जब बात भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की होती है तो सिर्फ एक ही नाम जो मुस्लिम कटआउट की तरह जहाँ देखो वहीं दिखाई देता है..? और वो नाम है “मौलाना अबुल कलाम आज़ाद” जिसे देखकर हमने भी यही समझ लिया कि मुसलमानो में सिर्फ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ही एक थे जिन्होने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन मे हिस्सा लिया था |जबके 1498 की शुरुआत से लेकर 1947 तक मसलमानो ने विदेशी आक्रमनकारीयों से जंग लड़ते हुए अपना सब कुछ क़ुरबान कर दिया … इतिहास के पन्नों में अनगिनत ऐसी हस्तियों के नाम दबे पड़े हैं जिन्हो ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने जीवन का बहुमूल्य योगदान दिया जिनका ज़िक्र भूले से भी हमें सुनने को नहीं मिलता ? जबकि अंग्रेजों के खिलाफ भारत के संघर्ष में मुस्लिम क्रांतिकारियों, कवियों और लेखकों का योगदान प्रलेखित है| इसी संदर्भ में आज हम ऐसे शख्स की बात करेंगे जिसके नाम के बिना भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास अधूरा है. इस शख्स ने ना सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि उस समय भारत की विदेश निति को मज़बूती प्रदान की जब भारत खुद अंग्रेज़ो का गुलाम था, मै बात कर रहा हूँ डा मुख़्तार अहमद अंसारी की ,, ये इत्तेफ़ाक़ है के डा मुख़्तार अहमद अंसारी उसी क़स्बे उसी ज़िले से ताल्लुक़ रखते हैं जहाँ के रहने वाले बाहुबली विधायक मुख़्तार अंसारी हैं,.
डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले के युसूफपुर में स्थित अंसारी परिवार में हुआ था। 1896 में उन्होंने विक्टोरिया हाई स्कूल ग़ाज़ीपुर में शुरुआती शिक्षा ग्रहण की और बाद में वे हैदराबाद चले गए जहाँ पहले से ही उनके दो भाई वहां मौजूद थे।
अंसारी ने मद्रास मेडिकल कालेज में शिक्षा ग्रहण की और निज़ाम स्टेट द्वारा मिले छात्रवृत्ति परआगे की पढाई के लिए इंग्लैंड चले गए । 1905 में अंसारी ने वहां एम.डी और एम.एस. की उपाधि प्राप्त की और सफल परीक्षाथिर्यों में सबसे शीर्ष पर रहे, जिसके कारण लंदन के लाक अस्पताल में, केवल एकमात्र भारतीय होते हुए, कुलसचिव के रूप में नियुक्त किये गये। उस चयन पर कुछ नस्लवादी अंग्रेजों ने बहुत हो-हल्ला मचाया. तब मेडिकल काउंसिल ने स्पष्टीकरण दिया कि उनका चयन योग्यता के आधार पर किया गया है. लेकिन, जो विवाद उठाया गया उससे डॉक्टर मुख्तार अंसारी उन दिनों वहां बहुत लोकप्रिय हो गये. बाद में लंदन के चारिंग क्रास अस्पताल में हाउस सर्जन के रूप में नियुक्त हुए अस्पताल ने डॉ0 अंसारी की सर्जरी के क्षत्र में उल्लेखनीय सेवाओं को स्वीकार किया और सर्जरी में उनकी कामयाबी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि चरिंग क्रॉस होस्पिटल में आज भी उनके सम्मान में एक वार्ड का नाम है जिसे अंसारी रोगी कक्ष के नाम से जाना जाता है।
लंदन में लम्बे समय तक रहने के दौरान डॉ0 अंसारी का ध्यान भारतीय राष्ट्रीय घटनाक्रम की तरफ भी आकर्षित हुआ, जब वह समय-समय पर लंदन आने वाले कुछ हिन्दुस्तानी नेताओं से मिले और उनकी मेहमाननवाज़ी की । लंदन में वह मोतीलाल नेहरु, हकीम अजमल खान और जवाहरलाल नेहरू से मिले और उनके आजीवन मित्र बन गये। विदेश में आरामदायक जीवन बिताने के बहुत सारे बढ़िया अवसर मिलने के बावजूद भी डॉ. मुख्तार अहमद 1910 में हिंदुस्तान लौट आये। हैदराबाद तथा अपने गृहनगर यूसुफपुर, मे थोड़े समय तक रहने के बाद, उन्होंने दिल्ली में फतेहपुरी मसजिद के पास दवाखाना खोला और मोरीगेट के निकट निवास बनाया. बाद में दरियागंज में रहने के लिए आये. उन्होंने लाल सुलतान सिंह से जो मकान खरीदा उसका, नाम रखा- दर-उस-सलाम. बाद में वह मकान उसी तरह की राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना, जैसे इलाहाबाद में आनंद भवन था, इस मकान में गाँधी जी सहित कई राष्ट्रवादी ठहर चुके हैं. उन दिनों दिल्ली में चुनिंदे भारतियों के पास ही अपनी कार थी. उनमें एक डॉक्टर अंसारी भी थे.
डॉ अंसारी हिंदुस्तान की आज़ादी के आन्दोलन के प्रति जागरूक थे और दिल्ली आते ही उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ही के सदस्य बन गए. वे जहां मशहूर डॉक्टर थे, वहीं राष्ट्रीय नेता क़ौम परास्त इंसान भी थे. गरीबों का मुफ्त इलाज करने के लिए भी उन्हें जाना जाता था. उनकी शोहरत का पताका दूर-दूर तक लहराता था. इसी दौरान उनकी मुलाक़ात मौलाना मोहम्मद अली जौहर से हुई और शुरुआती राजनीति में उन पर मौलाना मुहम्मद अली का बहुत प्रभाव था यही कारण है डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी 1912-13 मे हुए बालकन युद्ध मे ख़िलाफ़त उस्मानिया के समर्थन मे रेड क्रिसेंट के बैनर तले मेडिकल टीम की नुमाईंदगी दिसम्बर 1912 में की थी जिसमे उनके साथ मौलाना मोहम्मद अली जौहर सहित दीगर कई लोग शामिल थे …चुंके मलेट्री मदद करने पर अंग्रेज़ो ने पाबंदी लगा दी थी, इस लिए डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी ने 25 डॉकटर की टीम बनाई और मर्द नर्स की एक टीम बनाई जिसमे उनकी मदद करने के लिए काफ़ी तादाद मे तालिब ए इल्म ने हिससा लिया. इसमे कुछ नौजवान काफ़ी रईस घरानो से तालुक रखते थे और इनमे अधिकतर इंगलैड मे ज़ेर ए तालीम थे. इस काम के लिए डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी को “तमग़ा ए उस्मानिया” से नवाज़ा गया था जो उस समय वहां का एक बड़ा अवार्ड था जो फ़ौजी कारनामो के लिए उस्मानी सल्तनत द्वारा दिया जाता था. ये मिशन 7 माह तक चला और 10 जुलाई 1913 की शाम को दिल्ली स्टेशन पर 30000 से अधिक लोगो की भीड़ डॉ अंसारी और उनके साथियों के स्वागत के लिए खड़ी थी, इन लोगों का जगह-जगह बहुत सम्मान हुआ रेड क्रिसेंट के बैनर तले डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी के ज़रिये किए गए काम के लिए उन्हे ख़िलाफ़त के ज़वाल बाद भी याद किया गया और उनके कारनामो का ज़िक्र ख़ुद मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने इक़बाल शैदाई को इंटरवयु देते वक़्त किया था और उसने हिन्दुस्तान का शुक्र भी अदा किया था … धयान रहे हिन्दुस्तान मे रेड क्रॉस सोसाईटी 1920 मे वजुद मे आई जबके डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी ने उस्मानीया सल्तनत के समर्थन मे 1912 मे ही रेड क्रिसेंट सोसाईटी को अपनी सेवाएं देनी शुरी कर दी थी.. अभी हाल में ही भारत के दौरे पर आये तुर्की के सदर रजब तय्यिब एरदोगान ने जामिया मीलिया इस्लामीया के द्वारा मिल़े डॉक्टरेट की उपाधि पर शुक्रीया अदा करते हुए डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी के कारनामो को याद किया था.
हालांकि डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी के इस मिशन को मुस्लिम नेताओं ने संगठित किया था, लेकिन इसने हिंदुस्तान के नेताओं के लिये रास्ता खोल दिया ताकि वे अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर अपना पक्ष पेश करें और इसे प्रोत्साहित करें, और संसार के नक्शे में भारत को स्थापित किया जा सके। जिसका पहला असर दिसम्बर 1915 में काबुल में बनी आरज़ी हुकूमत के तौर पर देखा गया जिसमे राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति बने और मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली प्रधानमंत्री और इस आरज़ी हुकूमत को तुर्की सरकार ने मान्यता दी.
यही समय था जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग अपने राजनीतिक लक्ष्यों में एक दूसरे के करीब थे, और दोनों में से किसी ने भी दोनों मोर्चों पर साथ-साथ अपने आप को व्यक्त करने में किसी कठिनाई का सामना नहीं किया। इस प्रकार, डॉ. अंसारी स्वयं को दोनों क्षेत्रों से स्थापित करने में सफल हो गये, और 1916 की लखनऊ संधि में मुख्य भूमिका निभाई, जिसके अन्दर मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस समानुपाती प्रतिनिधित्व के विचार पर सहमत हो गये। 1918 में दिल्ली में होने वाले मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद संभाला। उनके निर्भय तथा बेधड़क अध्यक्षीय भाषण को, जिसमें उन्होंने खिलाफत का पक्ष लिया और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग पर बिना शर्त सहयोग का वायदा किया, सरकार ने गैर-कानूनी माना। 1920 में एक बार फिर से वह ऑल इंडिया मुस्लिम के नागपुर अधिवेश के अध्यक्ष बने, और वहां पर उसी समय मद्रास के विजयराघवाचरियार की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी से मिले जिसके अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे। तीन संगठनों का संयुक्त अधिवेशन हुआ।
डॉ. अंसारी खिलाफत आंदोलन के एक मुखर समर्थक थे और उन्होंने इस्लाम के खलीफा, तुर्की के सुलतान को हटाने के मुस्तफा कमाल के निर्णय के खिलाफ मुद्दे पर ख़िलाफ़त कमिटी , लीग और कांग्रेस पार्टी को एक साथ लाने और ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा तुर्की की आजादी की मान्यता का विरोध करने के लिए काम किया. असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया पर एक महान शिक्षाविद होने के वजह कर आंदोलन में शामिल छात्रों के भलाई के लिए भी काम किया जिस वजह कर उन्होंने बनारस में राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ और में जामिया मिलिया स्थापित करने में योगदान दिया।
10 फ़रवरी सन् 1920 को काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई, 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ में जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना हुई, डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी जामिया मिलिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति के सदस्य और संस्थापकों में से एक थे, वे आजीवन उसके संरक्षक थे, डॉ0 अंसारी ने इसकी स्थापना को बिना शर्त समर्थन दिया। 1925 में जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली लाया गया। तिब्बिया कॉलेज के पास बीडनपुरा, करोलबाग में जामिया को बसाया गया। हकीम अजमल खान की मृत्यु के बाद वह इसके कुलपति निर्वाचित हुए। उनके विचारों का ही प्रभाव था कि जामिया मिलिया ने इसलाम और राष्ट्रवाद में समन्वय का रास्ता अपनाया. उन्होंने जामिया के बारे में कहा था कि जहां हमने एक ओर सच्चे मुसलमान पैदा करने की कोशिश की, वहीं देश सेवा की भावना भी जागृत की।
डॉ. अंसारी मुस्लिम लीग की तरह कांग्रेस में भी ऊँचे पद पर थे। अपने पुरे जीवन भर वह कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य रहे। 1920, 1922, 1926, 1929, 1931 तथा 1932 में वह इसके महासचिव थे तथा सन् 1927 ई. में 42वें कांग्रेस अधिवेशन के सभापति हुए जिसकी बैठक मद्रास में हुई थी। इस अधिवेशन के अवसर पर अध्यक्ष पद से बोलते हुए इन्होंने हिंदू-मुस्लिम-एकता पर विशेष बल दिया था। उनके भाषण से प्रेरित होकर पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित हुआ. उनके ही प्रयास से कुछ साल बाद स्वराज पार्टी को फिर से जिंदा किया गया.
1928 ई. में लखनऊ में होने वाले सर्वदलीय सम्मेलन का इन्होंने सभापतित्व किया था और नेहरू report का समर्थन किया। डॉ॰ अंसारी भारतीय मुस्लिम राष्ट्रवादियों की एक नयी पीढ़ी में से एक थे जिसमें मौलाना आजाद, मुहम्मद अली जिन्ना जैसे लोग शामिल थे। वे आम भारतीय मुसलमानों के मुद्दों के बारे में बहुत भावुक थे लेकिन जिन्ना के विपरीत, अलग मतदाताओं के सख्ती से खिलाफ थे और उन्होंने जिन्ना के इस दृष्टिकोण का विरोध किया था कि केवल मुस्लिम लीग ही भारत के मुस्लिम समुदायों की प्रतिनिधि हो सकती है। डॉक्टर अंसारी के प्रयास से ही 1934 में डॉ राजेंद्र प्रसाद और जिन्ना में बातचीत हुई. लेकिन, वह प्रयास विफल रहा. इससे डॉक्टर अंसारी को धक्का लगा. उनकी सेहत गिर रही थी. इस कारण भी उन्होंने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. उन्हें फुरसत के कुछ पल मिले. एक किताब लिखी. दूसरी तरफ जामिया मिलिया पर वे ध्यान देने लगे. उन्हीं का फैसला था कि ओखला में जामिया को बसाया जाये, उन्होंने वर्तमान जामिआ की परिकल्पना की। भविष्य का नक्शा बनाया। ज़मीनें ख़रीदीं। जामिआ चलाने में साठ हज़ार का कर्ज़ हो गया। उस ज़माने के हिसाब से यह राशि बहुत बड़ी थी। अब्दुल मजीद ख्वाजा और डॉ0 अंसारी ने पुरे भारत का दौरा कर चंदा इकठ्ठा किया और आखिर 1 मार्च 1935 को ओखला में जामिया की बुनियाद रखी गई। मालूम है बुनियाद का पत्थर किसने रखा ? बुनियाद का पत्थर सबसे कम उम्र के विद्यार्थी अब्दुल अज़ीज़ ने रखा था। डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी जामिया मिलिया इस्लामिया के अमीर-ए-जामिया (कुलाधिपति) रहे और डॉक्टर जाकिर हुसैन को कुलपति बनाया.
रामपुर के नवाब के निमंत्रण पर मसूरी गये. लौटते समय ट्रेन में 10 मई, 1936 की रात को डॉ. अंसारी को दिल का दौरा पड़ा और उनका दिल रेल के डिब्बे में आखिरी बार धड़का। उनके शरीर को उनके प्रिय जामिया मिलिया इस्लामिया की गोद में अन्ततः लेटा दिया गया, उनकी क़ब्र जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में है। उनके निधन पर महात्मा गांधी ने कहा- ‘ शायद ही किसी मृत्यु ने इतना विचलित और उदास किया हो जितना इसने.’