दिनकर : अपने समय का सूर्य

 

भुलक्कड़ कालेलकर

दसवीं कक्षा की हिंदी पाठ्य-पुस्तक में काका साहब कालेलकर का कोई निबंध पढ़ना था। इसलिए कायदे से लेखक-परिचय के लिए जगह तो बनती ही थी। काका कितना कुछ पढ़ते थे यह बताने के लिए मेरे हिंदी शिक्षक के पास एक किस्सा होता। वे कहते, एक दिन कालेलकर तांगे पर बैठे पुस्तक पढ़ते हुए कहीं जा रहे थे। रास्तें में अचानक तांगा टूट गया और सारे यात्री इधर-उधर बिखर गये। तांगेवाले ने तांगे की मरम्मत कर चुकने के बाद यात्रियों को बिठाया। गिनती की तो एक आदमी कम पड़ जा रहा था। इधर-उधर बहुत नजर दौड़ाने के बाद कालेलकर एक गड़ढे में किताब पढ़ते दिखे। तांगेवाले ने आवाज दी, ‘साहब, तांगे पर नहीं चलेंगे ?’ ‘तो क्या मैं तांगे पर नहीं हूं?’, कालेलकर ने अत्यंत सहजता से पूछा। बहुत समझाने के बाद काका यह मानने को राजी हुए कि वे तांगे पर नहीं किसी गड्ढे में गिरे समाधिस्थ बैठे हैं। अब वे तनिक मुस्कुराये और तांगे पर आकर बैठ गये। कालेलकर के बारे में सुनाया उनका यह किस्सा मैं भी अपने छात्रों को ‘अविश्वसनीय’ मानकर सुना चुका हूं।

इधर अपने स्कूल की लाइब्रेरी में दिनकर की ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ किताब दिखी। इसमें ‘काका साहब कालेलकर’ एक अध्याय है। दिनकर ने भी कालेलकर से संबंधित एक किस्सा सुनाया है। किस्सा कुछ इस तरह है-‘जब काका साहब की भतीजी का ब्याह हुआ, कन्यादान का कर्म काका साहब ने ही किया था। विवाह के कुछ दिनों बाद काका साहब के नये भतीजदामाद काका साहब से मिलने को वर्धा पहुंचे; किंतु काका साहब ने उन्हें पहचाना ही नहीं, न दामाद साहब ने अपना परिचय देने की उदारता दिखायी। वे काका साहब के घर से लौट गये और उन्होंने काका साहब के बड़े भाई साहब को एक अप्रसन्नता-सूचक पत्र लिखा। यह पत्र काका साहब के भाई ने काका साहब को भेज दिया और साथ में कुछ ऐसी बातें भी लिख भेजीं, जो उलाहने की मुद्रा में लिखी जा सकती थीं। अब काका साहब क्या करते? उन्होंने आदमी भेजकर दामाद को बुलवाया, कई दिनों तक पुत्रवत् स्नेह से उन्हें अपने पास रखा और जाने के समय उनकी अच्छी बिदाई की। जब दामाद जाने लगे, काका साहब ने हंसते-हंसते कहा, ‘‘बेटा, तुम्हें नहीं पहचान सका, उसका दंड मैंने भर दिया। चाहो तो मेरे कान भी मल दो। लेकिन यह वादा नहीं करूंगा कि आगे तुम्हें जरूर पहचान लूंगा।’’ इस कहानी के बाद मेरी समझ में नहीं आ रहा कि अपने शिक्षक को ‘अविश्वसनीय’ मानूं या दिनकर अथवा स्वयं काका को ? इस किताब में इसी तरह के और भी कई दिलचस्प संस्मरण हैं।

लोहिया और समाजवाद

दिनकर ने लिखा है कि ‘समाजवादी नेताओं में से कुछ को अध्यात्म ने खींचा तो कुछ को व्यक्तिवाद ने। (दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1987, पृष्ठ 153) लोहिया का वे विस्तार से वर्णन करते हैं-‘1934 का लोहिया युवक होते हुए भी विनयी और सुशील था किन्तु बुढ़ापे के समीप पहुंचकर वे उग्र हो गये थे। जवाहरलाल नेहरु को लेकर संभवतः एक ग्रंथि विकसित हो गयी थी। उनका विचार बन गया था कि जवाहरलाल जी से बढ़कर इस देश का अहित और किसी ने नहीं किया है तथा जब तक देश में कांग्रेस का राज है, तब तक देश की हालत बिगड़ती ही जायेगी। अतः उन्होंने निर्द्वन्द्व और सीधी राय बना ली थी कि जवाहरलाल जी का जितना भी विरोध किया जाय, वह कम है और कांग्रेस को उखाड़ने के लिए जो भी रास्ते दिखायी पड़ें, उन्हें जरूर आजमाना चाहिए।’ (दिनकर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 154)

आजाद भारत में भी लोहिया को कई बार जेल जाना पड़ा था। एक बार वे जिस जेल में कैद किये गये थे, जवाहरलाल नेहरु की एक प्रतिमा स्थापित थी। जेल से छूटने पर लोहिया के मित्रों ने उनसे पूछा, “कहिए, इस बार का कारावास कैसा रहा?” लोहिया ने कहा, “कुछ मत पूछो। मैं जिस कोठरी में कैद था, उसी के सामने नेहरु की मूर्ति खड़ी थी और हर वक्त मेरी नजर उसी पर पड़ जाती थी। जल्दी रिहाई हो गयी, नहीं तो उस मूर्ति को देखते-देखते मैं पागल हो जाता।” (दिनकर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 154)

सन 1962 ईस्वी के अक्टूबर में, चीनी आक्रमण से पूर्व दिनकर ने एनार्की नामक व्यंग्य-काव्य लिखा था, जिसकी पंक्तियां हैं-“तब कहो, लोहिया महान है,/एक ही तो वीर यहां सीना रहा तान है।” ये दो पंक्तियां लोहिया को बहुत पसंद थीं। कभी-कभी वे दिनकर से पूछते कि ‘ये पंक्तियां कहीं तुमने व्यंग्य में तो नहीं लिखी हैं’ तो कवि का जवाब होता-“वैसे तो पूरी कविता ही व्यंग्य की कविता है, मगर व्यंग्य होने पर भी आपके ‘सीना तानने’ की बड़ाई ही होती है।” एक दिन मजाक-मजाक में लोहिया ने यह भी कहा, “महाकवि, ये छिट-पुट पंक्तियां काफी नहीं हैं। तुम्हें मुझपर कोई वैसी कविता लिखनी चाहिए, जैसी तुमने मेरे दोस्त जयप्रकाशजी पर लिखी थी।” “जिस दिन आप मुझे उस तरह प्रेरित कर देंगे, जिस तरह मैं जयप्रकाशजी से प्रेरित हुआ था, उस दिन कविता आपसे-आप निकल पड़ेगी।” (वही, पृष्ठ 155) जवाब तो दिनकर ने भी हँसते-हँसते दिया था लेकिन बात बड़ी ही गंभीर और चोट करनेवाली थी।

लोहिया जब आखिरी बार अमरीका गये थे, उन्हें लेखकों ने कुछ किताबें भेंट की थीं। उनमें से एक किताब कविता की किताब थी। कवयित्री थीं रूथ स्टीफेन। रूथ स्टीफेन ने अपनी पुस्तक इस टिप्पणी के साथ भेंट की थी : “For Ram, who rips shadows into rags.” रूथ की नजर में लोहिया ऐसा आदमी है जो ‘बाल की खाल उधेड़ता है और काल्पनिक छायाओं के चिथड़े उड़ा देता है।’ सचमुच, कभी-कभी ऐसा लगता है कि जिस शत्रु पर लोहिया बाण चला रहे हैं, वह वास्तविक कम, काल्पनिक अधिक है। (वही)

दिनकर का विश्वास करें तो पंडित किशोरीदास बाजपेयी कहा करते थे : ‘असल में मैं हिन्दी भाषा और साहित्य का डॉक्टर लोहिया हूँ।’ (दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, पृष्ठ 88) ‘डॉक्टर लोहिया राजनीति में धक्कामार भाषा का प्रयोग करते थे। बाजपेयी जी की भी भक्ति धक्कामार भाषा पर है। लोहिया स्थापित व्यक्तित्वों का विरोध करके आगे बढ़े थे। बाजपेयी जी भी साहित्याचार्य शालिग्राम शास्त्री और पंडित पद्मसिंह शर्मा का विरोध करके प्रसिद्ध हुए। डॉक्टर लोहिया के ही समान बाजपेयी जी भी अन्याय को नहीं सह सकते और जहां-जहां कीर्ति की पूंजी जमा है, उस दिशा की ओर जरा वक्र दृष्टि से देखते हैं। (वही, पृष्ठ 88)

निराला की विक्षिप्तता

‘1947 ईस्वी में काशी में निराला जी की स्वर्ण-जयंती मनायी गयी थी। अभिनंदन-पत्र के साथ निराला जी के हाथ में बांस की एक खोली भी दी गयी और सार्वजनिक रूप से कहा गया कि इस खोली के भीतर दस हजार रुपये हैं। सभा ने बड़े ही उत्साह से तालियां बजायीं। कवि आनंद से खिल उठे। उन्होंने सारी राशि नवजादिकलाल के परिवार, रामकृष्ण मिशन, सिस्टर निवेदिता के स्मारक आदि कामों के लिए वितरित कर दी। …किन्तु यह बांस की खोली बिल्कुल खाली थी। कहीं उनकी विक्षिप्तता के पीछे ऐसी घटनाओं का भी तो हाथ नहीं था?’ (रामधारी सिंह दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, पृष्ठ 47)

मैथिलीशरण गुप्त और पुनरुत्थानवाद

दिनकर ने मैथिलीशरण गुप्त पर पुनरुत्थानवाद का असर देखा है। वे लिखते हैं कि जब पटना विश्वविद्यालय की रजत-जयंती के अवसर पर जो कवि सम्मेलन हुआ था, उसमें मैथिलीशरण जी भी पधारे हुए थे। कवि सम्मेलन में थोड़ा शोर होने लगा। यहां तक कि शोर उस समय भी होता रहा, जब सुभद्रा कुमारी चौहान काव्य-पाठ कर रही थीं। इससे मैथिलीशरण जी को गुस्सा आ गया और माइक पर जाकर उन्होंने गरजकर कहा, “आपने एक हजार वर्ष की गुलामी बर्दाश्त की है। क्या दो-एक कविताएं भी आप बर्दाश्त नहीं कर सकते?” (रामधारी सिंह दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, पृष्ठ 33)

उनके अनुसार श्री मैथिलीशरण जी हिंदी और उर्दू को एक करने के पक्ष में नहीं थे। वे हिंदी में, विशेषतः हिंदी काव्य में उर्दू शब्द लाने का विरोध करते थे। मेरी ‘नर्तकी’ नामक कविता का संपादन नवीन जी ने राष्ट्रकवि के साथ बैठकर किया था और हर जगह अगर को काटकर यदि तथा चीज को काटकर वस्तु बना दिया था। मेरा ख्याल है, दिल्ली आने के पूर्व मैथिलीशरण जी भाषा के मामले में इतने कठोर नहीं थे। उनकी ‘इस शरीर की सकल शिराएं हों तेरी तंत्री के तार’ वाली कविता में पहले ‘प्रस्तुत हूं, मैं हूं तैयार’ आता था। दिल्ली आने के बाद जब भी वे यह कविता पढ़ते थे, तब ‘प्रस्तुत हूं मैं सभी प्रकार’ कर देते थे। श्री बालस्वरूप राही को जब मैंने राष्ट्रकवि से मिलाया, वे बोल उठे, ‘अब यही गड़बड़ है। आपने अपना उपनाम राही क्यों चुना, बटोही क्यों नहीं?’ (रामधारी सिंह दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, पृष्ठ 36)

मैथिलीशरण गुप्त केवल वैष्णव ही नहीं, खांटी हिंदुत्व के कवि थे। अपनी हिन्दू भावना को अक्षुण्ण रखते हुए ही उन्होंने अपने राष्ट्रकवि-पद को संभाल रखा था। वैदिक आर्य गोमांस खाते थे, यह विचार उन्हें मान्य नहीं था। खान-पान में उचित से अधिक उदारता उन्हें असह्य थी। जब महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने खान-पान संबंधी अद्भुत विचार जनता के सामने रखने शुरू किये, श्री मैथिलीशरण जी क्रोध से जल उठे और उसी मनोदशा में उन्होंने एक पद लिख दिया, जो संकलित न होने पर भी अमर हो गया है : ‘गंगा गयी, वोलगा का दुख-/दर्द तनिक हम महसूसें,/बुद्ध बाप जी मरे मांस खा,/हाड़ पूत राहुल चूसें।’ (रामधारी सिंह दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, पृष्ठ 36)

 

इतिहासविद काशी प्रसाद जायसवाल के साथ दिनकर की बैठकी खूब जमती थी। उनसे जुड़े कई रोचक संस्मरण हैं। एक शाम के पी जायसवाल और दिनकर ‘गप्प-शप्प’ के मूड में बैठे थे। जायसवाल जी ने शुरुआत की, ‘हिंदी में केवल दोय कवि भये।’ दिनकर ने पूछा, ‘वे कौन हैं भला?’ उन्होंने कहा, ‘एक तो वही चंद, और दूसरा यही हरिचंद।’ दिनकर ने अकचकाकर पूछा, ‘और तुलसीदास?’ वे बोले, ‘अरे, तुलसिया भी कौनो कवि रहा? उसकी तो बंदरवा न सुधार देता रहा जैसे गुप्तवा की महविरवा।’ कहावत है कि तुलसीदास की अधूरी कविताओं को हनुमान जी पूर्ण कर देते थे। और इधर तो सर्वविदित ही है कि मैथिलीशरण जी की कविताओं का संशोधन पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी किया करते थे। (रामधारी सिंह दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, पृष्ठ 8

जब ‘भारत-भारती’ पहले-पहल प्रकाशित हुई, द्विवेदी जी ने सरस्वती में उस पर एक लेख लिखा था जो प्रशंसात्मक और अत्यंत प्रभावपूर्ण था। लेख के अंत में द्विवेदी जी ने मैथिलीशरण जी के साथ अपनी मैत्री का भी जिक्र किया था और लिखा था, “लेकिन मैंने इसका कोई खयाल नहीं रखा है। सत्य, इसके साक्षी तुम हो।” जायसवाल जी जब पाटलिपुत्र में इसकी समीक्षा करने लगे, उन्होंने पुस्तक और लेखक तथा प्रकाशक के नाम एवं मूल्यादि लिखकर केवल एक वाक्य लिखा, “स्वर्ग से फतवा आया है।” और उसके बाद द्विवेदी जी का पूरा-का-पूरा लेख उद्धृत कर दिया। (दिनकर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 10)

राजाजी और रामकथा

संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने रामकथा पर विचार किया है। राजगोपालाचारी के बहाने कुछ विचार इस पुस्तक में भी। राजाजी (राजगोपालाचारी) का अनुमान है कि आदि कवि ने मूलतः रामकथा वहीं समाप्त की होगी, जहां राम का राज्याभिषेक होता है। राम ने सीता का परित्याग किया, यह मूलकथा में नहीं रहा होगा। वह प्रक्षिप्त अंश है। किन्तु, भारत की नारियों पर जो अत्याचार होते रहे, उन्हें प्रतीक का रूप देने को सीता वनवास की कथा गढ़ दी गयी और लोगों ने उसे इतना सत्य मान लिया कि वह मूलकथा का ही अंश बन गयी। (दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, पृष्ठ 76-77)

किसान

दिनकर हमें यह भी बताते हैं कि बिहार के पहले किसान नेता श्री अरीक्षण सिंह थे। सन 1921-22 ईस्वी में उन्होंने ‘किसान’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला था। इस पत्र के संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी हुए। तब उनकी उम्र फकत उन्नीस या बीस साल की थी। (दिनकर, संस्मरण और श्रद्धांजलियां, पृष्ठ 97)