिला। अलबत्ता, बगावत की तिथि जरूर सही साबित हुई।

यूं तो कुंअऱ सिंह शाहाबाद के सबसे बड़े जमींदार थे, लेकिन उनकी जमींदारी की स्थिति डावांडोल थी। इस्टेट आर्थिक बोझ से दबा हुआ था। उनके ऊपर उस समय 20 लाख रुपए का कर्ज था। सेना और सरजाम भी उनके पास कम थे। अगर अंग्रेज इतिहासकारों की ही बात करें तो कुंअर सिंह के पास 1000-2000 से ज्यादा सैनिक कभी नहीं रहे। इन तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी तो सिर्फ इसलिए कि स्थानीय जनता का उन्हें जबर्दस्त समर्थन हासिल था। अगर कहा जाए कि शाहाबाद के किसानों औऱ कारीगरों के बल पर ही उन्होंने 80 साल की उम्र में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए तो कोई गलत नहीं होगा। जनता के साथ उनके जुड़ाव को अनेक अंग्रेज अफसरों ने अपने सरकारी और वैयक्तिक पत्रों में रेखांकित किया है। आमजन के साथ उनके जुड़ाव का आलम यह था कि जब आरा जेल के कैदी पीतल के लोटे के बदले मिट्टी के पात्र दिए जाने के खिलाफ उग्र हो चले तो उन्हें शांत करने के लिए पटना के कमीश्नर टेलर ने कुंअर सिंह को जेल में बुलाया था। कुंअर सिंह के कहने पर उस वक्त तो कैदी मान गए लेकिन उनके वहां से जाते ही फिर उग्र रूप अख्तियार कर लिए।

दानापुर के सिपाहियों ने तो 25 जुलाई, 1857 को विद्रोह किया था लेकिन उससे पहले ही कुंअऱ सिंह को ज्ञात हो चुका था कि दानापुर के सिपाही विद्रोह करने वाले हैं। एक सिपाही ने चंद दिनों पहले ही बता दिया था कि सिपाहियों के बीच हल्दी बंट चुकी है औऱ अब विद्रोह कभी भी हो सकता है। वैसे कुंअर सिंह युद्ध की तैयारी में पहले से ही जुट गए थे। रंगरूटों की भर्ती के साथ-साथ उनकी ट्रेनिंग भी दी जा रही थी। उन्होंने अपनी सेना को पांच कमांड में विभाजित कर रखा था, जिनके नाम थे— राणा कमान, शिवा कमान, टिपू कमान , बजरंगी कमान और चंडी कमान। सेनापति हरेकृष्ण को बनाया गया था। इनकी पदवी थी– सलारे जंग। इसी तरह विभिन्न ब्रिगे़डों के नाम स्थानीय गांव के नाम पर रखे गए थे। उदाहरण के लिए शाहपुर थाना के सहजवली गांव के निवासी देवी ओझा को कारीसाथ डिवीजन की कमान सौंपी गई। बिहिया डिवीजन का कमांडर गया जिले के खमदनी गांव के वीर जीवधन सिंह को बनाया गया था। इसी तरह चौगाईं डिवीजन के कमांडर शाहपुर के रणजीत अहीर थे। उसके अलावा अनेक गांवों के वीर अपनी छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ियां लेकर कुंअर सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में ईंट से ईंट बजाने को तैयार थे। सासाराम के बड्डी गांव के चौहान राजपूत गाजीपुर जिले के मेनदई गांव के जमींदार जयनाथ, हेतमपुर के हरि सिंह, चातर के भंजन सिंह, बबुरा के रामेश्वर, बलुआं के तिलक सिंह, नवादा गांव के वीर द्वारिका, डेढ़गाईं के रामनारायण, बेनी छपरा के सुबेदार रामधुन सिंह, सुबेदार देवकी दुबे, गाजीपुर के रणबहादुर सिंह, आयर गांव के शोभा सिंह औऱ उनके पुत्र बाबू महादेव सिंह, दिलीपपुर के भोला बाबू के चार पुत्र, लक्ष्मी सिंह, काशी सिंह, आनंद सिंह राधे सिंह, करबासिन गांव के साहबजादा सिंह, उगना गांव के रूपनारायण, कवंरा गांव के शिवपरसरन, डिलियां के श्यामबिहारी, झउवां के हरसु राय, गहमर के मेघन राय, जमानियां के इब्राहिम खां, पटना के डुमरी गांव के हुसैन मियां आदि कुंअर सिंह की अगुआई में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ ईंट से ईंट बजाने को तैयार थे।

दानापुर की सातवीं, आठवीं औऱ चालीसवीं पलटन ने 25 जुलाई को विद्रोह किया औऱ वे कुंअर सिंह से नेतृत्व की प्रत्याशा में आरा शहर को कूच कर चले। कुंअर सिंह ने उचित ही उनका नेतृत्व संभाला। देखते ही देखते कुंअर सिंह की अगुआई में विद्रोहियों ने आरा शहर को अपने कब्जे में ले लिया। विद्रोहियों ने आरा के सरकारी खजाने से 85,000 हजार रुपए लूट लिए औऱ जेल तोड़कर सभी कैदियों को आजाद करा लिया। कुंअऱ सिंह के मन में धर्मनिरपेक्षता का आग्रह कितना प्रबल था, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि कब्जे के बाद उन्होंने आरा शहर की कमान शेख मोहम्मद याहिया औऱ शेख अफजल को सौंपी न कि किसी हिंदू को। अंग्रेजों को इंजीनियर ब्वॉयल के घर, जो बाद में आरा हउस के नाम से मशहूर हुआ, में जान बचाने के लिए छिपना पड़ा। आऱा को मुक्त कराने के लिए कैप्टन डनवर दानापुर से 500 सैनिकों की एक फौज लेकर आऱा रवाना हुआ। जब अंग्रेजी फौज आरा के नजदीक कायमनगर पहुंची तो कुंअऱ सिंह के सैनिकों ने उन पर हमला बोल दिया। जबर्दस्त ल़ड़ाई हुई। इस लड़ाई में डनवर सहित उसके लगभग चार सौ सैनिक मारे गए और कुंअर सिंह की विजय हुई।

उधर अंग्रेजों की गोलंदाजी सेना का सेनापति कैप्टन आयर कलकत्ता से इलाहाबाद जा रहा था कि बक्सर में उसे खबर मिली कि कुंअर सिंह के नेतृत्व में विद्रोहियों ने आऱा पर कब्जा कर लिया है। बस क्या था, वह वहीं से वापस मुड़ गया। उसके पास एक बड़ी फौज के अलावा तोपें भी थीं। गजराजगंज में कुंअऱ सिंह और अंग्रेजी फौज के बीच जमकर लड़ाई हुई। कुंअर सिंह ने सावधानी बरतते हुए मोर्चा छोड़ दिया, किसी औऱ जगह मोर्चा जमाने के लिए। यह नया मोर्चा लगा बीबीगंज में। इस लड़ाई में भी कुंअर सिंह को नाकामी मिली। कैप्टन आयर विजयी होकर आरा शहर में प्रवेश किया और आरा फिर से अंग्रेजों के हाथ में चला गया। इसके बाद आयर ने एक बड़ी फौज लेकर जगदीशपुर पर हमला किया लेकिन तब तक कुंअर सिंह वहां से निकल चुके थे। आयर ने कुंअर सिंह के गढ़ को तोपों से ढहा दिया औऱ आग लगा दी। कुंअर सिंह ने कुछ दिनों पहले ही जगदीशपुर में एक सुंदर शिवमंदिर बनवाया था। आयर ने इस मंदिर को भी नहीं बख्शा और उसे भी तोपों से ढहा दिया और उसके पुजारी को मार डाला। इसके बाद आरा शहर पर फिर से अंग्रेजों का अधिकार हो गया। आरा को मुक्त कराने के बाद आयर अपने सहयोगियों औ सिपाहियों के साथ दानापुर लौटा। दानापुर में चालीसवीं पलटन के 100 देसी सिपाही तब भी अंग्रेजों के प्रति वफादार बनकर वहीं डटे हुए थे। रात में जब डनबर की हारी हुआ सैनिक टुकड़ी दानापुर पहुंची तो वे देसी सिपाही बेखबर सो रहे थे। केयी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि हार से बौखलाए गोरे सिपाहियों ने उन अभागे देसी सिपाहियों को अंधेरे का लाभ उठाकर संगीनों से मार डाला। केयी इस जघन्य बर्बर कांड की भर्त्सना भी करता है। वह लिखता है – इन अंग्रेज सिपाहियों ने सो रहे मित्रों पर महज इसलिए हमला कर दिया कि उनकी चमड़ी का रंग भी विद्रोहियों के रंग जैसा था। आरा फतह के बाद लौटी अंग्रेजों की फौज ने अपने इस कृत्य से वर्दी पर दाग लगा लिया और मानवता को कलंकित किया। लेकिन अफसोस कि विद्रोहियों की ज्यादतियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले अंग्रेज अपने उन सैनिकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, जिन्होंने वफादार सिपाहियों का सोते में कत्ल किया था।

आरा पर फिर से अधिकार के बाद आयर ने शहर के लोगों से हथियार जब्त करने का आदेश दिया और बिना मुकदमा चलाए लगभग दर्जनभर विद्रोही सैनिकों को फांसी पर लटका दिया। फांसी पर लटकाए जानेवाले सिपाहियों में अवलेक सिंह (चालीसवीं रेजिमेंट), रामनारायण पांडे (40वीं रेजिमेंट), नबी बख्श (आठवीं रेजिमेंट), गंभीर सिंह (40वीं रेजिमेंट), मंसूर अली खां (40वीं रेजिमेंट), शेख वजीर (आठवीं रेजिमेंट), शेख अहमद (आठवीं रेजिमेंट), मंसा राम (सातवीं रेजिमेंट), मेघबरन ग्वाला (40वीं रेजिमेंट), गणेश सिंह (40वीं रेजिमेंट) शामिल थे। इसके अलावा सातवीं रेजिमेंट के सिपाही पुतुल सिंह को रिहा कर दिया गया, जबकि सिपाही जटाधारी को मुकदमा चलाने के लिए दानापुर भेजा गया। इतना ही नहीं, आरा शहर के आम लोगों पर भी मुकदमा चलाया गया और उन्हें तरह-तरह की सजा दी गई। सन सनतावन की क्रांति के संदर्भ में आरा शहर के साथ एक विशिष्ट बात भी हुई और वह यह थी कि इस शहर पर बगावत के आरोप में बाजाप्ता मुकदमा चला। पूरे देश में आरा एकमात्र ऐसा शहर था, जिस पर एक पक्ष के रूप में मुकदमा चला। क्रांति के अन्य मशहूर केंद्रों – मेरठ, दिल्ली, कानपुर और लखनऊ पर भी ऐसा मुकदमा नहीं चला। जाहिर है कि अंग्रेजों की नजर में आरा शहर के सभी लोग बगावत में शरीक थे, जबकि अन्य जगहों पर लोगों ने क्रांति को इतना समर्थन नहीं दिया था। सन् 1859 में चला यह मुकदमा था – गवर्नमेंट वर्सेज दी टाउन ऑफ आरा। 1858 के अधिनियम 10 के तहत आरा शहर पर बगावत का आरोप था और सुनवाई करने वाले मजिस्ट्रेट थे डब्ल्यू. जे. हर्शल। बहरहाल, मजिस्ट्रेट ने आरा शहर को बरी कर दिया और बंगाल सरकार ने भी मजिस्ट्रेट के निर्णय को सही ठहराते हुए पटना प्रमंडल के आयुक्त को आगे कोई कार्रवाई न करने का निर्देश दिया।

बीबीगंज और जगदीशपुर की हार से सिपाहियों में थोड़ी कुंठा तो जरूर पैदा हुई लेकिन कुंअर सिंह ने जब दहाड़ते हुए कहा कि जहां मैं हूं, जगदीशपुर वहीं है, तो सिपाहियों में उत्साह की लहर दौड़ गई। उस समय कुंअर सिंह के पास कुल 1000 सिपाहियों की फौज थी। इसी फौज को लेकर कुंअर सिंह सासाराम की और बढ़ गए। सासाराम जब 10 मील रह गया तो नोखा में कुंअर सिंह ने पड़ाव डाला ताकि रसद आदि इकत्रित कर लिया जाए। कुंअर सिंह की जनता से सक्रिय संवाद का पता उस चिट्ठी से लगता है, जो सासासराम के डिप्टी मजिस्ट्रेट डब्ल्यू. सी. कॉस्टले ने 30 अगस्त को कंपनी सरकार को लिखा था। इस पत्र में वह लिखता है कि नोखा सहित आस-पास के सभी जमींदारों और उनके रैयतों ने कुंअर सिंह कि रसद-पानी से खूब मदद की। बरांव के जमींदार मलिक बंधुओं ने खुलआम घोषणा कर डाली कि कंपनी का राज समाप्त हो चुका है और अब कुंअर सिंह का राज है। यहां इस बात का उल्लेख करना समीचीन होगा कि बीबीगंज की लड़ाई हारने के बाद सातवीं आठवीं रेजिमेंट्स के सिपाही कुंअर सिंह के साथ जगदीशपु न जाकर स्वयं की पहल पर पश्चिम दिशा में बढ़ गए थे। कुंअर सिंह के साथ मूल रूप से 40वीं पैदल सेना ही रह गई थी, जिसकी संख्या मात्र 1000 थी। इसके बाद वह रोहतास में प्रवेश कर गए और कुछ दिनों वहीं पर रहकर हजारीबाग में विद्रोह करने वाले सिपाहियों की दो कंपनियों और भागलपुर की पांचवीं घुड़सवार सेना के विद्रोहियों के आ मिलने के लिए इंतजार करते रहे। लेकिन दुर्भाग्य कि विद्रोही सेना चतरा में हार गई औऱ कुंअर सिंह की मुराद अधूरी ही रह गयी। इसके बावजूद विद्रोही सेना के लगभग 150 सैनिक कुंअर सिंह से आ मिले। कुंअर सिंह के छोटे भाई अमर सिंह इस इलाके में पहले से ही डटे हुए थे और गोरों को परेशान कर रहे थे। कुंअर सिंह ने तय किया कि अमर सिंह यहां जंगल से अपनी गुरिल्ला कार्रवाई से गोरों और उनके संचार तंत्र को बाधा पहुंचाते रहें और वह स्वयं नाना साहेब और तांत्या टोपे से संपर्क करने के लिए आगे बढ़ गए।

सासाराम की कमान अपने छोटे भाई अमर सिंह के हाथों में देकर कुंअऱ सिंह ने सोन नदी को पार किया और मिर्जापुर के करीब विजयगढ़ में पड़ाव डाला। स्थानीय लोगों का वहां उन्हें जमकर समर्थन मिला। इसके बाद वे सिंगरोली पहुंचे औऱ सहायता के लिए रीवां महाराज को गुहार लगाई, लेकिन समर्थन देने के बदले रीवां महाराज ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने से मना कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर कुंअर सिंह ने रीवां का रुख किया। रीवां का कायर राजा राजधानी छोड़कर भाग चला, लेकिन रीवां के सिपाहियों ने कुंअऱ सिंह का साथ दिया। रीवां का रेजिडेंट कमांडर कर्नल हिंडे कुंअर सिंह का प्रतिरोध करने के लिए मैदान में आया तो जरूर लेकिन बागी फौजों के सामने वह ज्यादा देर तक टीक नहीं सका और अपनी जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर भागा। रीवां के रेजिडेंट विल्लोवी ओसबर्न को विद्रोही सिपाहियों ने पकड़ लिय़ा, लेकिन कुंअऱ सिंह ने उसकी जान नहीं ली औऱ उसे निरापद जाने दिया। ओसबर्न ने लिखा है कि कुंअर सिंह के सिपाहियों ने उसे तथा उसके अन्य अफसरों को पकड़ लिया और उन्हें निहत्था कर एक जगह पर बंदी बना लिया। वह आगे लिखता है – ‘ हम सभी को यही लग रहा था कि हमारी जान नहीं बचेगी। विद्रोही सैनिक कुंअर सिंह के आने का इंतजार कर रहे थे। मैंने देखा कि कुंअर सिंह एक सफेद घोड़े पर अपने विश्वस्त सिपाहियों के साथ वहां पहुंचा। हमें लगा कि अब वे हमें मार देंगे लेकिन कुंअर सिंह ने ऐसा नहीं किया। वह हमारे पास आया और बड़ी हिकारत से हमारे मुंह पर थूक दिया और अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि ये लोग जहां जाना चाहते हैं, जाने दो’। वह सचमुच वीरता की प्रतिमूर्ति है। दानापुर में भी विद्रोह का तरीका अलग रहा। दानापुर में किसी बेगुनाह सैनिक या सरकारी कारिंदे की हत्या नहीं की गई। हो सकता है कि बड़ी छावनी होने के कारण ऐसा नहीं हुआ हो लेकिन मेरठ में ऐसा नहीं हुआ था, जबकि वह भी एक बड़ी छावनी थी। वहां पर देसी सिपाहियों ने अनेक अंग्रेज अफसरों और सैनिकों को मार डाला था। ऐसे में इसका एकमात्र कारण यही नजर आता है कि शायद कुंअर सिंह ने अनर्गल हिंसा में लिप्त नहीं होने के लिए सिपाहियों को निर्देश दिया था। इसके बात के यह बात कही जा सकती है कि कुंअर सिंह ने अपने पूरे सैनिक अभियान के दौरान अनर्गल हिंसा से परहेज रखा। यह बात सन सनतावन के और किसी भी लीडर के बारे में नहीं कही जा सकती, क्योंकि कुंअर सिंह को छोड़कर सभी ने कभी न कभी अनर्गल हिंसा की या उसे बढ़ावा दिया। एक सच्चे क्रांतिकारी की यही विशेषता होती है कि वह बेमतलब की हिंसा से परहेज करता है। ऐसे में कहा जा सकता है कि कुंअर सिंह एक सच्चे क्रातिकारी थे। उनकी नजर में मानवीय मूल्य हार-जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण रहे। जब कुंअर सिंह की अगुआई में विद्रोहियों ने आरा शहर पर कब्जा किया तो अनेक अंग्रेज़ और यूरेशियन उनके कब्जे में थे लेकिन जब आयर ने आरा शहर को विद्रोहियों से वापस छीना तो सभी सुरक्षित पाए गए, किसी को चोट नहीं पहुंची थी। इतिहासकार हॉल्स लिखता है कि आरा हाउस में अंग्रेजों को बंद किए जाने के दौरान अनेक यूरेशियन ईसाई परिवार कुंअर सिंह के अधीन थे, जिन्हें कुंअर सिंह के आरा से जाने के बाद पूरी तरह सुरक्षित पाया गया। सच तो यह है कि हमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला कि अन्य विद्रोहियों की तरह कुंअर सिंह ने बेगुनाह अंग्रेजों पर कभी कोई अत्याचार किया। यह बात कहने वाला व्यक्ति वह है, जो आरा हाउस में 27 जुलाई, 1857 से 3 अगस्त 1857 तक आरा हाउस में बंदी था। इसी तरह आरा के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट वेक का का कहना है कि आरा जिले में विद्रोह की एक खास विशेषता यह रही कि किसी भी यूरेशियन की अकारण हत्या नहीं की गई। इसी तरह बीबीगंज के युद्ध में भाग लेने वाला एक अंग्रेज़ केली लिखता है कि कुंअर सिंह को स्थानीय लोग बाबू साहेब कह कर संबोधित करते हैं, जिसके वह वास्तविक अधिकारी हैं। उनकी प्रंशंसा चाहे यहां हो या किसी अन्य जगह, उसके वह पूरे हकदार है। सभी विद्रोहियों में वह सबसे सभ्य सिपाही और देशभक्त हैं।

रीवां का शासन अली और राय के जिम्मे सौंपकर कुंअऱ सिंह स्वयं बांदा की तरफ बढ़े। बांदा के नवाब ने उनका बखूबी साथ दिया। लेकिन बगल के में अजयगढ़ के राजा के साथ बांदा के नवाब की नहीं बनती थी। कुंअर सिंह ने दोनों में समझौता कराने की काफी कोशिश की लेकिन अजयगढ़ के राजा की जिद के चलते समझौता नहीं हो सका। इसके बाद कुंअर सिंह ने बांदा के नवाब के साथ मिलकर अजयगढ़ पर चढ़ाई कर दी। गढ़ को ढहा दिया गया और राजा को गिरफ्तार कर लिया गया। जब कुंअर सिंह ने वहां से कालपी के लिए कूच किया तो नवाब ने उनके साथ अपने 1200 सिपाहियों को भी भेजा। कुंअर सिंह जल्द से जल्द कालपी पहुंचना चाहते थे, क्योंकि पत्राचार द्वारा तय किया गया था कि नाना साहेब, तांत्या टोपे औऱ लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर आगे की योजना वहीं बनाई जाएगी लेकिन उन तीनों को अंग्रेजी सेना ने रास्ते में ही घेर लिय़ा। इस तरह यह बैठक नहीं हो सकी। जब कुंअऱ सिंह देखा कि वे लोग नियत समय पर वहां नहीं पहुंचे तो उनका मन किसी बुरी आशंका से भर गया। कुंअर सिंह जैसे सेनापति के लिए यह समझना कठिन नहीं था कि कुछ गड़बड़ है। बस क्या था, उन्होंने तुरंत सेना को आदेश दिया कि यहां से जल्दी कूच किया जाए। उन्हें अंदेशा हो गया था कि अंग्रेजों को उनकी बैठक के बारे में पता चल चुका है। यह बात जल्दी ही सामने भी आ गई, क्योंकि कुंअर सिंह वहां से अपनी सेना लेकर निकलने ही वाले थे कि अंग्रेजों की तोपें आग बरसाने लगीं। कुंअऱ सिंह की सेना भी अंग्रेजो से जूझ पड़ी। इसी लड़ाई में कुंअऱ सिंह का पोता दलभंजन सिंह मारा गया था। एक बार तो लगा कि कुंअर सिंह पराजित हो ही जाएंगे, क्योंकि अंग्रेजी फौज ने कुंअर सिंह की फौज को लगभग चारों तरफ से घेर लिया था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कुंअर सिंह की पराजय और अंग्रेजों की जीत के बीच कुंअर सिंह की प्रेमिका वीरांगना धर्मन बाई आ खड़ी हुई। इतिहास की किताबों में धर्मन बाई के बारे में बस इतना ही लिखा है कि वह कुअंर सिंह की रखैल थी, लेकिन वास्तव में वह कुंअर सिंह की धरम-संगिनी और उनके सैनिकों के लिए प्रेरणास्रोत थी। मालूम हो कि आरा से कुंअर सिंह की फौज को धर्मन बाई ने ही रवाना करने की रस्म निभाई थी। कुंअर सिंह की फ़ौज बस अब हारने ही वाली थी कि धर्मन बाई ने बायीं तरफ से बढ़कर तोपची बन मोर्चा संभाल लिया और दाहिने बाजू से सरदारों को घेरा कसने के लिए ललकारा। इसके बाद उसने तोप से ऐसी रार मचाई कि अंग्रेजों के लेने के देने पड़ गए और उनकी फौज भाग चली। युद्ध तो जीत लिया गया लेकिन धर्मन बाई इतनी घायल हो चुकी थीं कि उन्हें बचाया नहीं जा सका। धर्मन बाई की उस शहादत को भोजपुर के लोगों ने आज भी संजो रखा है। आरा और जगदीशपुर में धर्मन बाई द्वारा स्थापित मस्जिदें आज भी धर्मन बाई की याद दिलाती हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि कुंअर सिंह को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए धर्मन बाई ने ही प्रेरित किया था। कालपी उनके ऐतिहासिक अभियान के प्रथम चरण का अंत था। अब तक कुंअर सिंह 400 मील की यात्रा कर चुके थे। दिल्ली मार्च का अभियान कुंअर सिंह के मन से अब जाता रहा क्योंकि दिल्ली का पतन हो चुका था और दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र अंग्रेज़ों के कब्जे में था।

इसके बाद कुंअऱ सिंह ने अपनी सेना को कूच करने का आदेश दिया औऱ वे कानपुर की ओर बढ़ चले। इसी बीच रास्ते में ग्वालियर की चालीसवीं पैदल सेना के बागी सिपाही कुंअऱ सिंह से आ मिले। कानपुर के पास चहारनिशां में गुलाब सिंह का भतीजा बंदी था। कुंअऱ सिंह ने उसे आजाद कराया औऱ ग्वालियर कॉन्टिनजेंट को लेकर कानपुर पहुंचे। नाना साहेब औ उनके भाई जहां शिवराजपुर और शिवली होते हुए उत्तर की और से चढ़ाई कर रहे थे, वहीं कुंअर सिंह ने अकबरपुर, रनिया और रायपुर होते हुए दक्षिण से चढ़ाई की अगुआई की। कानपुर का एक वकील, जो अंग्रेजों का खैरख्वाह था, ने अपनी डायरी में लिखा है कि कानपुर की लड़ाई में कुंअर सिंह ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया। यह लड़ाई 26 नवंबर, 1857 से 6 दिसंबर, 1858 तक चली, जिसमें अंग्रेजों को काफी हानि उठानी पड़ी और विद्रोहियों ने कानपुर शहर को आजाद कराकर उसकी शासन व्यवस्था अपने हाथों में ले ली। नानकचंद के अनुसार कुंअर सिंह दानापुर के बागी सिपाहियों के साथ कानपुर पर दक्षिण से हमला किया। इस हमले में ब्रिगेडियर विल्सन बुरी तरह घायल हो गया और उसकी फौज अपनी पनाहगाह में छिप गई। इस युद्ध में कुंअर सिंह ने इस युद्ध में डिविजनल कमांडर के रूप में शामिल हुए। लेकिन विद्रोहियों की जीत की यह खुशी ज्यादा देर तक कायम नहीं रह सकी क्योंकि अचनाक कॉलिन कैंपबेल एक बड़ी फौज लेकर लखनऊ से कानपुर पहुंच गया। इसके बाद अंग्रेजों ने प्रति-आक्रमण किया। देखते ही देखते पांसा पलट गया और जो अंग्रेज निर्णायक पराजय की आशंका से ग्रसित थे, अब पलट कर वार करने लगे। जेनरलगंज में विद्रोही सेना और अंग्रेजों के बीच भयानक लड़ाई हुई। देसी सिपाहियों ने वीरता तो दिखाई लेकिन अंत में वे पराजित हुए।

कुंअर सिंह की समझ में एक बात आ गयी कि अंग्रेजों से आमने-सामने की लड़ाई नहीं जीती जा सकती क्योंकि उनके पास बेहतर और दूर तक मार करने वाले हथियार हैं। यही कारण है कि कानपुर में हारने के बाद जब तांत्या टोपे ने उन्हें कालपी आमंत्रित किया तो वह वहां नहीं गए, बल्कि इसके बदले वह लखनऊ रवाना हो गए, जो अवध में विद्रोह का केंद्र था और अंग्रेज अब भी अपने घेरे में कैद थे। लखनऊ रवाना होने के पहले उन्होंने अपने सैनिकों को पानी और तलवार के रुपक के जरिए अपने रणनीतिक दर्शन अवगत कराया। उन्होंने बताया कि अब हमें इसी रणनीति के तहत लड़ाई लड़नी होगी। जैसे तलवार से वार करने पर पानी बिना किसी प्रतिरोध के कट जाता है लेकिन उसी प्रक्रिया में तलवार चारों तरफ से घेर भी लेता है, वैसे ही हमें लड़ना होगा।

कुंअर सिंह 1857 के दिसंबर में लखनऊ पहुंचे। अवध के दरबार में उनका दिल खोलकर स्वागत किया गया। बारह हजार रुपये और खिल्लत देने के साथ-साथ नवाब ने कुअंर सिंह को आजमगढ़ पर शासन कायम करने का फरमान भी दिया। कुंअऱ सिंह साधन जुटाने और अपनी योजना को ठोंक बजाकर तैयार करने की गरज से कुछ दिन लखनऊ में रहे। लखनऊ में रहकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा लेने के बदले कुंअर सिंह ने आजमगढ़ जाने का निश्चय किया। इस निर्णय का करण यह था कि इससे लखनऊ में अंग्रेजों की शक्ति में कमी आएगी। इसके अलावा उन्हें यह भी विश्वास था कि आजमगढ़ में उन्हें स्थानीय लोगों की सहायता मिल सकती है, क्योंकि बंगाल रेजिमेंट के अधिकांश सिपाही भोजपुरी क्षेत्रों के ही थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि आजमगढ़ जगदीशपुर से नजदीक पड़ता था। इसमें कोई शक नहीं कि यह क्षेत्र उनकी लड़ाई के लिए महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करने वाला था, लेकिन तभी जब लखनऊ की लड़ाई को विद्रोही कुछ दिन और खींचते। कुंअर सिंह 21 मार्च को आजमगढ़ से 20 मील दूर अतरौलिया नामक जगह पर पहुंचे लेकिन दुर्भाग्य कि उसी दिन कैंपबेल के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने लखनऊ में विद्रोहियों की निर्णायक ढंग से पराजित कर दिया। जब कुंअर सिंह अतरौलिया पहुंचे, उस समय आजमगढ़ गैरीसन के कमांडेंट मिलमैन कोयलसा में था। जब उसे कुंअर सिंह के आने की बात का पता चला तो वह उनसे भीड़ने के लिए चल दिया। 22 मार्च की सुबह लड़ाई प्रारंभ हो गई। थोड़ी देर लड़ने के बाद कुंअर सिंह दुश्मनों को यह आभास देते हुए पीछे हट गए कि वे लड़ाई हार गए। इधर कुंअर सिंह की फौज को खदेड़ कर मिलमैन ने सोचा कि थोड़ा आराम कर लिया जाए और उसने सिपाहियों को हुक्म दिया कि वे नाश्ता कर लें। अंग्रेजी सेना अपने हथियार रख कर नाश्ता करने की तैयारी करने लगे। कुंअर सिंह को उनके एक भेदिए ने जानकारी दी कि अंग्रेजी फौज नाश्ता करने जा रही है। बस क्या था, कुंअर सिंह ने तुरंत अग्रेजी फौज पर धावा बोल दिया। अंग्रेजी फौज का काफी हानि उठानी पड़ी और मिलमैन जब भागकर कोयलसा पहुंचा तो देखा कि सभी लोग वहां से भाग चुके हैं। इसके बाद वह आजमगढ़ रवाना हो गया। कुंअर सिंह ने आजमगढ़ को अपने कब्जे में ले लिया औऱ भोजपुर लौटने की तैयारी में जुट गए। अंग्रेजों से लड़ते-भिड़ते औऱ उन्हें छकाते कुंअऱ सिंह शिवपुर पहुंचे और वहीं गंगा पार करने का निश्चय किया। सरदारों और सिपाहियों की बारबार विनती के बावजूद कुंअऱ सिह ने पहले पार करने से मना कर दिया। पहले उन्होंने अपनी फौज को गंगा पार करने का आदेश दिया औऱ स्वयं सबसे बाद में पार करने का निर्णय लिया। नाव की अंतिम खेप को रवाना करने के बाद कुंअर सिंह स्वयं एक हाथी पर सवार होकर गंगा पार करने लगे। तभी शिवपुर घाट के पश्चिम से डगलस और लुगार्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी फौजें वहां पहुंच गयीं। कर्नल चैंबरलेन भी मद्रासी घुड़सवार सेना लेकर वहां पहुंचा। लेकिन अब किया ही क्या जा सकता था। बाबू साहेब की फौज तो पहले ही गंगा पार कर चुकी थी और स्वयं भी वे आधी गंगा पार कर चुके थे। अंग्रेजी फौज गंगा पर कर रहे सिपाहियों पर गोली बरसाने लगे। सिपाही भी जवाबी गोलीबारी करने लगे। इसी गोलीबारी में एक गोली कुंअऱ सिंह की बायीं बांह में लगी औऱ खून का फव्वारा फूट पड़ा।

बूढ़े बाज़ ने उस बांह को अपनी तलवार से एक ही वार में अपने तन से अलग कर दिया औऱ मां गंगे को यह कहते हुए समर्पित कर दिया कि यह बांह अंग्रेजों की गोली लग जाने से अपवित्र हो गई है। हे मां, इसे तू ही अपनी पावन धारा से पवित्र कर।

भोजपुरी प्रदेशों में गाए जाने वाले एक सोहर में इस घटना का बयान कुछ इस तरह किया गया है—
लाख-लाख गोरवन के मारेलन, त मारी के खदेरेलन हो,
ललना तनी एसा अंखिया बिछुली गइले , बंहियां में गोली खइले हो।
गोलिया जे लागे जइसे फूल बरसे, हंसेलन कुंअऱ सिंह हो,
ललना सेहू बंहियां काटी तरुवरिया त गंगा में अरपी दिहले हो।

शाहाबाद के लोग तो कुंअऱ सिंह की प्रतीक्षा कर ही रहे थे। शाहाबाद की जनता औऱ कुंअऱ सिंह के परस्पर संबंध का पता उस तत्कालीन आरा के इंजीनियर ब्वायल के पत्र से प्रकट होता है। उसने सरकार को लिखा था कि कुंअऱ सिंह की इच्छा शाहाबाद वापस आने की है। उसने अपनी यह इच्छा बड़े पैमाने पर जाहिर कर दी है। लोग उसके आने की राह देख रहे हैं औऱ बड़ी संख्या में उसका औऱ उसकी सेना का साथ देने को तैयार हैं। 22 अप्रैल, 1858 को कुंअर सिंह एक हजार सैनिकों के साथ जगदीशपुर लौटे। 23 अप्रैल को ली ग्रैंड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने कुंअर सिंह की सेना पर जंगल में आक्रमण किया। मेलीसन ने कुंअऱ सिंह की सेना के लिए लिखा है कि उसमें एक हजार पस्त आदमी थे, जिनके पास तोपें नहीं थीं औऱ यहां तक कि किसी के पास ठीक तरह से हथियार भी नहीं थे। अंग्रेजों ने तोपों से गोलाबारी की औऱ पैदल सैनिकों को हल्ला बोलकर आक्रमण करने का हुक्म दिया, लेकिन अंग्रेजों को लेने के देने पड़ गए।

गुरिल्ला युद्धशैली में पारंगत कुंअर सिंह की फ़ौज ने ऐसी मार मचाई कि अंग्रेज़ उल्टे पांव भागे और तोपें छोड़कर उन्होंने आरा में आकर ही दम लिय़ा। कैप्टन ली ग्रैंड सहित उसके दो अफसर औऱ दो-तिहाई सेना खेत रही। हैरतअंगेज बात यह है कि अंग्रेजों को यह क्षति अप्रैल, 1858 में तब सहनी पड़ी, जब वे दिल्ली और लखनऊ पर अधिकार कर चुके थे। उन्हें यह मात उन सैनिकों ने दी थी, जो एक लंबी यात्रा करके थके हुए थे और जिनका वृद्ध नेता घायल था। शाहाबाद के संघर्ष में जनता, सिपाहियों और उनके नेताओं ने भारत के अन्य स्थानों से सैनिक कार्रवाई को उच्चतम स्तर तक उठाया। उन्होंने अंग्रेजों की छावनियों औऱ शहरों में बंद रहने पर मजबूर किया।

अपनी पुस्तक वार ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस में सावरकर लिखते हैं — 1857 में क्रातिकारियों के जितने नेता थे, उनमें कोई ऐसा नहीं था, जो सैनिक योग्यता में कुंअर सिंह से बढ़कर हो। स्वाधीनता संग्राम में छापामार लड़ाई की उपयोगिता क्या है, इस बात को तुरन्त भली प्रकार उन्होंने ही समझा था और वही अकेले ऐसा नेता थे, जो शिवाजी जैसे सिद्ध छापामार योद्धा की कुशल नीति का अनुसरण कर सके। वह आगे लिखते हैं – कुंअऱ सिंह महाराष्ट्र के महान सेनानी शिवाजी के समान अपनी सेना को कभी पस्त नहीं होने देते थे। उन्होंने स्वयं तथा अपने सैनिकों पूर्ण विश्वास को जन्म दिया औऱ इसी के चलते उनके सिपाही हमेशा उनके प्रति वफादार बने रहे। अपनी व्यक्तिगत वीरता, अनुशासन औऱ साहस द्वारा वे हमेशा अपने सैनिकों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहे। उन्होंने लड़ने औऱ लड़ाई से बचने दोनों छापामार लड़ाई के सकारात्मक औऱ नकारात्मक दोनों पक्षों में अनुपम कौशल का परिचय दिया, औऱ यही कारण है कि शत्रु को धूल चटाकर, अपनी गौरवपूर्ण विजय के बीच, स्वतंत्रता की पताका के नीचे अपने स्वाधीन सिंहासन पर बैठने के बाद इस वृद्ध वीर, महान भारतवासी को 26 अप्रैल, 1858 को गौरवपूर्ण मृत्यु प्राप्त हुई। कुंअर सिंह की रचनात्मक प्रतिभा, देशभक्ति औऱ सूझबूझ औऱ साहस का ही परिणाम था कि उन्होंने किसान जनता के आधार पर गांवों में स्वाधीन राजसत्ता संगठित की। 30 जुलाई, 1858 को पटना के कमीश्नर टेलर ने लिखा था — जगदीशपुर के पास विद्रोहियों का मुख्य दल अंग्रेजों की तरह कमीश्नर, जज, और मजिस्ट्रेट नियुक्त कर रहा है। वे नियमित रूप से अंग्रेजों के मित्रों की रियासतें बेंच देते हैं। अंग्रेजों ने यहां के किसानों औऱ सामंतों के विरूद्ध जो नीति अपनाई थी, उसी का अनुकरण करके विद्रोही सैनिकों ने अंग्रेजों के मित्रों को दंड दिया। कहने का अर्थ है कि कुंअऱ सिंह औऱ जनता के बीच परस्पर विश्वास औऱ भरोसे का अटूट बंधन कायम था औऱ आज भी कायम है।

उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी जमींदारी जब्त करके उसे निलाम कर दिया औऱ खरीददार बना अर्नेस्ट मेलॉन नाम का एक अंग्रेज। लगभग 50 वर्षों बाद श्रीनिवास प्रसाद सिंह, जो जगदीशपुर जमींदारी के असली वारिश थे, ने फिर से अपनी जमींदारी खरीद ली। कुंअर सिंह के सैन्य-नेतृत्व की बड़ाई मार्क्स औऱ एंजिल जैसे विचारकों ने भी की है। 15 जून,1858 को दी न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून के लिए लिखे लेख में मार्क्स ने कुंअर सिंह को गुरिल्ला युद्ध का असली उस्ताद बताया है। एंजिल्स ने लिखा –कुंअर सिंह और अमर सिंह गुरिल्ला युद्धसैली के महारथी हैं। अमर सिंह के बारे में एंजिल्स कहता है —गुरिल्ला युद्धशैली में अमर सिंह का कोई सानी नहीं है। चुपचाप इंतजार करने के बदले उसे जहां मौका मिलता है, वह अंग्रेजों पर आक्रमण करता है।

शास्त्र औऱ लोक दोनों ही कुंअर सिंह की वीरता औऱ सैन्य कुशलता की प्रशंसा मुक्तकंठ से करते हैं। पूरा भोजपुरी लोक-साहित्य कुंअर सिंह की वीरता के गीत गाता है। बाबू कुंअर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़ेला अबीर, या बाबू कुंअर सिंह तोहरे राज बिनु हम ना रंगइबो केसरिया, या लिखी-लिखी पतिया पेठवले कुंअर सिंह सुन हो अमर सिंह भाई, जैसे होली गीत बिहार के हर गांव में आज भी गाए जाते हैं। भोजपुरी में कुंअऱ सिंह को लेकर अनेक रचनाएं लिखी गई हैं औऱ गीतों का तो कहना ही क्या। ऐसे सैकड़ों गीत हैं, जिनमें कुंअऱ सिंह की बहादुरी औऱ कीर्ति का बखान है। रामकवि ने कुंअर सिंह की लड़ाई पर क्या ही सुंदर रचना रची है—
जैसे मृगराज गजराजन के झुंडन प
प्रबल प्रचंड सुंड खंडत उदंड हैं
जैसे बाजि लपकी लपेट के लवान दल
मली-मली डारत प्रचारत विहंड है।
कहे रामकवि जैसे गरुड गरब गही
अहिकुल दंड-दंड मेटत घमंड है
तैसे ही कुंअर सिंह कीरति अमर मंडी
फौज फिरंगानी की करी-करी खंड है।

भोजपुरी प्रदेश का कोना-कोना उनकी बहादुरी पर इतराता है, अगराता है। सचमुच जब ढलानी में उनका यह ताव था तो उठानी में क्या रंग रहा होगा। इस संदर्भ में भोजपुरी इलाकों में एक कहावत कही जाती है कि जब अंग्रेजों से युद्ध ठना तो कुंअर सिंह हमेशा यही कहा करते थे कि — जो रे ससुरी गदर अइलिस त, बाकी बुढ़ारी में नू। तनिक जवानी में आइल रहितिस। जिसका मतलब हुआ ‘ससुरी गदर तो आयी, लेकिन बुढ़ापे में न आयी….. तनिक जवानी में आयी होती’

नोट :- यह लेख पहले महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन में छप चुकी है।