सुनील सिंह
‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’
“मैं तुम्हें अपने शब्द दिये जा रहा हूं, उसे फेंक मत देना, अपने घर या आंगन में उसे संजोकर रखना। मेरा कहा कभी नहीं मरेगा। उलगुलान! उलगुलान! और ये शब्द मिटाए न जा सकेंगे। ये बढ़ते जाएंगे। बरसात में बढ़ने वाले घास की तरह बढ़ेंगे। तुम सब कभी हिम्मत मत हारना। उलगुलान जारी है।”
ये पंक्तियां जेल जाते समय बिरसा ने लोगों से आह्वान किया, जो आज भी मुंडारी लोकगीतों में गाया जाता है।
#BirsaMunda (15 November 1875 – 9 June 1900) was an Indian tribal and religious leader.
He was a visionary who played a crucial role in liberation of his community, the tribal people, who were exposed to persistent dominance by the British exploitative policies and atrocities. pic.twitter.com/PLJec1wkBA
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) November 15, 2018
आदिवासियों में भयानक गरीबी और असंतोष व्याप्त हैं।उन्हें गांवों-जंगलों से खदेड़ा जा रहा है। दिकू आज भी हैं।जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और आज भी नहीं हैं। आदिवासियों की समस्याएं खत्म नहीं हुईं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं। सब कुछ जस का तस है। यही कारण है कि जल, जंगल और जमीन के हक लिए हर तरफ आदिवासी गोलबंद हो रहे हैं और बिरसा के ‘उलगुलान’ की मशाल को जला रखे हैं।
भारत में अंग्रेजी शासन था। आदिवासियों को अपने इलाकों में किसी भी प्रकार का दखल मंजूर नहीं था। अंग्रेज़ भी शुरू में वहां जा नहीं पाए थे, लेकिन तमाम षड्यंत्रों के तहत वे घुसपैठ करने में कामयाब हो गये।
‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित कर अंग्रेजों ने
आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेजों एवं तथाकथित जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण शुरू हो गया।
इसी बीच बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर सन् 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले के अंतर्गत चालकाड़ के निकट उलिहातु गाँव में हुआ। उनके माता करमी हातू और पिता सुगना मुंडा था। बिरसा आदिवासियों की दरिद्रता की वजह जानने और उसका निराकरण करने की उपाय सोच लगे. आदिवासियों की अशिक्षा का लाभ लेकर गाँव के जमींदार, महाजन अनैतिक सूद-ब्याज में उलझाकर उनकी जमीन लेते रहते थे। आदिवासियों का कर्ज प्रतिदिन बढ़ता ही रहता।महाजन चाहते थे कि आदिवासियों का कर्ज बढ़े और खेत का पट्टा लिखवा लें। फिर आदिवासी खेत में काम करें, पालकी उठायें, उनके नासमझ बच्चे खेत पर मुफ्त में पहरा भी देंगे, हुआ भी यही। आदिवासी अपनी ही जमीन पर गुलाम बन गये. अंग्रेज अधिकारी, उनके देसी कारिन्दे-सामंत, जागीरदार और ठेकेदार, ये सब आदिवासियों के लिए दिकू (शोषक/बाहरी) थे। आदिवासियों की हालत बद् से बद्तर होती गई। बिरसा ने भाइयों को गुलामी से आजादी दिलाने के लिए बिरसा ने ‘उलगुलान’ की अलख जगाई।
1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। नारा था- ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’।
छोटानागपुर के सभी आदिवासी, जंगल पर दावेदारी के लिए गोलबंद होकर अंग्रेजी सरकार के खिलाफ जंग छेड़ दिया। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा के उलगुलान को दबाने की हर कोशिश की, लेकिन आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के आगे उन्हें असफलता ही मिली। 1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं।
जनवरी 1900 में उलिहातू के नजदीक डोमबाड़ी पहाड़ी पर अंग्रेज सिपाहियों ने बिरसा को चारो तरफ से घेर लिया। अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच संघर्ष हुआ।अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। 9 जून 1900 को बिरसा ने रांची के कारागार में आखिरी सांस ली। 25 साल के उम्र में ही बिरसा मुंडा ने जिस क्रांति का आगाज किया वह आदि वासियों के लिए हमेशा प्रेरणादायी रहा।
आज भी देश के तमाम हिस्से में आदिवासी जंगल पर दावेदारी की लड़ाई लड़ रहे हैं। अपने प्रति निरंतर अपमान, उपेक्षा, शोषण आदि के खिलाफ आदिवासियों का विद्रोही स्वर उठना स्वाभाविक भी है। लेखिका महाश्वेता देवी ‘जंगल के दावेदार’ उपन्यास के उपसंहार में लिखा है – “हम जिस तरह चिरकाल से हैं, संग्राम-बिरसा का संघर्ष भी वैसा है। धरती पर कुछ समाप्त नहीं होता – मुण्डारी देश, धरती, पत्थर, पहाड़, वन, नयी ऋतु के बाद ऋतु – का आगमन – संदर्भ भी समाप्त नहीं होता, इसका अंत हो ही नहीं सकता। पराजय से संघर्ष का अंत नहीं होता। वह बना रह जता है, क्योंकि मानुस रह जता है, हम रह जाते है।”
‘बिरसा मुंडा की याद में’ शीर्षक से लिखी आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा के कविता की ये पंक्तियां दावा कर रही हैं उलगुलान यानी आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष जारी है।
‘‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!’’