डॉ कलीम आजिज़ साहेब की हालात ए ज़िन्दगी और गज़ल के संग्रह ‘वो जो शायरी का सबब हुआ’ जब शाए हुई तो आपबीती जगबीती बन गई। आज़ाद भारत में अश्क का सैलाब उमड़ गया। आज़ाद भारत की हुकूमत हिल सी गई। ज़ख़्म पर मरहम रखने के लिए डॉ. कलीम आजिज़ को सालों बाद जनवरी 1989 में इसी किताब के लिए पद्मश्री अवार्ड दिया गया। आज यह किताब पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर के पाठ्यक्रम में शामिल है।
15 अगस्त 2000 को दैनिक जागरण में प्रकाशित विशेष साक्षात्कार के लिए संवाददाता से बातचीत के दौरान डॉ. कलीम आजिज़ ने नम आंखों और भर्राइ आवाज में कहा था कि सरकार ने पद्मश्री देकर मेरे ज़ख़्म को मानो कुरेद दिया। 1946 में मेरे ख़ानदान के साथ जो कुछ हुआ वो ज़ख़्म ही मेरी ज़माने का ईनाम है।
#KalimAjiz (11 October 1920 -14 February 2015) was writer of Urdu literature, academician and chairman of the Urdu Advisory Committee of the Government of Gujrat.
He was a recipient of the 4th highest Indian civilian honour of #PadmaShri from the Government of India in 1982. pic.twitter.com/ObeRTuIOov
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) October 11, 2018
पत्रकार से बात चीत के दौरान इस अज़ीम शायर ने कहा था कि मैंने पद्मश्री को कभी हाथ नहीं लगाया। राष्ट्रपति भवन से कई बार पद्मश्री अवार्ड लेने के लिए बुलावा आया लेकिन मैं नहीं गया। हार कर सरकार ने पद्मश्री का तमगा और प्रमाण-पत्र डाक से भेज दिया। बांकीपुर डाकघर में महीनों यह अवार्ड पड़ा रहा। हार कर डाकख़ाना से अवार्ड बीएन कॉलेज के सामने स्थित घर भिजवाया गया। डॉ. कलीम आजिज़ ने जिस चौकी पर बैठ कर जागरण संवाददाता को साक्षात्कार दिया था उसी के नीचे रखे बदरंग हो चुके टीन के एक बक्से की ओर इशारा कर कहा था कि तब से लेकर आज तक पद्मश्री इसी बक्से में बंद है। मुझे इसे देखना भी गवारा नहीं। यह मेरे ज़ख़्म का मरहम कभी नहीं हो सकता है।
अपने उपर हुए ज़ुल्म को डॉ कलीम आजिज़ साहेब कभी नही भुले, हमेशा याद किया और लोगों को याद करवाते रहे … यही वजह है के ये मुझे पसंद हैं।
यह पुकार सारे चमन में थी, वो सहर हुई वो सहर हुई – मेरे आशियां से धुआं उठा, तो मुझे भी इसकी ख़बर हुई.
कलीम आजिज़ ने 1937 ई. में पहली बार गज़ल लिखी और ‘आजिज़’ तख़ल्लुस का प्रयोग किया।
तीन नवम्बर 1946 ई. के दौरान एक भयानक हिंसा की घटना का उनकी ज़िन्दगी और शायरी पर बड़ा गहरा असर पड़ा। जिसमें उनकी मां और छोटी बहन की मौत हो गई थी। इस ग़म की आग को वो सारी ज़िन्दगी अपने सीने में दबाए रहे। इस हादसे की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा :-
वो जो शायरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब हुआ – मैं ग़ज़ल सुनाऊं हूं इसलिए कि ज़माना उसको भुला न दे।
कलीम आजिज ने अपनी बेमिसाल और ख़ूबसूरत शायरी से पूरी दुनिया में अपनी काव्यात्मक निपुणता एवं महानता का लोहा मनवा लिया। उनकी शायरी में एहसास की तीव्रता, फ़िक्र की नवीनता और प्रस्तुति की जो सुन्दरता का सम्मिश्रण मिलता है, वह अपनी मिसाल आप है। उनकी शायरी नवीन चिंतन की क्लासिकी शायरी का बेहतरीन नमूना है।
ये दीवाने कभी पाबंदियों का गम नहीं लेंगे
गरेबां चाक जब तक कर न लेंगे, दम नहीं लेंगे
लहू देंगे तो लेंगे प्यार, मोती हम नहीं लेंगे
हमें फूलों के बदले फूल दो, शबनम नहीं लेंगे
मुहब्बत करने वाले भी अजब खुद्दार होते है
जिगर पर ज़ख्म लेंगे, ज़ख्म पर मरहम नहीं लेंगे
संवारें जा रहे हैं हम, तो उलझी जाती हैं ज़ुल्फें
तुम अपने जिम्मे लो, अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे
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दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो.
मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो,
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो.
हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम,
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो.
हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है,
हम और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो.
दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़,
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो.
वर्ष 1976 के दौरान विज्ञान भवन में भारत के राष्ट्रपति द्वारा उनकी प्रथम पुस्तक का लोकार्पण किया गया था। कलीम आजिज़ 60 और 70 के दशक में स्वतंत्रता दिवस की संध्या पर होने वाले लाल क़िले के मुशायरे में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले एकमात्र शायर थे। यहीं उनकी प्रसिद्धि एक नीडर और बेबाक शायर के रूप में भी हुई, लाल क़िला के डाईस से ही 1975 में डॉ कलीम आजिज़ ने आपातकाल के उस नाज़ुक दौरा में उस समय मुशायरे में मौजूद भारत की प्रधानमंत्री इंदरा गांधी की जानिब इशारा करते हुए एक शेर पढ़ डाला :- दामन पे कोई छींट, न ख़ंजर पे कोई दाग, तुम क़त्ल करे हो, के करामात करो हो.. इस शेर उन्हे बहुत दाद मिला पर मुशायरा करवाने वालों का ख़ून सूख चुका था।
इसके बाद जीवन भर “तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो” जैसी गज़ल डॉ कलीम आजिज़ की पहचान बनी रही।