बहादुर शाह ज़फ़र : हिन्दुस्तान का वह आख़री मुग़ल बादशाह जिसे ‘दो गज़ ज़मीं भी न मिल सकीं कुए यार में’

 

Ali Zakir

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिल-ए-दाग़दार में

आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को उर्दू के एक बड़े शायर के रुप में जाना जाता है. उन्होंने देशप्रेम से ओतप्रोत दर्जनों शायरी लिखी. उन्हें एक कमजोर शासक कहा गया, क्योंकि वह मिजाज से कभी मुगल शासक नहीं लगे. उनपर शायरी का जूनून जो सवार रहता था. उन्होंने गालिब जैसे शायरों को हमेशा तवज्जो दी. पर क्या आप जानते हैं कि जरुरत पड़ने पर कलम से क्रांति लिखने वाले इस शायर ने अंग्रेजों के साथ दो-दो हाथ भी किए थे. उनके अंदर देश के लिए कितनी मोहब्बत थी, उनके इस शेर से समझा जा सकता है-

गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक इमान की
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की

1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का समय था. अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के सुर पूरे उत्तर भारत में तेजी पर थे. धीरे-धीरे यह ‘सिपाही विद्रोह’ के रुप में बढ़ गया. भारतीय सिपाही, जो अंग्रेजों की सेना में काम करते थे, उन्होंने खुलकर विरोध का बिगुल फूंक दिया. छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों के साथ शुरु हुए इस आंंदोलन के चलते कई जगह आगजनी की गई. देखते ही देखते सारे देश में देशप्रेम की लहर उठ चली. अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लोगों की बगावत को देख बहादुर शाह जफर का भी गुस्सा फूटा, तो सभी विद्रोही सैनिकों ने उन्हें अपना नायक चुन लिया और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजा दी. अंग्रेजों को समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है. नतीजतन भारतीयों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों को कड़ी शिकस्त दे दी थी.

यह हार अंग्रेजों के गले से नीचे नहीं उतर रही थी. वह सामने से भारतीय योद्धाओं का सामना करने में असफल हो रहे थे. इसलिए अंग्रेजों ने अपनी आदत के अनुसार धोखे से इस पहले स्वाधीनता संग्राम का रुख बदलना चाहा. इसमें वह कामयाब भी रहे. अंग्रेजोंं ने अपने दमन की नीति से बगावती सुरों को दबा दिया. उन्होंने विद्रोह करने वालों को का नरसंहार किया और बागी सैनिको को भी गोली मार दी.

बहादुर शाह जफर को सैनिकों ने मौके से फरार करा दिया गया. वह अंग्रेजों के हाथ से बच निकले थे. पर, अंग्रेज उन्हें कहा छोड़ने वाले थे. वह कुत्ते की तरह उन्हें ढूंढ रहे थे. एक लम्बे समय तक वह हुमायूं के मकबरे में छिपे रहे, पर अंतत: अंग्रेजी अफसर मेजर हडस ने उन्हें पकड़ लिया. पिता के पकड़े जाने के बाद जब उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर को लगा कि वह अब नहीं बचेंगे, तो वह वहां से भाग निकले. अंग्रेज सिपाहियों ने उनका पीछा किया. वह बार-बार उन्हें सरेंडर करने के लिए कह रहे थे, लेकिन जब वह नहीं रुके तो उन्होंने अंधाधुंध उन पर गोलियां बरसा दी. इस गोलीबारी में बहादुर शाह जफर के दोनों पुत्र और प्रपौत्र मारे गये. यह खबर जब बहादुर शाह जफर को मिली तो वह टूट गए.

अंग्रेजों ने ऐसी स्थिति में उनके जख्मों पर नमक छिड़कने में कोई कमी नहीं रखी. उन्हें जेल में भूखा रखा गया और जब वह बीमार होने लगे तो अंग्रेज उनके सामने थाली में उनके बेटों का सिर परोसकर ले आए थे. अंग्रेजोंं की इस करतूत पर बहादुर शाह जफर ने नम आंखों और क्रोध भरे स्वर में जवाब देते हुए कहा, हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं. अंग्रेज उनका जवाब सुनकर हैरान था. वह शर्मिंदा होकर वहां से सिर झुकाकर चला गया.

बहादुर शाह जफर को रंगून भेज दिया गया. रंगून में उनके साथ यातनाओंं का दौर जारी रहा. वह एकदम कमजोर हो गये. उनमें जान कहने भर को बची हुई थी. फिर भी अंग्रेजों को उनपर दया नहीं आई. अंतत: 1862 में उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांसे ली. बहादुर शाह जफर की अंतिम इच्छा यह थी कि वह अपने जीवन का अंतिम समय अपने देश यानी भारत में बितायें, लेकिन ऐसा नहीं हो हुआ. आखिरी समय की बात तो छोड़िये उन्हें मरने के बाद भी भारत नहीं लाया गया था. आखिरी समय वह अपने देश को याद करते है-

कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

बहादुर शाह जफर ने अपनी सीमित शक्तियों के बावजूद खुद को देश के लिए समर्पित किया. जिस तरह से उन्होंंने विद्रोही सिपाहियोंं के कदम से कदम मिलाकर चलने का साहस किया. वह उन्हें इतिहास के पन्नों में एक अच्छे पायदान पर रखता है. देश कल्याण के लिए की गई उनकी कोशिश प्रमाणित करती है कि वह इस देश से सचमुच प्यार करते थे.

जलाया यार ने ऐसा कि हम वतन से चले,
बतौर शमा के रोते इस अंजुमन से चले
न बाग़बां ने इजाज़त दी सैर करने की,
खुशी से आए थे रोते हुए चमन से चले