राजघाट पुल : ‘डफ़रिन ब्रिज’ से ‘मालवीय पुल’ तक

 

Shubhneet Kaushik

राजघाट स्थित गंगा नदी पर बने पुल के निर्माण का काम जनवरी 1882 में शुरू हुआ, लॉर्ड रिपन के वाइसराय काल में। स्थानीय स्वशासन के पक्षधर रहे और अपने प्रशासनिक सुधारों के लिए चर्चित लॉर्ड रिपन 1880-84 तक भारत के वाइसराय रहे। पुल के निर्माण का काम लगभग पाँच वर्षों तक चला और इसका निर्माण ‘अवध एंड रूहेलखण्ड रेलवे’ के इंजीनियर फ़्रेडरिक वाल्टन की देखरेख में हुआ। फ़्रेडरिक वाल्टन ने ही गोदावरी नदी पर ‘हैवलॉक ब्रिज’ का निर्माण किया था।

1 अक्तूबर 1887 को यह पुल आम लोगों के उपयोग के लिए खोल दिया गया, नाम रखा गया ‘डफरिन ब्रिज’। तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड डफरिन के नाम पर। पुल पर लगे शिला-पट्ट के अनुसार रानी विक्टोरिया के भारत साम्राज्ञी बनने के इकतीसवें वर्ष में इसका उद्घाटन किया गया। बनारस के गैजेटियर के अनुसार 1048 मीटर (3507 फीट) लंबे इस पुल के निर्माण में लगभग 47 लाख 4 हजार रुपये का खर्च आया था। इस पुल के बनने से पूर्व राजघाट में इसी जगह नावों से बना पुल हुआ करता था।

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पुल के उद्घाटन के मौके पर फ़्रेडरिक वाल्टन के मित्र और साहित्यकार रुडयार्ड किपलिंग भी मौजूद थे। पुल बनने के छह वर्ष बाद किपलिंग ने अपनी एक चर्चित कहानी ‘द ब्रिज-बिल्डर्स’ में गंगा पर एक ऐसे ही बड़े पुल के बनने में आने वाली कठिनाइयों और बाढ़ के दौरान पुल-निर्माण का ब्यौरा दिया था। यह कहानी पहले-पहल 1893 में ‘इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज’ में छपी थी। इस कहानी का नायक फिंडलेसन पुल निर्माण के काम में लगा चीफ इंजीनियर है, जो बाढ़ से पुल के क्षतिग्रस्त होने के खतरे का सामना कर रहा है। कहा जाता है कि फिंडलेसन का यह किरदार फ़्रेडरिक वाल्टन के व्यक्तित्व पर ही आधारित था।

उल्लेखनीय है कि इस पुल में रेल और सड़क दोनों मार्ग एकसाथ थे, रेलमार्ग नीचे तो सड़क मार्ग ऊपर। साथ में पैदल यात्रियों के लिए पुल के दोनों ओर फुटपाथ भी। 1947 में जीटी रोड को गंगा के उस पार ले जाने वाला यह पुल जब डबल लाइन बना तब पुनः इसका नामकरण किया गया। नया नाम रखा गया बीएचयू के संस्थापक और राष्ट्रवादी नेता मदन मोहन मालवीय के नाम पर यानी ‘मालवीय पुल’।

5 दिसंबर, 1947 डबल लाइन वाले इस पुल का उद्घाटन संयुक्त प्रांत के ‘प्रीमियर’ (यानी मुख्यमंत्री) गोविंद वल्लभ पंत ने किया। इस मौके पर चीफ़ इंजीनियर केसी बाखले के साथ बीएचयू के तत्कालीन कुलपति और दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी मौजूद थे। तब यह पुल ईस्ट इंडियन रेलवे के अंतर्गत आता था। आम लोगों के लिए यह ‘राजघाट पुल’ भी है।